नारियों के लिए संन्यास आश्रम का अधिकार
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आचार्य विजयपाल प्रचेता
पतञ्जलि योगपीठ, हरिद्वार
वैदिक धर्म के दो प्रकार है-प्रवृत्तिपरक एवं निवृत्तिपरक। कल्याण चाहने ब्राह्मण आदि चारों वर्णों के जनों द्वारा एवं ब्रह्मचारी आदि चारों आश्रमियों द्वारा इसका अनुष्ठान किया जाता है। इन चार आश्रमों में संन्यास आश्रम निवृत्तिमार्गपरक है। वैराग्य युक्त जन ही संन्यास आश्रम के अधिकारी माने जाते हैं। जैसा कि कहा है-
यदि वेतरथा ब्रह्मचर्यादेव परिव्रजेत्, गृहाद्वा वनाद्वा। यदहरेव विरजेत् तदहरेव प्रव्रजेत्।
(अथर्ववेदीया जाबालोपनिषत्, खण्ड:-4)
वैराग्य होने पर ब्रह्मचर्य आश्रम से ही परिव्राजक (संन्यासी) हो जाना चाहिए अथवा गृहस्थ आश्रम या वानप्रस्थ आश्रम से संन्यास ले लेना चाहिए अथवा जिस दिन वैराग्य हो जाय, उसी दिन प्रव्रजित (संन्यासी) हो जाना चाहिए। संन्यासी का धर्म इस प्रकार बताया गया है-
सर्वारम्भपरित्यागो भैक्ष्याश्यं ब्रह्ममूलता।
निष्परिग्रहताऽद्रोह: समता सर्वजन्तुषु।।
प्रियाप्रियपरिष्वङ्गे सुखदु:खाविकारिता।
सबाह्याभ्यन्तरं शौचं वाङ्मनोव्रतचारिता।।
सर्वेन्द्रियसमाहारो धारणाध्याननित्यता।
भावसंशुद्धिरित्येष परिव्राड्धर्म उच्यते।।
(नीतिसार:-2.29-31)
सभी काम्य कर्मों का परित्याग, भिक्षाचरण, ब्रह्मचिन्तन, अपरिग्रह (संग्रह न करना), अद्रोह एवं सब प्राणियों के प्रति समता का व्यवहार करना संन्यासी का धर्म है। प्रिय एवं अप्रिय जनों या पदार्थों का संयोग होने पर भी सुख और दु:ख आदि विकारों से दूर रहना, बाहरी एवं भीतरी शुचिता (पवित्रता), वाणी एवं मन का संयम, सभी इन्द्रियों का नियन्त्रण, धारणा एवं ध्यान का नित्य अभ्यास और मन को निर्मल रखना- यह संन्यासी का धर्म है। आचार्य विष्णुगुप्त (चाणक्य) ने अपने अर्थशास्त्र में संन्यासी का धर्म इस प्रकार बताया है-
'परिव्राजकस्य संयतेन्द्रियत्वमनारम्भो निष्किञ्चनत्वं सङ्गत्यागो भैक्षम् अनेकत्रारण्यवासो बाह्याभ्यन्तरं च शौचम्’।
(कौटलीयम् अर्थशास्त्रम्-1.3)
अर्थात् इन्द्रिय-संयम, सांसारिक प्रपञ्चों से निवृत्ति, निष्किञ्चता (कुछ भी संग्रह न करना), सङ्गत्याग (आसक्ति का परित्याग), भिक्षाचरण, अरण्यवास एवं बाहरी व आन्तरिक शुचिता- यह संन्यासी का धर्म है।
इस प्रकार के स्वरूप वाले संन्यास आश्रम में प्राचीन वैदिक काल से ही नारियों का भी अधिकार माना गया है। इस विषय में महर्षि याज्ञवल्क्य की पत्नी मैत्रेयी का बहुत ही सुन्दर वृत्तान्त इस प्रकार मिलता है-
'अथ ह याज्ञवल्क्यस्य द्वे भार्ये बभूवतुर्मैत्रेयी च कात्यायनी च। तयोर्मैत्रेयी ब्रह्मवादिनी बभूव स्त्रीप्रज्ञैव तर्हि कात्यायनी। अथ ह याज्ञवल्क्योऽन्यद् वृत्तमुपाकरिष्यन्मैत्रेयीति होवाच याज्ञवल्क्य: प्रव्रजिष्यन् वा अरेऽहमस्मात् स्थानादस्मि। हन्त तेऽनया कात्यायन्यान्तं करवाणीति। सा होवाच मैत्रेयी यन्नु म इयं भगो: सर्वा पृथिवी वित्तेन पूर्णा स्यात् स्यां न्वहं तेनामृताहो नेति? नेति होवाच याज्ञवल्क्य:। यथोपकरणवतां जीवितं तथैव ते जीवितं स्यात्, अमृतत्वस्य तु नाशास्ति वित्तेनेति। सा होवाच मैत्रेयी येनाहं नामृता स्यां किमहं तेन कुर्याम्, यदेव भगवान् वेत्थ तदेव मे ब्रूहीति’।
(बृहदारण्यकोपनिषद्- 4.5.4)
मुनि याज्ञवल्क्य की दो पत्नियाँ थी- मैत्रेयी और कात्यायनी। उनमें मैत्रेयी ब्रह्मवादिनी हो गई थी, किन्तु कात्यायनी स्त्रीप्रज्ञा (सामान्यस्त्रियों जैसी बुद्धि वाली) थी। गृहस्थ आश्रम से निवृत्त होने के इच्छुक मुनि याज्ञवल्क्य ने एक दिन मैत्रेयी से कहा- मैं यहाँ से प्रव्रजित होना चाहता हूँ, अत: कात्यायनी और तुम्हारे बीच सम्पत्ति का विभाजन (बँटवारा) कर देता हूँ। तब मैत्रेयी ने कहा- मुनिवर! यदि धन-धान्य से परिपूर्ण सारी पृथ्वी मेरी हो जाय तो क्या मैं अमृत हो जाऊँगी, इस पर याज्ञवल्क्य ने कहा- ऐसा तो नहीं होगा। धन से इतना ही होगा कि तुम्हारा जीवन धनी पुरुषों जैसा सुविधासम्पन्न हो जायेगा। इस पर मैत्रेयी ने कहा- जिससे मैं अमृत पद को प्राप्त नहीं कर सकती, उस धन का मैं क्या करूँगी। मुझे तो इसके स्थान पर अमृत पद प्राप्त कराने वाली उसी विद्या का उपदेश दीजिये, जिसे आप जानते हैं।
इस प्रकार मैत्रेयी की ब्रह्म-विषयक जिज्ञासा को जानकर याज्ञवल्क्य ने उसे ब्रह्मविद्या प्रदान की। इससे वह घर एवं घर के उपकरणों के विषय में सर्वथा तृष्णा रहित होकर याज्ञवल्क्य के समान ही संन्यासी का जीवन बिताने लगी। इस प्रसंग से विदित होता है कि अति प्राचीन काल से ही भारतवर्ष में वैराग्ययुक्त स्त्रियाँ संन्यास आश्रम में दीक्षित होती थी।
अग्निपुराण में राजधर्म-वर्णन के प्रसंग में बताया गया है कि नौका आदि से पार उतरने में संन्यासिनी महिलाओं से शुल्क नहीं लेना चाहिए- स्त्रीणां प्रव्रजितानां तु तरशुल्कं विवर्जयेत्। (अग्निपुराणम्-223.25) इस कथन से भी प्राचीन भारतीय समाज में संन्यासिनी महिलाओं की उपस्थिति प्रमाणित होती है।
वैराग्य होने पर ही संन्यासाश्रम का अधिकार मिलता है, नारीप्रकृति को प्राय रागबहुल माना जाता है अत उनके वैराग्य के उदाहरण अपेक्षाकृत कम दिखते हैं, परन्तु इससे नारियों का संन्यासाश्रम में अधिकार बाधित नहीं होता है। यह अधिकार अनेक प्रमाणों से सिद्ध है-'कुमार: श्रमणादिभि:’ (अष्टाध्यायी- 2.१.69) इस पाणिनीय सूत्र के उदाहरण के रूप में- कुमारी चासौ श्रमणा कुमारश्रमणा, कुमारी चासौ प्रव्रजिता कुमारप्रव्रजिता, कुमारी चासौ तापसी कुमारतापसी (काशिका- 2.1.70) ये शब्द मिलते हैं। इनसे विदित होता है कि प्राचीन काल में वैराग्य युक्त बालाएँ ब्रह्मचर्याश्रम से ही संन्यासिनी हो जाती थी।
इस प्रकार विरक्त पुरुषों के समान विरक्त नारियों के लिए भी संन्यासाश्रम का सामान्य विधान सिद्ध होता है। सामान्य विधान के प्रसङ्ग में हमें इस परिभाषा वचन को स्मरण रखना चाहिए- 'प्रातिपदिकग्रहणे लिङ्गविशिष्टस्यापि ग्रहणम्’ (व्याडिपरिभाषासूचनम्-29) अर्थात् पुरुष के लिए विहित सामान्य धर्म नारी के लिए भी लागू होता है। यदि विरक्त पुरुष के लिए संन्यास का विधान है तो विरक्त नारी के लिए भी यह विधान सिद्ध होता है, यह उक्त परिभाषा वचन के प्रमाण से स्पष्ट है। इसीलिए याज्ञवल्क्य-स्मृति में प्रव्रजित (संन्यासी) के प्रसङ्ग में प्रव्रजिता का भी ग्रहण किया जाता है-
सर्वभूतहित: शान्तस्त्रिदण्डी सकमण्डलु:।
एकाराम: परिव्रज्य: भिक्षार्थी ग्राममाचरेत्।।
(याज्ञवल्क्यस्मृति:- 3.58)
अर्थात् संन्यासी को सर्वभूतहितैषी, शान्त, जितेन्द्रिय होकर एकाकी विचरण करते हुए ग्राम से भिक्षा ग्रहण करनी चाहिए। यहाँ 'एकाराम’ की व्याख्या में मिताक्षराकार कहते हैं- संन्यासी अकेला विचरण करे, पुरुष संन्यासियों एवं महिला संन्यासिनियों से पृथक् रहते हुए। इस प्रकार याज्ञवल्क्य-स्मृति में प्रव्रजित शब्द से प्रव्रजिता (महिला संन्यासिनी) का भी ग्रहण किया गया है। मिताक्षरा टीका में 'स्त्रीणां चैके’ इस बौधायनाचार्य के मत से भी स्त्रियों के संन्यास धारण का समर्थन किया है।
नित्यानित्यता के सूक्ष्म विचार से विषयों के प्रति जो वितृष्णा रूप चित्तवृत्ति उत्पन्न होती है, वही वैराग्य है। वही संन्यास का मूल है। वैराग्य की यह चित्तवृत्ति स्त्रियों एवं पुरुषों में समान रूप से उत्पन्न हो सकती है, अत: इसके प्रबल होने पर स्त्रियों के लिए भी संन्यास सहज रूप से सिद्ध है। विषयतृष्णाजन्य नानाविध घोर दु:खों से संन्तप्त प्राणियों को देखकर आपातत: प्रतीयमान सुख को भी परिणामत: दु:ख रूप में देखती हुई बहुत-सी विवेकशील नारियाँ संन्यासिनी हो चुकी हैं, यह इतिहास में प्रसिद्ध है।
हारीत धर्मसूत्र में स्त्रियों के ब्रह्मवादिनी रूप का स्पष्टतया उल्लेख मिलता है-
'द्विविधा हि स्त्रियो ब्रह्मवादिन्य: सद्योवध्वश्च।
तत्र ब्रह्मवादिनीनामुपनयनम्, अग्नीन्धनं वेदाध्ययनं स्वगृहे भिक्षाचर्या च।
(हारीतधर्मसूत्रम्- 21.20-24)
अर्थात् स्त्रियां दो प्रकार की होती हैं आजीवन ब्रह्मचर्यव्रत धारण करने वाली ब्रह्मवादिनी और विवाह कर गृहस्थ धर्म का पालन करने वाली सद्योवधू। ब्रह्मवादिनी नारियों के उपनयन (यज्ञोपवीत संस्कार), अग्निहोत्र एवं वेदाध्ययन का विधान है। इस प्रकार हारीत ने स्त्रियों की दो कोटियाँ प्रस्तुत कर उनमें ब्रह्मवादिनियों के लिए संन्यास आश्रम की पात्रता स्वीकार की है।
यह स्मृतिगत विधान श्रुतिमूलक है, जैसा कि अथर्ववेद संहिता में मन्त्र है-
'ब्रह्मचर्येण कन्या युवानं विन्दते पतिम्।
(अथर्ववेदसंहिता- 11.5.18)
अर्थात् ब्रह्मचर्य के उपरान्त कन्या युवा पति को प्राप्त करती है। यहां ब्रह्मचर्य का अर्थ वेदाध्ययन व्रत है। इस प्रकार वेदाध्ययन के साथ जो वैराग्यवती ब्रह्मवादिनी होती हैं, उनका निर्मल चित्त विद्या से विद्योतित होता है उनके लिए वेदान्त (अध्यात्मविद्या) का अध्ययन निर्बाध रूप से सम्भव होता है।
वाल्मीकि रामायण में वर्णन है कि सीता का अन्वेषण करते हुये वानर गण वन में एक अद्भुत गुहा में गये, वहाँ उन्होने स्वयंप्रभा नामक तापसी (संन्यासिनी) को देखा। जो सात्त्विक एवं संयमित आहार लेती थी और बहुत ही तेजस्विनी थी-
तत्र तत्र विचिन्वन्तो बिले तत्र महाप्रभा:।
ददृशुर्वानरा: शूरा: स्त्रियं काञ्चिददूरत:।।
तां च ते ददृशुस्तत्र चीरकृष्णाजिनाम्बराम्।
तापसीं नियताहारां ज्वलन्तीमिव तेजसा।।
(रामायणम्, किष्किन्धाकाण्डम्-11.38-40)
यहां स्वयंप्रभा के वर्णन से विदित होता है कि रामायणकाल में संन्यासिनियों की परम्परा थी। रामायणगत शबरी-वर्णन से भी ज्ञात होता है कि उस समय गृहस्थ आश्रम से विरक्त तपस्विनी महिलाएँ संन्यास धर्म का पालन करती थी।
तौ पुष्करिण्या: ......... आहारश्च तपोधने।।
(रामायणम्, अरण्यकाण्डम्-74.9)
अर्थात् राम व लक्ष्मण पम्पासरोवर के पश्चिमी तट पर गये। वहाँ उन्होंने शबरी का रमणीय आश्रम देखा। राम ने धर्माचरण में दीक्षित उस श्रमणी (संन्यासिनी) से पूछा- क्या तुमने योग-साधना में आने वाले विघ्नों को जीत लिया है? क्या तुम्हारा क्रोध नियन्त्रित है? क्या तुमने आहार के विषय में संयम को दृढ़ कर लिया है? इस शबरी के वृत्तान्त से भी स्पष्ट होता है कि निवृत्तिमार्ग रूप संन्यासधर्म नारियों द्वारा अच्छी प्रकार से अनुष्ठित किया जाता था। महाभारत में भी बहुत-सी वैराग्यवती एवं अध्यात्मप्रवण नारियों का वृत्तान्त मिलता है-
अत्रैव ब्राह्मणी सिद्धा कौमारब्रह्मचारिणी।
योगयुक्ता दिवं याता तप:सिद्धा तपस्विनी।।
(महाभारतम्, शल्यपर्व-54.6)
अर्थात् बाल्यकाल से ही आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत को धारण करने वाली योगयुक्त ब्राह्मणपुत्री ने यहाँ रहते हुये तपस्या पूर्वक सिद्धि प्राप्त की थी।
महाभारत के शान्तिपर्व में आता है कि शरशय्यागत भीष्म जी सुलभा नामक एक तेजस्विनी संन्यासिनी का वर्णन करते हैं-
अथ धर्मयुगे ................ त्रिदण्डिभि:।। (महाभारतम्, शान्तिपर्व- 220.7-8)
सा प्राप्य ................ जिज्ञासार्थमिहागता।।
(महाभारतम्, शान्तिपर्व- 220.12, 184, 186, 189)
अर्थात् उस धर्मप्रधान युग में योगधर्म का पालन करने वाली सुलभा नाम की एक भिक्षुकी (संन्यासिनी) थी। उसने भारतभूमि पर विचरण करते हुये त्रिदण्डी संन्यासियों के मुख से सुना कि मिथिलेश्वर राजा जनक मोक्ष के विषय में बहुत बड़ा ज्ञानी है। इस पर वह मिथिला नगरी में पहुंची और भिक्षाचरण के बहाने से राजा जनक के सामने उपस्थित हुई, उसने कहा हे राजन्! मैं प्रधान नामक प्रसिद्ध राजर्षि के कुल में उत्पन्न हुई हूँ, मेरा नाम सुलभा है। मैं मुनि व्रत का पालन करते हुए एकाकिनी परिव्राजिका रूप में विचरण करती हूँ। राजन्! तुम्हारी बुद्धि मोक्ष के विषय में भावित है यह सुनकर मैं मोक्ष की जिज्ञासा और आपके दर्शन के लिए आई हूँ।
सुलभा के मोक्ष विषय प्रश्नोत्तर एवं संवाद से राजा जनक बहुत प्रभावित हुए, यह वृत्तान्त महाभारत में विस्तार पूर्वक वर्णित है।
सुलभा के आख्यान से यह भी स्पष्ट होता है कि ब्राह्मण वर्ण के अतिरिक्त क्षत्रिय आदि वर्णों की नारियाँ भी विवेक एवं वैराग्य होने पर संन्यास आश्रम में दीक्षित होती थी। पूर्व-प्रतिपादित शबरी-वृत्तान्त से भी यह सिद्ध है कि शूद्र वर्ण तक की नारियाँ भी संन्यासिनी होती थी। इस प्रकार चारों वर्णों की नारियों के लिए संन्यास आश्रम का द्वार खुला था। इसीलिए रामायण में हम देखते हैं कि भगवान् राम ने बड़े ही हर्ष से शबरी का आतिथ्य स्वीकार किया और उनके तपश्चरण की भूरि-भूरि प्रशंसा की थी। इससे यह सिद्ध होता है कि सभी वर्णों की संन्यासिनियों का समाज में बहुत सम्मान था और उन्हें अत्यन्त श्रद्धा की दृष्टि से देखा जाता था। कविकुलगुरु कालिदास ने मालविकाग्निमित्र नामक नाटक में कौशिकी नामक एक विदुषी संन्यासिनी का उल्लेख किया है-
मंगलालंकृता भाति कौशिक्या यतिवेषया।
त्रयी विग्रहवत्येव सममध्यात्मविद्यया।।
(मालविकाग्निमित्रम्- 1.14)
उक्त नाटक में राजा धारिणी देवी के साथ उपस्थित संन्यासिनी को देखकर कहता है कि मांगलिक आभूषणों से युक्त धारिणी देवी यतिवेष धारण करने वाली कौशिकी नामक परिव्राजिका के साथ इस प्रकार शोभित होती है जैसे अध्यात्म-विद्या के साथ त्रयी विद्या शोभित होती है। यहां उपमा में संन्यासिनी को अध्यात्म-विद्या के समान बताया है इससे कालिदास यह व्यञ्जित करना चाहते हैं कि नारियों में अध्यात्म-विद्या एवं संन्यास आश्रम की परम्परा सुप्रतिष्ठित रही है।
जैन एवं बौद्ध परम्परा में नारियों के लिए संन्यास का अधिकार स्पष्ट रूप से प्रचलित रहा है। तीर्थङ्कर महावीर एवं भगवान् बुद्ध ने भिक्षुकी संघ को सुव्यवस्थित रूप दिया था। इनके लिए उसमें दीक्षित होने वाली परिव्राजिकाओं के लिए विनय एवं आचार-मयार्दा के नियमों का विस्तृत उल्लेख जैन एवं बौद्ध साहित्य में मिलता है। महावीर के मामा की पुत्री चन्दना जैन भिक्षुकी संघ की प्रथम अध्यक्ष थी। इसी प्रकार बुद्ध द्वारा स्थापित भिक्षुकी संघ की पहली अध्यक्ष उनकी विमाता (सौतेली माँ) प्रजावती थी, जिन्होंने बुद्ध से ही संन्यास दीक्षा ली थी। बुद्ध की पत्नी यशोधरा एवं अन्य सैकड़ों नारियाँ संन्यासिनी बनी थी। जैन एवं बौद्ध साहित्य में संन्यासिनी नारियों के बहुत से प्रेरक प्रसंग मिलते हैं। जैन सम्प्रदाय में तो संन्यासिनियों (साध्वियों) का परम्परा बहुत ही समृद्ध एवं व्यवस्थित रूप में चल रही हैं। बौद्ध सम्प्रदाय के अन्तर्गत ब्रह्मदेश (बर्मा/ म्यांमार) आदि में महिला संन्यासिनियों (भिक्षुकियों) की परम्परा व्यवस्थित रूप से चल रही है।
आधुनिक युग में वेदों के पुनरुद्धारक एवं महान् समाज-सुधारक महर्षि दयानन्द सरस्वती ने भी महिलाओं के लिए संन्यास आश्रम के अधिकार का समर्थन किया है। वे लिखते हैं- ''जिस पुरुष वा स्त्री का विद्या, धर्मवृद्धि और सब संसार का उपकार करना ही प्रयोजन हो वह विवाह न करे, जैसे पञ्चशिखादि पुरुष व गार्गी आदि स्त्रियाँ हुई थी’। (सत्यार्थप्रकाश, पञ्चम समुल्लास, पृ0-154)
वर्तमान काल में भी भारतवर्ष में प्राय: सभी साधुओं की परम्पराओं में उच्च कोटि की संन्यासिनियाँ अध्यात्मविद्या के प्रचार एवं राष्ट्रसेवा में संलग्न हैं। इस प्रकार प्राचीनकाल से वर्तमान काल तक महिला संन्यासिनियों की परम्परा अक्षुण्ण रूप में चल रही है।
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