पुरुषार्थ और परमार्थ की पराकाष्ठा हैं परम श्रद्धेय स्वामी जी महाराज

पुरुषार्थ और परमार्थ की पराकाष्ठा हैं परम श्रद्धेय स्वामी जी महाराज

ब्रह्मचारिणी दीपिका,

वैदिक कन्या गुरुकुलम्

बड़ी ऊँची तेरी रहमत बहुत छोटी जुबां मेरी।
तेरी रहमत को शब्दों में सुनाया जा नहीं सकता।।
मैंने अपने जीवन में पहली बार ऐसे महान् दिव्यदर्शी, परम तपस्वी, कर्मठ पुरुषार्थी एवं बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी, विश्व मंगल हेतु अहर्निश सेवा में संलग्र रहने वाले सहज, सरल प्रतिभाशाली व्यक्तित्व वाले महापुरुषों के विषय में स्कूल में पढ़ा था, बड़े गुरुजनों से सुना था किन्तु साक्षात् दर्शन ही नहीं उनके सान्निध्य में रहना अपने आप में दुनियाँ की सबसे बड़ी उपलब्धि समझती हूँ। हम अपने को धन्य समझते हैं जो इतने बड़े युगनिर्माता का सान्निध्य प्राप्त हुआ।
वर्तमान युग में परम पिता परमेश्वर, ऋषियों और महापुरुषों के प्रतिनिधि के रूप में युगद्रष्टा योगऋषि परम श्रद्धेय स्वामी जी अपने ऋषिपुत्र होने का कर्तव्य निभा रहे हैं, वे भारत के ही नहीं अपितु सम्पूर्ण विश्व के एक आदर्श सन्यासी तप, त्याग तथा संयम की प्रतिमूर्ति हैं, वो दिव्य महापुरुष हैं। परम श्रद्धेय गुरुवर प्रारब्ध से अधिक पुरुषार्थ पर बल देते हैं और उसी को जीवन में चरितार्थ किया है।
अपने पास जो भी है वह दूसरे को समर्पित कर देना, समस्त भारत की पीड़ा को अपनी पीड़ा समझना, उनके सम्पूर्ण अस्तित्व में उनको अपना वतन दिखता है। परम श्रद्धेय स्वामी जी हमेशा इस भाव से जीते हैं कि मेरे वतन से मेरा तन है। हृदय, मन, मस्तिष्क, अस्थियाँ, मासपेशियाँ, रक्त की एक-एक बूँद देश की मिट्टी से पायी है। जब तक देह में प्राण रहेंगे तथा खून की आखिरी बूँद शेष रहेगी, तब तक देश के लिए काम करूँगा, देश के लिए जीऊँगा तथा देश के सम्मान स्वाभिमान के लिए मुझे अपने प्राणों की भी आहुति देनी पड़े तो भी पीछे नहीं हटूँगा। जीवन का एकमात्र ध्येय देवत्व की विजय असुरत्व की पराजय और इसके लिए जीवन पर्यन्त संघर्ष करते रहना है। परम श्रद्धेय गुरुवर कहते है, मैं व्यक्ति नहीं सम्पूर्ण राष्ट्र का प्रतिनिधि, ऋषिपुत्र, आर्यपुत्र भारत माता तथा ईश्वर का पुत्र हूँ। मेरे अच्छे-बुरे आचरण से पूरा राष्ट्र प्रभावित होता है। पहले भारतीय हूँ, बाद में हिन्दू, मुसलमान, सिख, ईसाई आदि हूँ। मनुष्यता मेरी जाति, मानवता मेरा धर्म राष्ट्रहित में कर्म करना जीवन का लक्ष्य है और संकल्प, दृढ़ता, निरन्तरता के साथ पुरुषार्थ से व्यक्ति अपने भाग्य को भी बदल सकता है। अपने राष्ट्र का गौरव बढ़ाना, दुनियाँ की बड़ी उपलब्धि है।
परम श्रद्धेय गुरुवर आज सम्पूर्ण प्रकार की सुख-सुविधा संपन्न होते हुए भी वो झोपड़ी में रहते है, जमीन पर सोते हैं, एक सामान्य व्यक्ति की भाँति जीवन जीते हुए सदा जीवन में उच्च विचार का आदर्श प्रस्तुत करते हैं, वह भोर में उठकर सबसे पहले धरती माँ को प्रणाम करते हुए माता भूमि पुत्रोऽहं पृथिव्या:’ का भाव मन में रखते हुए सुबह-सुबह लोगों को योग के माध्यम से जगाते हैं। सुबह योग और दिनभर कर्मयोग करने की प्रेरणा एवं शिक्षा देते हैं। उनकी हर साँस माँ भारती के उत्थान और निर्माण में होती है, जैसे- रघुवंशम् में महाराज दिलीप का उदाहरण-
प्रजानामेव भूत्यर्थं ताभ्यो बलिमग्रहीत्।
सहस्रगुणमुत्स्रष्टुमादत्ते हि रसं रवि:।।रघुवंशम् १७।।
महाराज दिलीप प्रजाओं की वृद्धि के लिए ही उनसे कर लिया जैसे कि सूर्य हजार गुणा (जल) बरसाने के लिए ही जल को ग्रहण करता है। वैसे ही गृहस्थियों से उनकी योग्य सन्तान और दान लेकर अपने पूर्वज ऋषियों का वंश आगे चलने के लिए परम श्रद्धेय गुरुवर राष्ट्र को योग्य मार्गदर्शन दिशा देने वाले साधु-संन्यासियों का निर्माण कर रहे हैं। प्राचीन आर्ष शिक्षा के साथ-साथ आधुनिक शिक्षा का समन्वय करके विविध क्षेत्रों में नवसृजन कर रहे हैं तथा योग, आयुर्वेद, वैदिक ज्ञान एवं स्वदेशी चिकित्सा व्यवस्था, कुदरती खेती (गोधन पशुधन आधारित), स्वदेशी उद्योग एवं ग्रामोद्योग आदि के माध्यम से जिस स्वदेशी व्यवस्था परिवर्तन की जो हम बात करते हैं, उसको आदर्श रूप में हमने उन्हीं के संकल्प से धरातल पर उतरता देखा। आगे भी भारत को विश्वगुरु का दर्जा दिलाने में वे अहर्निश पुरुषार्थ कर रहे हैं।
जिस कार्य को हाथ में लेते है तो उसको पूर्ण करते है। वह दिन देखते है रात, मुहूर्त देखते है प्रतिकूलता, मन में जो भी ठान लेते हैं, उसको पूर्ण करते हैं। जीवन का एक क्षण भी व्यर्थ नहीं गँवाते, दिन तो बड़ी दूर की बात है, उनका कहना है कि जिस भागवत् कार्य के लिए मेरे प्रभू ने मेरा चयन किया है, उसको पूर्ण करना मेरा कर्तव्य/उत्तरदायित्व है चाहे कोई देखे या देखे, कोई भला कहे या बुरा, जैसे नीतिश्लोक में कहा है-
निन्दन्तु नीतिनिपुणा यदि वा स्तुवन्तु,
लक्ष्मी: समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम्।
अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा,
न्याय्यात्पथ: प्रविचलन्ति पदं धीरा:।। (भर्तृहरिशतकम् ७९)
जग चाहे निन्दा करे या स्तुति, लक्ष्मी (धन) आए या जाए मृत्यु आज हो जाए या युगों के बाद परन्तु सत्य धर्म पथ से धैर्यवान् व्यक्ति विचलित नहीं होते। वो कार्य स्वयं पूर्ण करके उसका श्रेय महापुरुषों तथा भगवान् को देते हैं। जो कुछ हुआ वह भगवान् की कृपा से हुआ, उसकी कृपा के बिना कार्य असंभव है, ऐसा कहते हैं। श्रीमद्भगवत्गीता में आया है-
त्वत्प्रसादात् मयाऽच्यूतम। प्रभु आपकी ही अहेतु की कृपा से यह सब कुछ सम्भव है, मैं तो बस निमित्त-मात्र हूँ।
गुरुवर संकल्प सिद्ध महापुरुष हैं। जो संकल्प लिया, उसको पूर्ण होते हुए देखा है। वे जहाँ जाते हैं, वहाँ उनके अनुकूल वातावरण हो जाता है। प्रकृति भी उनसे प्रभावित होती है, हमने ऐसा अनुभव किया है। जब परम श्रद्धेय गुरुवर योगपीठ में नहीं होते तो उनकी अनुपस्थिति का ऐहसास लताएँ, फूल-पौधे आदि कराते हैं। लताएँ मुर्झायी सी दिखती हैं, पौधों पर फूल कम दिखते हैं, ऐसा लगता है किसी के वियोग से है। जैसे ही परम श्रद्धेय गुरुवर प्रवास से योगपीठ वापस आते हैं, उनके आने का संदेश लताएँ, फूल आदि देते हैं, लताएँ झूमती हैं, फूल-पौधों में इतने आते हैं कि उसकी तुलना में पते कम दिखते हैं। फूल आनन्दित होकर खिलखिलाकर मुस्कुराते हैं। सारी प्रकृति को आनन्द से भरा होता हुआ अनुभव किया है क्योंकि वह सदा जड़-चेतन दोनों के प्रति कृतज्ञता का भाव रखकर समष्टी के कल्याण के लिए प्रभु प्रार्थना करते हैं-
त्वहं कामये राज्यं, स्वर्गं सुखानि च।
कामये दु:खतप्तानां, प्राणिनामर्तिनाशनम्।।
हे करुणामय परमात्मन! मेरी स्वर्ग सुख दिव्य भोग राज्य प्राप्ति की इच्छा नहीं किन्तु हे प्रभो! आधि-व्याधि आदि दु:खों से संतप्त प्राणियों के रोग संताप समस्त समाप्त हो जायें और सब स्वस्थ आनन्दमय जीवन जीएँ, यही शुभकामना करते हैं। उनके लिए भारत  ही नहीं अपितु सम्पूर्ण विश्व के लोगों को किसी भी प्रकार के रोगों से अथवा अल्प समय में मृत्यु हो, संस्कारवान् और चरित्रवान् आध्यात्मिक राष्ट्र बने, यही आशीष प्रभु से माँगते हैं और उसके लिए १८ से २० घण्टे रोज पुरुषार्थ करते हैं। उनका व्यक्तिगत कोई उद्देश्य नहीं है, वह यह सब परमार्थ के लिए करते हैं।
हम वेदोक्त पथ पर ही आगे बढ़ें। गुरु के चरित्र को आत्मसात करके गुरु द्वारा संचालित सेवा-यज्ञ में सहयोग तथा उनका अनुकरणीय आचरण करें। हमारी श्रद्धा, निष्ठा, भक्ति अखण्डित रहे। एक क्षण के लिए भी विचलित हो, ऐसी प्रभु चरणों में नत्मस्तक होकर प्रार्थना करते हैं।


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