उपवास की वैज्ञानिक महत्त्व पर दो बार नोवेल पुरस्कार

उपवास की वैज्ञानिक महत्त्व पर दो बार नोवेल पुरस्कार

डॉ. नागेन्द्र कुमार नीरज, निदेशक- योगग्राम, हरिद्वार

उपवास की आयुर्वैज्ञानिक महत्त्व पर पहला नोवेल पुरस्कार बेल्जियम के वैज्ञानिक 95 वर्षी, क्रिस्टेन-डे-डुबे को 1974 . में मेडिसिन तथा फिजियोलॉजी के क्षेत्र मेंलाइसोसोमकी खोज के लिए मिला। थैलीनुमा संरचना (Saclike vescicles) लाइसोसोम द्वारा सतत् ट्रांसपोर्ट तथा नवकोशिका की मरम्मत, निर्माण का कार्य होता रहता है। ये सेल सिस्टम के अन्तर्गत थैलोनुमा पुटिकाएं एक दूसरे से आपस में मिलकर फ्यूज भी हो जाती हैं।
प्रत्येक कोशिका झिल्लियों से घिरी होती है। जिसमें कोशिका द्रव्य तथा न्यूक्लियस आदि संरचनाए होती हैं। सर्वप्रथम डुबे के नेतृत्व में इस सत्य का उद्घाटन हुआ कि प्रत्येक कोशिका में एक खास प्रकार की अलग झिल्लियों से घिरी थैलीनुमा संरचना होती है। इन्हें पुटिकाएँ (Sac like vesicles) कहते है। नन्ही थैलीनुमा पुटिकाओं के अन्दर कुछ जैव घटक (Cell organelles) होते हैं। इस विशिष्ठ संरचना को लाइसोसोम कहते हैं। डबे की यह खोज थी झिल्ली से घिरी, लाइसोसोम के जैव घटकों में 60 से अधिक पाचक एन्जाईम तथा 50 से अधिक मेम्ब्रेन प्रोटीन होते हैं। इनमें मौजूद पाचक एन्जाइम घिसी पिटी बुढ़ी, बीमार मृत्य कोशिकाओं के कचरे तथा हमलावर वायरस, बैक्टीरिया आदि को खाकर पचाकर खत्म करने तथा उन्हें ठिकाने लगाने का काम करते हैं। इतना ही नहीं लाइसोसोम बचे हुए उपयोगी जैव तत्वों से नयी कोशिकाओं के सृजन का काम भी करते हैं। इसके लिए अलग कार्यशाला कम्पार्टमेंट होता है। जहाँ विध्वंस, संहार, सृजन, रिसायकल रिसेम्बल तथा रिजेनरेशन का कार्य स्वतंत्र रूप से स्वत: सतत चलता रहता है।
दूसरा नोवेल पुरस्कार जापान के फुकुओका में जन्मे शरीर क्रिया विज्ञानी एवं सेल बायोलॉजिस्ट योशिनोरी ओहसुमि कोमेकानिज्म फॉर अटोफेगीपर 3 अक्टूबर, 2016 को दिया गया। उन्होंने उस खास जीन की पहचान की जो आटो फेगी प्रक्रिया को तेज करता है। उन्होंने प्रयोग के दौरान बेकर या ब्रेवर यीस्टसैकरोमाइसीज सैरेविसी(sacchromyces cerevisiae) को आधार बनाकर प्रमाणित किया कि यीस्ट एवं मनुष्य के अन्दर ऑटोफेगी की प्रक्रिया एक सदृश होती है। दोनों में जटिल मशीनरी काम करती है। इस खोज से उपवास, भूखमरी, रोगाणु संक्रमण के दौरान शरीर के अन्दर क्या-क्या घटित होता है। उस जैव क्रिया विज्ञान को समझने का शुभ अवसर मिला।
ऑटोफेगी जीन में म्यूटेशनउत्परिवर्तनहोने से बिमारियाँ होती है। कैंसर तथा न्यूरोलॉजिकल रोगों का सम्बन्ध ऑटोफेगी से जुड़ा हुआ है, ऑटोफेगी प्रोसेस को सही दिशा में संवर्द्धित करके इन रोगों पर विजय प्राप्त की जा सकती है।
उपर्युक्त शोधों के सन्दर्भ में लाइसोसोम तथा ऑटोफेगी प्रक्रिया दोनों का अर्थस्वयं को खा जाना (Self eating) होता है। सेल के अन्दर ही झिल्ली में बन्द लाइसोसोम जैविक घटकों (organelles) का नन्हा सा थैलीनुमा पुटिका सैक लाइक वेसिकल्स होता है। यह यीस्ट स्तनपायी तथा विशाल पेड़ों की कोशिकाओं में अलग-अलग आकारों के होते हैं। इसका मुख्य कार्य व्यर्थ के कार्बोज, प्रोटीन तथा लिपिड्स जैसे मैक्रो मौलेकुल्स को तोडक़र या पचाकर तथा बचे हुए से नये कोशिकाओं की मरम्मत रिसेम्बल एवं सृजन करना तथा दुश्मन बैक्टीरिया वायरस तथा अन्य एण्टीजेन के हमले के प्रत्युत्तर में उन्हें चटकर का खाकर नष्ट करना है।
ऑटोफेगी द्वारा शरीर की रुग्ण, टूटी-फूटी कोशिका तथा कोशिका जैव कचरे को खा-पीकर नष्ट करना तथा बचे हुए जैव घटकों से स्वस्थ एवं उपयोगी जैव रसायनों से नयी स्वस्थ कोशिकाओं का सृजन ऑटोफेगी प्रक्रिया का मुख्य लक्ष्य है।
आरोग्यप्रद ऑटोफेगी तथा लाइसोसोम प्रक्रिया बढ़ाने के उपाय- 18-20 घण्टे के उपवास के दौरान ऑटोफेगी तथा लाइसोम प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है। 58 से 72 घण्टे में यह प्रक्रिया सर्वोच्च शिखर पर पहुँच जाती है। व्यायाम तथा प्राणायाम से भी ऑटोफेगी तथा लाइसोसोम प्रक्रिया को बढ़ाया जा सकता है। कैलोरी नियंत्रित आहार उपवास से ऑटोफेगी तथा लाइसोसोम प्रक्रिया को बढ़ाया जा सकता है।
ऑटोफेगी तथा लाइसोसोम प्रक्रिया के अंतर्गत उपवास अवस्था (starvation mode) पर पहुंचते ही कोशिकाओं में सैकलाइक वेसिकल्स लाइसोम डाइजेस्टिव एन्जाइम का निर्माण तेजी से होने लगता है, जो हर कोशिका को संदेश पहुंच जाता है। जो भी कूड़ा-कचरा, बूढ़ी बीमार मरी कोशिकाएँ तथा उनके मलबे डेबरिस है, उसे खाकर नष्ट किया जाये। यहाँ तक कि कैंसर कोशिकाओं, वायरस बैक्टीरिया तथा अन्य विजातीय एण्टीजेन को भी खाने लगती है। वास्तव में लाइसोसेम आत्मघाती स्यूसाइड बैग की तरह है, जिनमें उपवास के दौरान विजातीय रोग कारक अराजक उग्रवादी तत्वों को मारने के लिए ही प्रकृति तैयार करती है। आत्मघाती बैग में 60 प्रकार हाइड्रोलाइटिक एन्जाइम होते हैं। प्रत्येक सेल के अन्दर एक पृथक कम्पार्टमेंट ही होता है जिसमें मौजूद थैलीनुमा पुटिका की हाइड्रोलाइटिक एन्जाइम बीमार, बुढ़ी, बेकार, कचरा, मृत्य कोशिकाओं के अवशिष्ट को खा पीकर नष्ट कर नयी कोशिकाओं की सृजन करती है, हर कोशिकाओं में संहार एवं सृजन का कार्य सतत चलता रहता है, किन्तु उपवास, लघु उपवास, इन्टमिटेन्ट फास्टिंग, कैलोरी नियंत्रित आहार उपवास, कठोर व्यायाम आदि से यह प्रक्रिया तेजी से होता है। शरीर में सृजन का काम बढ़ जाता है, शरीर का कायाकल्प होने लगता है।
लाइसोसोम में मौजूद 60 से अधिक हाइड्रोलाइटिक एन्जाइम में ग्लाइकोसाइडेसेस, प्रोटिएसेस, सल्फेटेसेस आदि होते है, लाइटिक एंजाइम अनुपयोगी पेप्टाइडस, न्यूक्लिक एसिड, कार्बोहाइड्रेट, लिपिड्स आदि विभिन्न अनुपयोगी तथा हानिकारक विजातीय बायोमोलेक्युल्स को खाकर पचा डालते हैं। मेम्ब्रेन प्रोटीन प्रत्येक कोशकीय प्रक्रिया को शानदार ढंग से सजाते एवं संवारते है। विभिन्न आयामों तथा अन्य तत्त्वों को आवश्यकता के अनुसार कोशिकाओं के अन्दर बाहर करने तथा बाह्य आन्तरिक पर्यावरण के मध्य संचार व्यवस्था तथा एन्जाइम उत्प्रेरक तथा अन्य रासायनिक प्रतिक्रियाओं के संतुलन संचालन तथा कोशकीय जैव रासायनिक प्रक्रियाओं के आधर स्तम्भ मेम्ब्रेन प्रोटीन ही होते हैं।
रोगाणुओं को खत्म करने के लिए लाइसोसोम एण्टीमाइक्रोबियल प्रोटीन्स तथा कई साइटोकाइन्स आवश्यकता के अनुसार पैदा करते हैं। लाइसोसोम ऑटोफेगोसोम तथा हेट्रोफेगोसोम भी हो सकते हैं।
ऑटोफेगोसोम एक प्रकार का हाउसकीपिंग जिसमें प्रोटीन से जैवघटकों को पृथक किया जाता है, हेट्रोफेगोसोम खास करके रेटिनलपिगमेन्ट एपिथलियम वाले केस में एक्सोजेनिस फोटोरिसेप्टर आउटरसेगमेन्ट को दूर करता है, नष्ट करता है।
आकार में लाइसोसोक्स प्राय: 0.1 से 0.5 माइक्रोमीटर अधिक तक 1 से 2 माइक्रो मीटर होते हैं। लाइसोसोम का दूसरा नाम सुस्याडलबैग भी है।
लाइसोसोम के विभिन्न कार्य के अनुसार चार प्रकार के लाइसोसोम में विभाजित किया गया है।
प्राइमरी लाइसोसोम ग्रेन्यूल्स फार्म में द्वितीय लाइसोसोम के साथ फूड कॉन्टेनिंग फेगोसोम होता है। तृतीय रेसिड्यूअल लाइसोसोम हाइड्रोलाइटिक एन्जाइम के अभाव में बुढ़ापा, हेपेटाइटिस, पालीनेफ्राइटिस तथा अन्य आटोइम्यून डिजीज पैदा करते हैं। जैसे लाइपोफुश्चिन पिगमेन्ट ग्रेन्युल्स रेसिडयूअल बॉडी है जो एजिंग का कारण है। चौथा ऑटोफेगिक वैक्यूओल्स (vauoles) को ऑटोफेगोसोम्स तथा ऑटोलाइसोसोम्स भी कहते हैं। इसी के द्वारा कोशिका कचरे डेबरिस को निस्तारण (disposal) तथा एपोपटोसिस प्रक्रिया सम्पादित होती है।
दोनों महान् वैज्ञानिकों के खोज के आहार पर श्रद्धांजलि स्वरूप पूरी प्रक्रिया को लाइसोम्स+ऑटोफेगी = आटाफेगोसोम नया नाम दिया गया है।
फेगोसाइटोसिस लाइसोसोम अर्थात् ऑटोफेगोसोम की प्रक्रिया द्वारा शरीर के अन्दर निम्न कार्य सम्पादित होते है-
1) अन्तकोशकीय पाचन (intra cellular digestion) के द्वारा फेगोसाइटोसिस लाइसोसोम के सहायता से रोगाणुओं को नष्ट करता है।
2) बाह्य कोशकीय पाचन के द्वारा कोशिका के बाहरी पर्यावरण में पाये जाने वाले रोगाणुओं एवं विजातीय तत्वों को नष्ट करने के लिए बाह्य एक्सोसाइटोसिस द्वारा लाइसोसाइम स्रावित होता है।
3) उपवास के समय लाइसोसोम कोशिकाओं के अन्दर जमा ऊर्जा के स्रोत कार्बोहाइड्रेट आदि खाद्यों का हाइड्रोलाइसिस प्रक्रिया (जल अपघटन या जल संलयन) द्वारा समस्त अंगों में त्वरित ऊर्जा का वितरण करता है।
4) नैसर्गिक शरीर सुरक्षा का कार्य करता है।
5) स्वयं का भंक्षण (Autophagy) द्वारा कुछ अंगों में व्यर्थ में जमा खाद्य पदार्थों को दूसरे अन्य अंगों के विकास में सहायता करता है।
6) अन्तर्कोशिकीय सफाइकर्मी पुराने जर्जर जीर्णशिर्ण सड़े-गले अनुपयोगी तथा रोगोत्पादक जैव घटकों को हटाने का कार्य कुशलता के साथ करते हैं।
7) लाइसोसोम एजेन्सी द्वारा थायरोग्लोब्युलिन को भलिभाँति ऑपरेट करके थायरॉक्सिन (T4) तथा ट्रायआयडोथायरोनिन (T3) बनाने में सहायता करता है। थॉयरॉयड हार्मोन संश्लेषण एवं निर्माण में वृहद ग्लाइकोप्रोटीन थायरोग्लोब्लुलिन आधात्री (मैट्रिक्स) की मुख्य भूमिका अदा करता है।
8) कोशिकाओं के विभाजन के दौरान समसूत्री चक्रीय दबाव को काबू में रखने का काम लाइसोसोम ही करता है, यानि कोशिका विभाजन में भी लाइसोसोम अत्यन्त जरूरी है।
9) जेनेटिक-क्रोमोसोम्स को टूटने तथा अन्य गड़बड़ी यहाँ तक रक्त कैंसर में हुए गड़बड़ी को ठीक करने में भी सहायक है।
10) लाइसोसोम विभिन्न प्रकार के कार्सिनोजेन्स को शरीर से पृथक कर तथा निगल कर खाकर पचाकर नष्ट करता है, लेकिन कार्सिनोजेन्स की प्रचुरता में लाइसोसोम लंग्स फाइब्रोसिस सिलकोसिस, एसबेस्टोसिस तथा न्यूमोनो अल्ट्रामाइक्रोस्कोपिक सिलिकोवोलकेनोसिस के कारण होने वाले फ्राइब्रोसिस में हानि भी पहुंचाता है।
11) ल्यूकोसाइट्स ग्रेन्यूल्स लाइसोसोम से उत्पन्न व्युत्पत्तिलब्ध (Derived) है। यानि शरीर की सुरक्षा सैनिक सफेद रक्त कोशिकाओं के निर्माण में योगदान करता है।
12) लाइसोसोमल सक्रियता से प्रोटीन के संश्लेषण, संतान उत्पत्ति में खास भूमिका है।
13) अस्थिकोशिकाओं के निर्माण तथा बूढ़ी अस्थि कोशिकाओं को खत्म करके, उनके स्थान पर नयी ताजी अस्थि (Parthenogenetic Development) कोशिकाओं का निर्माण विकास के कार्य का संबंध भी लाइसोसोम सक्रियता से जुड़ा हुआ है।
14) ऑस्टियोक्लास्ट के मल्टीन्यूक्लियोटेड कोशिका, नियोप्लास्टिक तथा मिक्सोफाइब्रो सार्कोमा का कारण बनते हैं, उसे लाइसोसोमल एन्जाइम द्वारा हटा दिया जाता है अथवा नष्ट कर दिया जाता है। इस प्रक्रिया में पैराथायरॉयड हार्मोन भी सहायता करता है।
15) शरीर में जब विटामिन- का लेवल बढ़ जाता है तो यह कोशिकाओं पर जहरीला प्रभाव डालता है, यह लाइसोसोमल मेम्ब्रेन का अंगभंग disrupts करता है। जिसके कारण एन्जाइम निकल कर कर्टिलेज तथा अस्थिकोशिकाओं की स्वयं नष्ट स्वलयन की प्रक्रिया ऑटोलाइसिस शुरू कर देता है।
16. गर्भ स्थापना में लाइसोसो की भूमिका होती है। शुक्राणु के सिर वाले भाग में लाइसोसोमल एन्जाइम होता है जिसके चलते वह अण्डाणु (Ovary) के पीतक आवरण विटेल्लाइन लेयर को भेदने में सक्षम हो जाता है। इस प्रकार से गर्भधारण में सहायता मिलती है।
17) लाइसोसोम का खतरनाक काम. लाइसोसोम के कुकर्म से कई रोग भी हो सकते है। जब लाइसोसोम के द्वारा ग्लाइकोजेन पकड़ लिया जाता है तो लाइसोसोम ग्लाइकोजेन का खा पाता है पचा पाता है, जिसे पोम्पेस रोग कहते हैं। त्वचा में लाइसोसोम के झिल्ली को फाडक़र बाहर आने तथा सूर्य की किरणों के एक्सपोजर के चलते सनबर्न की शिकायत होती है। इसी लाइसोसोम से मुक्त एन्जाइम त्वचा के एपिडर्मिस कोशिकाओं को क्षतिग्रस्त करके फुंसिया पैदा करती है। बाद में त्वचा पर छाले पड़ जाते हैं। वे छील जाते हैं।
18) लाइसोसोम का दूसरा नाम सुसाइडल बैग भी है। लाइसोसोम ऑटोफेगोसोम तथा हेट्रोफेगोसोम भी हो सकते हैं। आटोफेगोसोम शरीर के अन्दर की सफाई कार्यों का प्रबन्धन प्रदर्शन यानि स्वीपिंग, मोपिंग, वैक्युमिंग, डस्टिंग आदि हाउसकीपिंग प्रोसेस को संचालित करता है। जैसे अवांछित जैव घटकों से प्रोटीन पृथक करके इकठ्ठा करता है, उसी प्रकार रेटिनल पिगमेंट एपिथलियल वाले केस में एक्सोजेनस फोटोरिसेप्टर आउटर सेगमेन्ट हेट्रोफेगोसोम आदि विजातीय तत्त्वों को दूर करता है तथा नष्ट करता है।
19) उपवास से रक्त शर्करा कम हो जाता है, ऊर्जा के लिए शरीर साइट्रिक एसिड सायंकाल तथा पेन्टोज फॉस्फेट पाथवेज का वैकल्पिक रास्ता का चुनाव करता है, एक अन्य रास्ता कोन्युयोजेनोसिस का रास्ता भी चुनाव करता है। शरीर में जमा प्रोटीन तथा फैट ऊर्जा के रूप में काम में आने लगता है जिससे बीटा हाइड्रोक्सी ब्युटिरेट का लेवल शरीर में बढ़ जाता है। BOHS के लेबल बढऩे से उसका सकारात्मक दबाव से शरीर की स्वास्थ्य विधायी शक्तियाँ जाग्रत (Wake) हो जाती है। शरीर उत्तरजीविता जीर्णोद्धार सुधार मोड (Survival recycling mode) पर पहुँच जाता है। 48 से 72 घण्टे के उपवास से ऑटोफेमी प्रक्रिया सर्वोच्च शिखर पर होती है। कोशकीय होमोस्टेसिस तथा कोशकीय कार्य पर किसी प्रकार के अवांछित विजातीय तत्वों का दबाव नहीं होती है। रोग कारक दबाव को ऑटोफेगी उदासीन कर देता है।
20) उपवास के दौरान ऑटोफेगोसोम प्रक्रियाएँ उच्च शिखर पर होने से शरीर के अन्दर रोगाणु भी नष्ट होने लगते हैं।ऑटोफेगोसोमसे वे थरथराते एवं कँापते हैं। ग्राम नेगेटिब बैक्टीरिया द्वारा उत्पन्न थर्मोस्टेबल एण्डोटॉक्सिन्स लाइपोपॉलीसैकराड्स प्रोटीन कॉम्पलेक्सेस तथा कुछ अन्य ग्राम  -ve तथा अधिकाशत: ग्राम +ve बैक्टीरिया के दुष्प्रभाव के विनाशकारी दबाव एवं प्रभाव को ऑटोफेगोसोम खत्म कर देता है।
21) बार-बार खाने से अधिक मात्रा में खाने, अनुचित गलत आहार खाने, गलत तरीके से भोजन बनाने द्वारा हायर एडवान्स ग्लाइकेशन एण्ड प्रोडक्ट कुकिंग प्रोसेस जैसे तेल में भूनना बॉइलिंग, सीधे आग के सम्पर्क में ग्रीलिंग, अधिक तापमान के थोड़े से फैट में आहार को भूनना सीरिंग, थोड़े से फैट में आहार को नरम होने तक भूनना, काफी तेज आँच पर तलना डीप फ्राइंग, साउटिंग, तेज तापमान, तन्दूर आदि में पकाने से आहार में जहरीले .जी.. पैदा होते हैं, तेल में तेजी से भूनना बोइलिंग, भूरे होने तक भूनना रोएस्टिंग, इस प्रकार तलना जिसके आधे भाग में तेल पहुँचे शैलो फ्राइंग, आग तथा कोयले के धुँए पर पकाना बारबेक्यु तथा जो हृदय रोग, मधुमेह तथा कैंसर उत्पन्न करते हैं।
   स्टीमिंग, बॉइलिंग, पोचिंग, (71-820c जल में पकाना), बेकिंग, रोएस्टिंग, बैलेचिंग, उबालकर बर्फ  में ठण्डा करना, मसाले को भूनकर पानी में पकाना, ब्राइसिंग, बारवेक्युईंग, कम तेल में फल सब्जियाँ पकाना आदि आहार में कम मात्रा में एडवान्स ग्लाइकेशन एण्डप्रोडक्टस .जी.. पैदा होता है। भोजन बनाने का यह तरीका उत्तम है। गलत तरीके से बने आहार के दुष्प्रभाव एवं टॉक्सिन्स को उपवास के दौरान उत्पन्न ऑटोफेगोसोम प्रक्रिया खत्म कर देता है। डिटॉक्सीफाई प्रभाव से नष्ट कर देता है।
22) प्रोसेस्ड फूड, डब्बा बन्द मांसाहार, बेकन, हेम साउसेज, हॉटडॉग, पेप्परॉनी, बीफजर्की, डेली मीट्स, रोएस्टेड बीफ, टर्की, लन्च मीट, बोलोग्ना तथा ग्रेनोला बार्दा, शाकाहारी फ्लेवर्ड नट्स, पोटेटो चीप्स, माइक्रोवेव पॉपकॉर्न बैग्स, कन्फेकशनरी कूकीज, केक, पेस्टी, पेटीज, पेस्ट्री, ब्रेड, कुरकुरे, नूडल्स आदि में मौजुद खतरनाक स्तर पर सोडियमए फैट, प्रिजरवेटिव, एडिटीव्स आदि रसायन के रूप में नाइट्रेट्स, सोडियमग्लुटोमेट आदि होते है। प्रोसेसिंग प्रीजरवेंशन तथा कुकिंग के दौरान नाइट्रसएमिन्स हेट्रोसाइक्लिक एमिन्स तथा पॉलीसाइक्लिक एरोमेटिक हाइड्रोकार्बन्स पैदा होते है जो खतरनाक बीमारी मेटाबॉलिक सिण्ड्रोम पैदा करते हैं, इन स्थितियों में उपवास के द्वारा दुष्प्रभाव को नष्ट किया जा सकता है।
23) उपर्युक्त अनुचित आहारों के लगातार प्रयोग से कोशिकाओं के क्षतिग्रस्त प्रोटीन एवं लिपिड्स तथा अन्य जैव घटकों आर्गेनेलेस का लाइसोसोम मेडिएटेड डिग्रेडेशन होता है। इस प्रकार से ऑटोफेगी मिस (गलत) रेगुलेशन-नियंत्रण एवं नियमन की गड़बड़ी के चलते अनेक प्रकार के रोगकारक स्थितियाँ पैदा हो जाती हैं। इन सबका प्रभाव शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता पर होती है। कुछ स्वास्थ विरोधी इम्युनमॉलेक्यल्स साइटोकाइन्स, केमोकाइन्स, डेन्ड्रिटिक सेल्स, टी.जी.एफ., एण्डोटाक्सिन्स, साइक्लो ऑक्सीजेनेस कॉक्स-2, जेनोटॉविसक, म्युटेजेनिक, कार्सिनोजेनिक, टेराटोजेनिक, एन.एफ.के.बी. न्युक्लियर फैक्टर काप्पा बी सक्रिय होकर अनेक रोगों से ग्रस्त कर सकते हैं।
   इस प्रकार से पता चलता है कि उपर्युक्त दोनों प्रक्रियाएँ लाइसोसोम तथा ऑटोफेगी स्वास्थ्य संरक्षण, स्वास्थ्य सम्बद्र्धन, रोग निवारण की दृष्टि से कितनी अद्वितीय है।
   इन दोनों प्रक्रियाओं को किसी प्रकार के वैज्ञानिक उपवास द्वारा सही दिशा में बढ़ाकर आरोग्यपूर्ण दीर्घायु प्राप्त की जा सकती है। इस खोज के लिए ऋषि तुल्य इन दोनों वैज्ञानिकों को शत्-शत् नमन है जिन्होंने कायाकल्प के इस भारतीय परम्परागत विज्ञान को रिसर्च के आधर पर मानव जाति कोलोका समस्ता स्वस्था भवन्तु। लोका समस्ता सुखिनो भवन्तुए दीर्घायु भव: आयुष्मान भव:।।का मूल मंत्र दिया है।
 

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