जीवन की उत्पत्ति
ईसाई से पहले की परंपरा (सभ्यता) पद्धतियां भाग 4 (भाग 1: सुमेर से सिंधु घाटी सभ्यता से आगे : 9-10)
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डॉ. चंद्र बहादुर थापा
वित्त एवं विधि सलाहकार- भारतीय शिक्षा बोर्ड एवं विधि परामर्शदाता पतंजलि समूह
मंचू काल में चीन में पाश्चात्य देशों के प्रभाव की जड़ जमनी प्रारम्भ हुई और इसी काल में विदेशों से चीन का वास्तविक सम्बन्ध कायम हुआ। इस काल में विदेशों से लोग स्थल तथा जल दोनों मार्गों से आये। समुद्र के रास्ते से पोर्तुगीज, स्पेनिश, फ्रेंच तथा अँग्रेज और कुछ इतालियन तथा जर्मन आये। इसी समय 1784 ई. में अमरीकी व्यापारी भी चीन आये। जमीन के मार्ग से केवल रूस के लोग आये जो चीन में चाँदी का व्यापार करने लगे। विदेशी राज्यों से (विशेषकर रूस से) चीन ने इस समय एक सन्धि (Treaty of nerchinsk) भी की। इस सन्धि के द्वारा रूस को पेकिंग में एक मिशन भेजने का अधिकार मिला। पेकिंग में रूस की मिशनरी भी कार्य करने लगी। अमरीका और रूस से यह सम्बन्ध चीन के लिए महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुआ।
चीन में इस समय पुन: विदेशी मिशनरियों का भी आगमन हुआ। अठारहवीं सदी के चीन में इस समय पुन: विदेशी मिशनरियों का भी आगमन हुआ। अठारहवीं सदी के प्रारम्भ तक चीन में ईसाइयों की संख्या 3,00,000 हो गयी थी। 1793 ई. में सर्वप्रथम अँग्रेजों का एक मिशन चीन आया। यह मिशन मेकार्टने के नेतृत्व में चीन आया था। दूसरा मिशन 1816 ई. में पेकिंग आया। इसका नेतृत्वकर्ता लार्ड एमहस्र्ट था। इसी समय राबर्ट मोरिशन के अधीन भी एक मिशन चीन पहुँचा। इस मौके से लाभ उठाकर अब प्रोटेस्टेण्ड मिशनरियों ने चीन में अपना कार्य प्रारम्भ किया। प्रोटेस्टेण्ट लोग चीनियों को हेय दृष्टि से देखते थे और उन्हें असभ्य समझते थे। अँग्रेजों की देखा-देखी डच मिशनरियाँ भी चीन आयीं और 1795 ई. में उनका पहला मिशन चीन पहुँचा। इसी प्रकार 1806 ई. में रूस का एक दूत आया। लेकिन चीन ने उसके प्रति किसी भी प्रकार की सहानुभूति का प्रदर्शन नहीं किया। पेकिंग में फ्रांस के जेमुइट भी पहुँचे और मंचू सम्राट की गौरव-गाथा गाने लगे। विभिन्न मिशनरियों में सर्वाधिक चतुर तथा प्रभावशालिनी अँग्रेजों की मिशनरियाँ साबित हुईं। चीन में आयी विभिन्न मिशनरियों से अगर अँग्रेज मिशनरी की तुलना की जाय तो यह स्पष्ट हो जाता है कि अठारहवीं सदी के अन्त और उन्नीसवीं सदी के प्रारम्भ में ही अँग्रेजी मिशनरी सभी से आगे निकल गयी। इसका कारण यह था कि अँग्रेज अत्यन्त चतुर तथा कर्मठ थे। अपनी व्यापारिक कुशलता तथा राजनीति चतुरता के चलते उन्होंने अन्य मिशनरियों को प्रतियोगिता में आगे नहीं बढऩे दिया और भविष्य में चीन में वे अपना प्रभाव कायम करने में समर्थ हुए।
उन्नीसवीं सदी तक सम्पूर्ण चीन में अनेक विदेशी तथा उनकी मिशनरियाँ दृष्टिगोचर होने लगी थीं। लेकिन वह सम्बन्ध शान्तिपूर्वक आगे न चल सका। चीन की जनता सरकार इन विदेशियों तथा उनकी मिशनरियों से धीरे-धीरे घृणा करने लगी। उनका विचार था, कि पाश्चात्य देशों से सम्पर्क बढ़ाने पर चीन की सभ्यता तथा संस्कृति नष्ट हो सकती है, इसलिए चीन ने पाश्चात्य प्रवृत्तियों का अनुभव किया और उनसे पृथक रहने का प्रयास किया। पाश्चात्य देशों के सम्पर्क में आकर भी उसने अपनी वेश-भूषा, धर्म और रीति-रिवाजों को अंगीकार किया। यही कारण था कि मंचू सरकार खुले रूप से इन पाश्चात्य देशों से पृथक रहने का प्रयास करने लगी इस बात को दृष्टि में रखकर सम्राट कांगहसी ने एक राजकीय विज्ञप्ति निकाली और चीन-प्रवेश से इन जातियों तथा मिशनरियों को वंचित करने का प्रयास किया। इस विज्ञप्ति के पीछे सम्राट् की अपनी भावना तो थी ही, साथ-ही-साथ चीन की जनता को भी सन्तुष्ट करने के लिए उसे यह विज्ञप्ति निकालनी पड़ी। चीन की जनता इन विदेशियों से घृणा करने लगी थी और यह सम्भावना की जाने लगी कि चीन में खून-खराबी भी हो सकती है। विशेषकर विदेशी मिशनरियों से चीन में काफी असन्तोष था। ‘‘मिशनरी के विभिन्न आदेशों के बीच झगड़े, पूर्वजों का आदर करते हुए कुछ धर्म प्रवर्तित लोगों का सम्राट् के हुक्म की मान्यता तथा साथ ही नये धर्म की प्रवृत्ति के प्रति उनके अफसरों के प्रतिनिधित्व के द्वारा उनकी सत्ता की न्यूनता ने धीरे-धीरे भ्रामक विचारों के प्रचारक के वास्तविक चरित्र के प्रति उनकी आँखें खोल दीं।
इस विज्ञप्ति के अनुसार चीन में आए हुए विदेशियों को चीन से बाहर नहीं निकाला गया। केवल उन पर या विभिन्न देशों से आये हुए व्यापारियों पर एक प्रकार का नियन्त्रण रखने की बात कही गयी। चीन की मंचू सरकार को यह आशंका हो गयी थी कि अगर इन व्यापारियों को व्यापार करने की अनुमति नहीं दी जाएगी तो वे सम्पूर्ण चीन में फैलकर अशांति फैलाने का प्रयत्न करेंगे। इसलिए इस विज्ञप्ति में यह स्पष्ट कर दिया गया कि ये विदेशी व्यापारी चीन के सभी तटवर्ती बन्दरगाहों से शांतिपूर्वक उचित व्यापार कर सकते हैं। व्यापार करने की अनुमति मिलते ही विदेशियों की प्रसन्नता का पारावार नहीं रहा क्योंकि बड़े सहज ढंग से ही उन्हें यह अनुमति मिल गयी थी। इससे उनका उत्साह और हौसला दोनों बढ़ा। फलत: अर्थ-लोलुपता के चलते इन लोगों ने नाजायज व्यापार भी करना प्रारम्भ किया। वे उन व्यापारिक सुविधाओं का भी दुरुपयोग करने लगे जो उन्हें प्राप्त हुए थे। स्वाभाविक रूप से चीन की सरकार का ध्यान पुन: उनकी ओर आकर्षित हुआ। इसीलिए मंचू वंश के दूसरे सम्राट् चिएन लुग ने 1757 ई. में एक दूसरी विज्ञप्ति निकाली जिसके चलते वैदेशिक व्यापार को चीन में सीमित कर दिया गया और व्यापारियों पर अनेक प्रकार के प्रतिबन्ध लगाये गये। इस विज्ञप्ति के अनुसार इन विदेशी व्यापारियों को दक्षिणी चीन के केवल एक बन्दरगाह कैण्टन से व्यापार करने की अनुमति मिली। इसके अतिरिक्त चीन में एक व्यापारिक दल का संगठन किया गया जिसे ‘को-हंग’ कहा गया। इस दल के परामर्श तथा देख-रेख में ही विदेशी व्यापारी चीन से व्यापार कर सकते थे। इस तरह अठारहवीं सदी के उत्तराद्र्ध में उन व्यापारियों की चाल पर चीन की सरकार ने एक पैनी दृष्टि रखी और यह स्पष्ट कर दिया कि वे व्यापारिक मामलों के लिए किसी अन्य बन्दरगाह का दौरा नहीं कर सकते हैं। पर इस विज्ञप्ति का कोई विशेष असर विदेशी व्यापारियों पर नहीं पड़ा। व्यापार के साथ-साथ चीन की राजनीति पर भी इनका हस्तक्षेप होना प्रारम्भ हो गया और ईसाई मिशनरियों के कर्तृत्व तो और भी अधिक बुरे होने लगे। कैण्टन से व्यापार करते-करते वे चीन के अन्य बन्दरगाहों से भी व्यापार करने लगे। चीनियों को अफीम का सेवन कराकर उनकी आदतें बुरी बनाने लगे। अफीम खाने की आदत पड़ जाने से व्यापारी अफीम की बिक्री द्वारा आर्थिक लाभ प्राप्त करना चाहते थे। जब अफीम के बुरे परिणामों को चीन की सरकार देखने लगी और इस व्यापार पर रोक लगायी, तब विदेशी व्यापारी चीन के आफिसरों को घूस देकर अपनी ओर मिलाने लगे और चोरी छिपे यह व्यापार चलता रहा। इस कार्य में इंगलैण्ड के अँग्रेज अत्यन्त पटु थे। अफीम के चलते चीन को दो प्रकार के नुकसान होने प्रारम्भ हो गये। एक तो अफीम की बिक्री बढ़ जाने से अँग्रेजों को फायदा हुआ, लेकिन चीन को आर्थिक क्षति उठानी पड़ी। दूसरा यह कि चीन की जनता का नैतिक धरातल नीचे गिरने लगे। फलत: सरकार ने पूर्ण कठोरता के साथ अफीम के व्यापार पर नियन्त्रण रखने का प्रयास किया जिसके फलस्वरूप चीन तथा ब्रिटेन में अफीम युद्ध हुआ। इस युद्ध में चीन सफल नहीं हो सका क्योंकि उसके दुश्मनों के पास शक्तिशाली और केन्द्रित सरकार थी और चीन का शासन कमजोर तथा विकेन्द्रित था। अत: इन शत्रुओं का सामना करने के लिए चीन शासन कमजोर तथा विकेन्द्रित था। अत: इन शत्रुओं का सामना करने के लिए चीन कतई तैयार नहीं था।’’
उन्नीसवीं सदी तक चीन के साथ विदेशियों के सम्बन्ध के परिणाम चीनियों के लिए नितान्त बुरे ही सिद्ध हुए। यह सही है कि इन्हीं विदेशियों के चलते चीन में राष्ट्रीयता की भावना आयी, लेकिन जबतक विदेशियों की दाल गलती रही वे चीन में अपने साम्राज्यवाद के विकास का प्रत्यन करते रहे, और प्रथम विश्व-युद्ध के पाँच-छ: वर्षों के पश्चात् तक चीन का गौरव धूल-धूसरित होता रहा, राजनीतिक अखण्डता टूटती रही और प्रशासनिक दृढ़ता लायी नहीं जा सकी।
चीन, 1949 से साम्यवादी शासन के अंतर्गत है, जिसमें पार्टी के सदस्यों को धर्म से परहेज रखने को कहा जाता है। वर्ष 1966-76 के दौरान चीनी सांस्कृतिक क्रान्ति के दौरान यह शासन द्वारा धर्मों पर विविध प्रतिबन्ध भी लगाए गए। वर्तमान सरकार पाँच धर्मों को पहचान देती है - बौद्ध, ताओ, इस्लाम, प्रोटेस्टैंट और कुछ प्रतिबंधों के साथ कैथोलिक धर्म।
(10) यूनान की सभ्यता
पश्चिमी अनातोलिया, थ्रेस, एजियन सागर के द्वीपों, क्रीट, साइप्रस, यूनान के मुख्य भाग, दक्षिण इटली और सिसिली तक, मुख्य रूप से भूमध्यसागर और एजियन सागर के आसपास का क्षेत्र में, फैली हुई यूनान की सभ्यता को विश्व की प्राचीन सभ्यता माना जाता है। प्राचीन यूनानी धर्म (अथवा प्राचीन ग्रीक धर्म) प्राचीन यूनान (ग्रीस) देश का एक मूर्तिपूजक और बहुदेवतावादी धर्म था। इसमें एक अदृश्य ईश्वर की अवधारणा नहीं थी। ईसाई धर्म के राजधर्म बनने के बाद ईसाइयों ने इसपर प्रतिबंध लगा दिया और इसके देवी-देवताओं को शैतान करार दिया। इसके बाद ये लुप्त हो गया। इनके कई देवी-देवता थे, जिनमें आकाश के देवता को जीयस, शराब के देवता को डायोनीसस, समुद्र के देवता को पोसीदन, सूर्य के देवता को अपोलो और विजय की देवी को एथीना कहा जाता था। इस धर्म में कई देवता थे- ज़्यूस (देवराज), डायोनाइसस, अपोलो, ईरोस, एरीस, हरमीस, हेडीस, क्रोनोस, है$फीस्टस, पोसाइडन, इत्यादि। लगभग सभी देवी-देवताओं के रोमन धर्म में समकक्ष देवतागण मिल सकते हैं। प्रमुख देवियाँ थीं - हीरा, ऐफ्ऱोडाइटी, अथीना, आर्टेमिस, डिमीटर, हेस्टिया, पर्सि$फोनी, इत्यादि। पूजा मुख्यत: पशुबलि द्वारा होती थी (गाय, सांड, सूअर, भेड़, बकरा आदि)। यूनानी लोगों ने देवताओं के लिये कई ख़ूबसूरत संगेमरमरी मंदिर बनाये थे। यूनानी पुरुष देवताओं के सम्मान में ओलम्पिक खेल हर साल आयोजित करते थे। वो मानते थे कि उनके देवतागण ओलम्पिक पर्वत पर रहते हैं। बारह प्रमुख ओलम्पियन देवतागण थे - ज़्यूस, डायोनाइसस, हीरा, पोसाइडन, हेडीस, ऐफ्ऱोडाइटी, अथीना, हेस्टिया, अथीना, अपोलो, आर्टेमिस, एरीस, हैफ़ीस्टस और हरमीस (इनमें से बारह कौन हैं, इसमें अन्तर्विरोध था)।
यूनान की मुख्य भूमि और उसके द्वीप लगभग 4000 वर्ष ईसा पूर्व बस चुके थे। ई.पू. दूसरी सहस्त्राब्दी तक ईजियाई सभ्यता थी जहाँ से लोगों के मिस्र और एशिया माइनर से संबंध सुगम थे। लगभग 17वीं शताब्दी ई.पू. में बाल्कन क्षेत्र की ओर से ग्रीस और पेलोपोनसस् पर आक्रमण हुए। सभी आक्रमणकारी जातियाँ- एकियाई, आर्केडी, इपोलियन, अपोली और आयोनी- ग्रीक भाषाओं से परिचित थीं। ई.पू. 1500 वर्ष तक मिनोई प्रभाव में एकियाई जाति ने ग्रीस से सभ्यता का विकास किया। माइसीनी युग, हीरो युग और होमर युग भी इस काल के नाम हैं। कहा जाता है कि ट्रोजन युद्ध, जिसकी कथा को लेकर होमर ने अपने विश्वप्रसिद्ध काव्य ‘इलियड और ओडिसी’ लिखे, एकियाई तथा अन्य ग्रीसवासियों के बीच ई.पू. 12वीं शती में लड़ा गया था। ई.पू. 1100 में डोरियाई जाति ने ग्रीस पर आक्रमण कर पुरानी सभ्यता नष्ट कर दी और अपना केंद्र पेलोपोनेसस् बनाया। एकियाई लोगों में से कुछ उत्तरी पश्चिमी यूरोप की ओर भागे, कुछ ने दासवृत्ति अपना ली। आयोनी और अपोली, ईजियाई द्वीपसमूह और एशिया माइनर की ओर चले गए। ई.पू. 1000 तक संपूर्ण ईजियाई क्षेत्र में ग्रीक भाषी लोग बस चुके थे।
1000-499 ई.पू. में मुख्य रूप से ग्रीक नगर-राज्यों की स्थापना हुई और जातिभेद चेतना का प्रादुर्भाव हुआ। प्रांरभिक हेलेनिक राज्यों का शासन राजाओं द्वारा होता था। शनै:-शनै: राजतंत्र कुलीनतंत्र में परिवर्तित हुआ, जिसमे राजनीतिक समानता प्राय: नहीं थी। लगभग 650 ई.पू. में सामाजिक और राजनतिक संघर्षों ने इस कुलीन तंत्र को उखाड़ फेंका और अधिनायकवादी शासन की स्थापना हुई। कुछ अधिनायकवादी शासकों ने अवश्य ही कला, साहित्य, व्यापार और उद्योग की उन्नति की, किंतु जब अधिनायकवाद जनपीडऩ की स्थिति में पहुँचा तो उसका भी अस्तित्व ई.पू. 500 तक मिट गया। ई.पू. 750-500 तक व्यापारिक और राजनीतिक कारणों से इटली तथा सिसली के कई भागों में ग्रीकों ने उपनिवेश बसाए। इनके उपनिवेश व्यापार के प्रसार की दृष्टि से स्पेन और फ्रांस तक भी फैले। वहाँ ग्रीकों ने ‘नाक्रेतिस’ नगर बसाया। इसके बाद थ्रोस आदि अनेक स्थानों पर उपनिवेश बसे। ये उपनिवेश अपने मुख्य राज्य से केवल भावात्मक संबंध रखते हुए, राजनीतिक रूप से स्वतंत्र थे। केवल कुछ, जैसे एपिडाम्नस, पेलोपोनिया, अंब्रासिय आदि कोरिंथ के उपनिवेश, राजनीतिक रूप से स्वतंत्र नहीं थे। सिराक्यूज़ और बैजंटियम अत्यंत संपन्न उपनिवेशों में थे। समान्य धार्मिक भावना के कारण इन सारे उपनिवेशों में एकता कायम रही। डेल्फी में अपोलो ग्रीकों का मुख्य धार्मिक केंद्र था। वस्तुत: 7वीं और 6ठीं शती ई.पू. का काल सांस्कृतिक विकास और बौद्धिक जागरण का काल था।
500 ई.पू. तक स्पार्टा और एथेंस ग्रीस के दो बड़े नगरराज्य बने। स्पार्टा का शासन प्राचीन परिपाटीवाले कुलीनों के हाथ में था। एथेंस के शासक मध्यवर्गीय और प्रजातांत्रिक थे। ई.पू. 7वीं शताब्दी तक स्पार्टा में संस्कृति, काव्य और कला की प्रचुर उन्नति हुई, किंतु वहाँ की शासनपद्धति अत्यंत कठोर थी। शिशु के उत्पन्न होते ही, राज्य उसे अपने संरक्षण में ले लेता था और उसे युद्ध की शिक्षा दी जाती थी। लाइकर्गस स्पार्टा का संविधान निर्माता था। शासनसूत्र के संचालन के लिये दो सदन होते थे, जिनके अध्यक्ष दो राजा होते थे। अंतिम निर्णय का अधिकार निम्न सदन को था। पाँच न्यायाधीशों (एफर) द्वारा कार्यकारिणी समिति, न्याय और अनुशासन का संचालन होता था। वे राजाओं की गतिविधि पर भी नियंत्रण रखते थे। सैनिक शक्ति द्वारा स्पार्टा ने पेलीपोनेसस् के संपूर्ण नगर अपने अधिकार में कर लिए और पेलोपोनेशियाई संघ के नेता के रूप में इस नगर ने अधिकृत नगरराज्यों को भी कुलीन तंत्र स्वीकार करने को बाध्य किया।
ई.पू. 683 में एथेंस से राजतंत्र का समूलोच्छेदन हुआ। ‘सोलन पिसिस्ट्राटस’ ने कुछ सीमा तक जनमत का सम्मान किया, इसके बाद इसागोरस (अभिजाततंत्रवादी) और क्लेइस्थेनीज (जनतंत्रवादी) के नेतृत्व में संघर्ष के बाद जनतांत्रिक पद्धति की विजय हुई। स्पार्टा ने एथेंस के प्रजातंत्र को उखाड़ फेंकने के अनेक प्रयत्न किए, किंतु एथेंस ज्यों का त्यों रहा। 499-638 ई.पू. में फारस से युद्ध और नगरराज्यों में परस्पर संघर्ष आदि प्रमुख घटनाएँ हुईं। ग्रीस के कई नगरराज्यों ने इस स्थिति में अपना स्थान बहुत प्रभावशाली बना लिया।
एशिया माइनर और कुछ द्वीपों के नगर लीडिया के सम्राट् क्रिसस के प्रभाव में आ गए थे। वह हेलेनिक संस्कृति का पोषक और एक उदार शासक था। उसने नगरवासियों की आर्थिक और बौद्धिक उन्नति में योग दिया। 546 ई.पू. में फारस के तत्कालीन भ्रासट साइरस ने क्रिसस के अधिकार से सारे ग्रीक नगर छीन लिए। 512 ई.पू. में उसका उत्तराधिकारी दारायुश (Darius) एशिया माइनर के अन्य नगरों को जीतता हुआ ग्रीस के निकट तक चढ़ आया। लेकिन एरिट्रीया और एटिका (अत्तिका) को जीतने के पश्चात् एथेंस की सेना से मराथन के युद्ध में पराजित हुआ। लगभग 480 ई.पू. में पारसी सम्राट् जरक्सीज ने पुन: ग्रीस पर आक्रमण किया। एथंस, स्पार्टा और पेलोपोनेशियाई संघ के संयुक्त प्रतिरोध के बावजूद भी ग्रीस हार गया। किंतु ग्रीस की जलसेना ने फारस की सेनाओं को पीछे लौटने को बाध्य किया। एक वर्ष पश्चात् 479 ई.पू. में ग्रीकों ने प्रत्याक्रमणकर फारस की सारी सेनाओं को पीछे खदेड़ दिया। यह युद्ध दीर्घकाल तक चलता रहा। इसकी समाप्ति चतुर्थ शती ई.पू. में सिकंदर की फारस पर विजय के साथ हुई।
इस समय तक एथेंस नगर ग्रीक सभ्यता का केंद्र बन चुका था। आयोनी ग्रीकों ने स्पार्टा के अधिकार से मुक्त होकर एथेंस का नेतृत्व स्वीकार किया। 461 ई.पू. में पेरिक्लीज ने जनतंत्र को बढ़ावा दिया। किंतु यह जनतंत्र भी मूल यूनानी जनता के लिये सीमित था। शेष लोग दासों की कोटि में रखे जाते थे। पेरिक्लीज के नेतृत्वकाल में एथेंस की राजनतिक और आर्थिक स्थिति सुदृढ़ हो गई।
स्पार्टा और एथेंस के विचारों में बहुत भेद था। एथेंस मूलत: व्यापारिक शक्तिसंचय की प्रवृत्तिवाला उपनिवेशवादी-साम्राज्यवादी राज्य था और स्पार्टा ग्रीस के सभी नगर राज्यों का राजनीतिक नेतृत्व चाहता था। फलत: नेतृत्व के लिये इन दोनों तथा इनसे सबंधित नगर-राज्यों में युद्ध छिड़ गया। युद्ध 10 वर्ष से भी अधिक समय तक चला। दोनों ओर धन जन की अपार हानि हुई। 421 ई.पू. में कुछ काल के लिये शांति संधि हुई, किंतु तीन वर्ष बाद दोनों पक्षों में पुन: युद्ध हुआ। इस बार एथेंस की भंयकर पराजय हुई, यहाँ तक कि उसका अस्तित्व भी महत्वहीन हो गया। कोरिंथ और थीबीज जैसे नगरराज्य स्पार्टा से मिल गए। कुछ समय बाद स्पार्टा की नीति से क्षुब्ध होकर कोरिंथ, थीबीज और अर्गसि ने एथेंस से मिलकर स्पार्टा के विरुद्ध संधि की। किंतु स्पार्टा के फारस से संधि करने के फलस्वरूप एथेंस की संधि भंग हो गई और एशिया माइनर के ग्रीक नगर फारस के अधिकार में चले गए। 371 ई.पू. में स्पार्टा ने थीबीज के विरुद्ध युद्ध छेड़ा, किंतु उसमें स्पार्टा की हार हुई और उसका नेतृत्व ग्रीक इतिहास से मिट गया। अब थीबीज की शक्ति बढऩे लगी थी। उसने भी अन्य नगरों के प्रति कठोर नीति से काम लिया। इस बार स्पार्टा और एथेंस के बीच संधि हुई। 362 ई.पू. के बाद थीबीज का महत्व समाप्त सा हो गया।
युद्ध और अशांति के वातावरण में भी ई.पू. 5वीं शताब्दी में एथेंस के नेतृत्व में ग्रीस में कला और साहित्य की प्रशंसनीय उन्नति हुई। पाथेंनान, प्रोलिया और हेफिस्टस के मंदिर आदि समृद्ध वास्तुकला के उत्कृष्ट नमूने उसी युग में प्रस्तुत हुए। फिदियस, मिरन और पॉलीक्ट्सि आदि प्रसिद्ध वास्तुकलाकार थे। चिकित्सा जगत् में हिपाक्रिटस के अन्वेषणों ने अनेक चिकित्साशास्त्रियों का मार्गदर्शन कराया। हिरैक्लिट्स, एंपिडाक्लीज और डिमाक्रिट्स (दिमोक्रितस) आदि दार्शनिकों ने तत्वचिंतन में महत्वपूर्ण योग दिया। शताब्दी के अंत में विश्व के महान् दार्शनिक सुकरात का जन्म हुआ। क्रांतिकारी विचारों के कारण एथेंसवालों ने उन्हें 399 ई.पू. में विष दे दिया। हिरोडोटस को इतिहास का पिता कहा जाता है। थ्यूसीदाइदीज़ दूसरा महान् इतिहासकार था, उसने पेलोपोनेशियन युद्ध का विस्तृत वृत्तांत प्रामाणिक रूप से लिखा। एक्लिज, सोफोक्लीज, यूरीपिदीज और अरिस्ताफेनीज के दु:खांत और सुखांत नाटक इसी समय लिखे गए। पिंडार और बकाइलिदीज ने राष्ट्रनायकों की प्रशस्ति में काव्यग्रंथ लिखे। इस युग में एथेंस नि:संदेह ग्रीस में कला और साहित्य का नेता था।
दासप्रथा
प्राचीन ग्रीस के इतिहास में, मुख्यत: एथेंस के इतिहास में दासप्रथा उल्लेखनीय है। इस संदर्भ में प्रजातांत्रिक पद्धति और दूसरी शासन पद्धतियों में विशेष भेद नहीं था। वर्तमान राजनीतिक सिद्धांत में ‘श्रम के महत्व’ को मुख्य स्थान प्राप्त हैं। प्राचीन सिद्धान्तों में ‘श्रम’ राजनीतिक अधिकारों की अयोग्यता का परिचायक था। कृछ काल तक तो हस्तकलाविदों को भी दासों की कोटि में रखा गया था। फिर भी अन्यराज्यों की अपेक्षा एथेंस में दासों की स्थिति अच्छी थी।
मकदूनिया (Mecedonia) का उत्थान
इसी समय उत्तर ग्रीस में मकदूनिया नाम का एक शक्तिशाली राज्य उभर रहा था। ई.पू. 359 में फिलिप वहाँ का सम्राट् हुआ। अन्य ग्रीकी नगरराज्यों से मकदूनिया विजयी हुआ। कोरिंथ और थीबीज सैनिक अड्डे बन गए। फिलिपकी हत्या के बाद उसका पुत्र सिकंदर मकदूनिया का सम्राट् हुआ। सिकंदर ने सारे बिखरे हुए ग्रीस को अपने झंडे के नीचे एकत्र कर लिया और अन्य राज्यों की जीतता हुआ पंजाब (भारत) आकर लौट गया। 323 ई.पू. में बैबिलोन (काबुल) में उसी मृत्यु हुई। वह संपूर्ण विश्व में एक राज्य और एक संस्कृति देखने का इच्छुक था। पर सिकंदर की मृत्यु पर उसका विस्तृत साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो गया। संघर्र्षों की लंबी शृखंला में तीन शक्तिशाली हेलेनी राज्य- ऐंटोगोनस् के नेतृत्व में मकदूनिया, सेल्यूकिदों के नेतृत्व में एशिया माइनर तथा सीरिया और तोल्मियों के नेतृत्व में मिस्त्र उदित हुए। दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व में एपिसर के सम्राट् पाइसर ने रोमनों के विरुद्ध इटली पर आक्रमण किया। मकदूनिया के सम्राट् फिलिप ने इस युद्ध में हस्तक्षेप किया था। इस घटना को प्रथम मकदूनियाई युद्ध कहा जाता है। द्वितीय मकदूनियाई युद्ध (201-197 ई.पू.) में फिलिप की पराजय हुई। ग्रीस के अन्य राज्य रोमनों ने फिलिप के अधिकार से मुक्त करवा दिए। ई.पू. 192 से 189 तक स्थिति बदल गई। इतालियों और रोमनों के बीच युद्ध में फिलिप ने रोमनों का साथ दिया। किंतु परिस्थितियाँ इस प्रकार उत्पन्न होती गईं कि मकदूनियाँ ने दो युद्ध और लड़े। ई.पू. 146 में यह रोम से भी पराजित हुआ। रोम से सारे ग्रीस को केंद्रित कर मकदूनिया में शासक नियुक्त किया।
रोम ने ग्रीस और मकदूनिया पर आधिपत्य के साथ सिकंदर द्वारा विजित पूर्वी प्रदेशों पर भी अधिकार जमा लिया। एथेंस में कला और संस्कृति की उन्नति रोमनों के काल में ज्यों की त्यों रही। जस्तिनियन ने एथेंस के बौद्धिक उन्नयन में हस्तक्षेप कर सिकंदरिया को दार्शनिक शिक्षाओं का केंद्र बनाया। इससे रोम ने भी ग्रीस कला और संस्कृति से बहुत कुछ लिया। कुस्तुंतुनिया राजधानी बनी। थिडोसियस की मृत्यु के पश्चात् पूरा साम्राज्य दो भागों में बँटा। पश्चिमी ग्रीस के पतन (176 ई.) के पश्चात् पूर्वार्ध भाग बैजंटाइन साम्राज्य के नाम से प्रसिद्ध हुआ। किंतु जब मुसलमानों ने कुस्तुंतुनिया पर अधिकार किया तो यह राज्य भी समाप्त हो गया।
बैंजंटाइन साम्राज्य
यह राज्य नौकरशाही से आरंभ हुआ। इस साम्राज्य का पूरा इतिहास, अपनी रक्षा के लिये बाल्कन, दक्षिणी इटली और एशिया माइनर से हुए युद्धों का इतिहास है। विजीगोथिक, गोथिक और बल्गोरियन जातियों के भी आक्रमण हुए। सम्राट् जस्तिनियन ने उस भूमि को पुन: प्राप्त करने का प्रयत्न किया। आगे चलकर धार्मिक मतभेदों के कारण सन् 800 में, जब चार्लमैन रोम का सम्राट् हुआ, कुस्तुंतुनिया और रोम अलग अलग हो गए। नवीं शताब्दी के अंत में सम्राट निकेफोरस फोकास द्वितीय और जोन जिमिसेस ने राज्य को किसी प्रकार बचाने की चेष्टा की। इसके बाद सेलजुक तुर्को के आक्रमणों ने राज्य को अतिशय शक्तिहीन बना दिया। 13वीं शताब्दी से लेकर 15वीं शताब्दी के आरंभ तक इस साम्राज्य में बड़ी उथल पुथल हुई। अंत में आटोमन (उस्मानी) तुर्कों ने 1453 में कुस्तुंतुनिया पर अधिकार कर लिया। शनै: शनै: संपूर्ण ग्रीस पर उनका अधिकार हो गया।
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