‘‘भारतीय शिक्षा बोर्ड’’

विश्वगुरु के यशस्वी भाव से साक्षात्कार

‘‘भारतीय शिक्षा बोर्ड’’

वंदना बरनवाल  राज्य प्रभारी
महिला पतंजलि योग समिति - उ.प्र. (मध्य)

    भौतिक विकास की आवश्यकताओं ने विश्व भर में समय के साथ-साथ शिक्षा के उद्देश्यों और उसके पाठ्यक्रम में भी बदलाव किया है। इस बदलाव से भारत भी अछूता नहीं है। पर इन बदलावों के बीच हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत में वैदिक काल से ही शिक्षा का उद्देश्य केवल भौतिक या बाहरी विकास ही नहीं बल्कि चारित्रिक और आतंरिक विकास भी रहा है। ब्रिटिश शासनकाल में भारतीय शिक्षा में मैकाले की सोच ने जो जहर घोला उसने भारतीय शिक्षा के दोनों ही उद्देश्यों को गहरा आघात पहुँचाया और स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद एक बहुत बड़ा भ्रम हम सभी के मन में डाला गया कि अंग्रेज नहीं आते तो इस देश में सबको शिक्षा नहीं मिलती। अंग्रेजों के आने से पहले भारत में लगभग सौ प्रतिशत साक्षरता थी पर जानबूझकर नैरेटिव गढ़ा गया कि देश एक ऐसी वर्ण व्यवस्था में विभाजित था कि कुछ लोगों के हाथ में पूरी की पूरी विद्या और शिक्षा थी और बाकी के लोगों को पढऩे नहीं दिया जाता था। यह नैरेटिव स्वतंत्रता के सतहत्तर वर्षों बाद आज भी विद्यमान है क्योंकि राजनीति के लिए यह कारगर टूल है। जबकि सत्य तो यह है कि लगभग 100 प्रतिशत की साक्षरता वाले भारत के लोगों को अंग्रेजों ने निरक्षर कर दिया और 1947 में जब देश स्वतंत्र हुआ तो उस समय इस देश की साक्षरता मात्र 18 प्रतिशत रह गयी। यानि 82 प्रतिशत भारतीयों को निरक्षर करने का काम जिन अंग्रेजों ने किया उनको कुछ लोग धन्यवाद देते नहीं थकते कि अगर अंग्रेज भारत नहीं आते तो भारतीय अनपढ़ रह जाते।
उत्कृष्टता की ऊँची विरासत 
जब जब भारतीय शिक्षा और संस्कृति की बात आती है तो हम सभी नालंदा और तक्षशिला जैसी संस्थाओं के अतीत का जिक्र करना नहीं भूलते। इन शिक्षण संस्थाओं का जिक्र करते हुए हमें वैदिक काल से चली आ रही अपनी शैक्षणिक उत्कृष्टता की ऊंची विरासत पर गर्व महसूस होता है। यह गर्व हो भी क्यों ना, भारत में तो हर युग में शिक्षा और शिक्षा की व्यवस्था अत्यंत उच्च कोटि की रही है। गुरुकुल शिक्षा प्रणाली एवं गुरु-शिष्य परम्परा का गौरवशाली इतिहास तो युगों-युगों से चला आ रहा है। अगर त्रेतायुग में स्वयं भगवान राम ने अपने भाइयों के साथ ऋषि वशिष्ठ जी के गुरुकुल में रहकर शिक्षा प्राप्त की थी तो द्वापर में श्रीकृष्ण, बलराम व सुदामा संग महर्षि संदीपनि के गुरुकुल से शिक्षा प्राप्त करने गए। गुरु के सानिध्य में शिक्षा प्राप्त करने वाले विद्यार्थी गुरु के कुल के हो जाते थे और शिक्षा का वह स्थान गुरुकुल कहलाता था। इसीलिए गुरुकुल को गुरु का परिवार और गुरु के वंश की तरह देखते थे। धौम्य ऋषि, च्यवन ऋषि, गुरु द्रोणाचार्य, संदीपनि, वशिष्ठ, विश्वामित्र, बाल्मीकि, गौतम, भारद्वाज आदि अनेकों ऋषियों के आश्रम अपनी अपनी विशेषताओं के कारण प्रसिद्ध रहे। बौद्धकाल में भी बुद्ध, महावीर और शंकराचार्य की परंपरा से जुड़े गुरुकुल प्रसिद्ध हुए जहाँ विश्व भर से मुमुक्षु ज्ञान अर्जित करने आया करते थे। इन सभी गुरुकुलों में गणित, ज्योतिष, खगोल विज्ञान, भौतिक विज्ञान समेत अनेकों विषयों की शिक्षा प्रदान की जाती थी। प्रत्येक गुरुकुल अपनी विशेषता के लिए प्रसिद्ध थे, कोई धनुर्विद्या, अस्त्र शस्त्र सिखाने में कुशल था तो कोई वैदिक ज्ञान, ज्योतिष और खगोल विज्ञान में दक्ष था। इन गुरुकुलों की विशेषता वैसी ही थी जैसे कि आजकल उच्च शिक्षा के लिए इंजीनियरिंग, कॉमर्स, आर्ट्स, मेडिकल, प्रबंधन आदि कॉलेज होते हैं। यह शिक्षा महिला पुरुष सभी के लिए सामान रूप से थी। शास्त्रार्थ में निपुण महान विदुषी गार्गी, मैत्रेयी, विद्योत्मा और आदि गुरु शंकराचार्य जिन्होंने 42 दिनों तक चले शास्त्रार्थ में मंडल मिश्र को भी निरुत्तर कर दिया, उनकी पत्नी उदय भारती देवी आदि सर्व भारतीय शिक्षा के चंद उदाहरण हैं।   
जीवन मूल्यों में संवेदनहीनता 
अपनी विशिष्टताओं से पूरे विश्व को आकर्षित करने वाली हमारी अद्भुत शिक्षा व्यवस्था को लम्बी गुलामी के दौर ने निगल लिया और रही सही कसर स्वतंत्रता पश्चात की अनदेखी ने पूरी कर दी। शिक्षा में सुधार और आधुनिकीकरण की कोशिशें तो हुईं परन्तु हमारी विशिष्टता हमसे छीन गयी और शिक्षा में अंग्रेजियत की मिलावट ने भारतीय मूल्यों को निगल लिया। परिणामत: आज हम सभी पारिवारिक, सामाजिक और राष्ट्रीय मूल्यों में गिरावट की चुनौतियों से जूझ रहे हैं। ऐसे में यदि हमें इन चुनौतियों से पार पाना है तो हमें वर्तमान शिक्षा व्यवस्था के सामानान्तर में वैदिक युग की शिक्षा विशिष्टताओं को फिर से अपनाना होगा। आज हर माता-पिता अपने बच्चे को आईएएस, डॉक्टर, इंजिनियर, उद्योगपति आदि बनाने के स्वप्न देख रहे हैं। ऐसी ही आकांक्षाओं के साथ हर वर्ष वे बच्चों के साथ स्वयं भी किसी ना किसी प्रतियोगी परीक्षा का सामना करते ही रहते हैं। कुछ बच्चे और उनके माता-पिता इन परीक्षाओं को भले ही उत्तीर्ण कर पा रहे हों पर जीवन के अनेकों क्षेत्र ऐसे हैं जिनमें एक परिवार और समाज के तौर पर ज्यादातर लोग अनुत्तीर्ण हो रहे हैं। आज बच्चे पढ़ लिखकर नौकरी व्यवसाय एवं विवाह के लक्ष्य को हासिल कर अपने परिवार में व्यस्त हो जाने को ही सफलता मान चुके हैं। ऐसे में माता-पिता का ख्याल भी उन्हें नहीं रहता नतीजतन वृद्ध आश्रमों की संख्या बढ़ती ही जा रही है। ऐसे भी कई घटनाएं पढऩे में आती हैं कि नौकरी की तलाश में विदेश गए बच्चे अपने माता-पिता के अंतिम संस्कार में भी नहीं आना चाहते। आखिर जीवन मूल्यों में इतनी संवेदनहीनता कहाँ से आ रही और यह हमें कहाँ ले जाएगी। 
मूल्य शिक्षा के प्रति संकोच भाव क्यों 
इस बात को तो सभी स्वीकारते हैं कि वर्तमान समय में शिक्षा में मानवीय मूल्यों की निरंतर कमी होती जा रही है। आज के बच्चों पर ही कल परिवार, समाज और देश का उत्तरदायित्व आना है। यदि उनमें ही मूल्यों का अभाव रहेगा तो उनसे यह कैसे आशा की जा सकेगी कि वे अपने कर्तव्यों के प्रति निष्ठावान बनें। संवेदन शून्य व्यक्ति से कर्तव्य बोध की आशा तो नहीं की जा सकती है। वर्तमान पीढ़ी का भारतीय मूल्यों से विमुख होने से सरकार, शिक्षाविद और अभिभावक सभी चिंतित तो दिखलाई पड़ते हैं परन्तु मूल्य शिक्षा लागू करने के प्रति कितने लोगों में जिम्मेदारी का भाव है। पढऩे पढ़ाने के लिए पाठ्यक्रम कैसा भी हो, शिक्षा के नाम पर स्कूल में बस उतना ही बताया जा रहा जितने से परीक्षा में पूछे जाने वाले प्रश्नों का उत्तर लिखा जा सके और शिक्षित होने का प्रमाण पत्र हासिल हो जाये। इसका असर प्राथमिक कक्षा में पढ़ रहे बच्चे से लेकर पीएचडी कर रहे लोगों तक पर देखा जा सकता है। ब्रह्म मुहूर्त में उठने, धरती माँ को प्रणाम करने, माता पिता का चरण स्पर्श करने, सूर्य को अर्ग देने, जमीन पर बैठ कर भोजन करने आदि मूलभूत क्रियाओं और उनके पीछे के सनातन विज्ञान से बच्चों को कितने कान्वेंट स्कूल परिचित करवाते हैं। एक समय था जब संयुक्त परिवारों में ऐसी शिक्षाएं स्वत: ही मिल जाती थीं, पर अब संयुक्त परिवार टूटकर एकाकी परिवार बल्कि उससे भी आगे नैनो परिवार का स्वरूप ले चुके हैं। परिवारों में बड़े-बुजुर्गों का स्थान मजबूरी का होता जा रहा है जबकि पहले यही बड़े बुजुर्ग बच्चों को किस्सों और कहानियों और अपनी दिनचर्या से नैतिक व आध्यात्मिक शिक्षा भी देते थे। आज दादी, नानी की कहानियों का स्थान टीवी, मोबाइल, सोशल मीडिया, इन्टरनेट और ओटीटी प्लेटफार्म ने छीन लिया है। इन प्लेटफॉर्म से नैतिक और धार्मिक मूल्यों की बात करना या मानवीय मूल्यों की शिक्षा की अपेक्षा रखना बेमानी है। यह स्थिति बेहद खराब और समाज में बिखराव की स्थिति पैदा करने वाली है क्योंकि संवाद के इन डिजिटल प्लेटफार्म पर मिलने वाली सामग्री की गुणवत्ता हर दिन गिरती ही जा रही है।
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डिग्री और प्रमाणपत्रों में सिमटी हुई व्यवस्था   
हमें ऐसा लगता है कि आजादी के 77 सालों में भारत ने शिक्षा के क्षेत्र में काफी तरक्की की है। उच्च शिक्षा की बात करें तो आज देश के कई शहरों में आईआईटी, आईआईएम जैसी जानी मानी संस्थाओं समेत अनेकों इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेजों एवं विश्वविद्यालयों की भरमार है। इन संस्थाओं में बच्चे के प्रवेश मात्र से अभिभावक को भी गर्व की अनुभूति होती है। प्राथमिक शिक्षा की सुविधाएँ भी बहुत पीछे नहीं हैं बस आपकी जेब में पैसे होने चाहिए। जैसा पैसा वैसा ही स्कूल, उसका भवन और उसके शिक्षक-शिक्षिकाएं। दिखने में धर्मशाला और लॉज से लेकर फाइव स्टार होटल को मात कर देने वाले स्कूल भी उपलब्ध हैं। हर माता-पिता की बस एक चाहत, कैसे भी करके बोर्डिंग वाले स्कूल में ना सही पर अंग्रेजी माध्यम के किसी अच्छे वाले स्कूल में उनके बच्चे का नाम प्रवेश सूची में आ जाये। सुबह-सुबह उनका बच्चा भी सुन्दर सी टाई लगाकर गुड मॉर्निंग बोले और भारी-भरकम स्कूल बैग पीठ पर लादकर टाटा मम्मा बाय-बाय डैडी करे। कहने को आज भारत पंद्रह लाख स्कूलों, चालीस हजार से ज्यादा कॉलेजों और एक हजार से ज्यादा विश्वविद्यालयों वाला शिक्षा तंत्र बन चुका है जो करीब तीस करोड़ छात्रों की जरूरतें पूरी करता है। पर अफसोस कि स्वतंत्रता के 77 सालों बाद भी भारत की शिक्षा व्यवस्था अभी भी डिग्री के मोहपाश में जकड़़ी हुई है। 
उम्मीदों को पंख 
यदि सत्ताएं चाहतीं तो आजादी के बाद उचित फैसले लेकर मैकाले के जिस जहर की हम सभी बात करते हैं उसके दुष्प्रभाव को कम तो किया ही जा सकता था। परन्तु राजनीतिक सत्ता और शिक्षा में वामपंथ की विचारधारा के प्रभाव ने ऐसा होने नहीं दिया। हालात ऐसे पैदा किये गए कि हर माता पिता को इसी शिक्षा व्यवस्था में अपने बच्चे का भविष्य दिखलाई देने लगा। कान्वेंट स्कूल में प्रवेश और अंग्रेजी भाषा में पढ़ाई का ऐसा महिमामंडन किया गया कि आसान सी मातृभाषा और अपनी संस्कृति को छोडक़र लोगों में अंग्रेजियत अपनाने की होड़ लग गई। शिक्षा संस्कार से अलग होकर डिग्री से जुड़ गयी और डिग्री रोजगार से। एक तरफ संस्कार विहीन शिक्षा ने परिवार, समाज और राष्ट्र भावना को आघात पहुंचाया तो दूसरी तरफ डिग्री वाली शिक्षा ने विरासत में मिलने वाले हुनर को छीन लिया। लम्बी गुलामी में क्षीण हो चुके लोगों के हुनर के रक्षण पर विचार करने के स्थान पर समाज को आरक्षण में उलझा दिया गया। परिणाम सबके समक्ष है। परिवार और समाज तो बिखराव का सामना कर ही रहे हैं भारत तेरे टुकड़े होंगे और सनातन को बीमारी बताने वाले लोग भी पैदा हो रहे हैं। शिक्षा में आये ऐसे दोषों को दूर करने की आवश्यकता थी और इसकी उम्मीद जगी वर्ष 2020 में जब नयी राष्ट्रीय शिक्षा नीति बनी। बदलाव की उम्मीद को और पंख लगे वर्ष 2022 जब भारतीय शिक्षा बोर्ड का भी गठन पूर्ण हुआ।
शिक्षा के मूल्यों के पुनस्र्थापना का बोर्ड
भारतीय शिक्षा बोर्ड के बारे में अनेकों बार हम सभी पूज्य गुरुवर, श्रद्धेय आचार्यश्री और आदरणीय नागेंद्र प्रसाद सिंह जी से सुन चुके हैं और बहुत हद तक इससे परिचित भी हो चुके हैं। भले ही इस बोर्ड को अगस्त, 2022 में सरकारी मान्यता मिली हो परन्तु इसके विचारों की नींव तो पूज्य स्वामी जी ने वर्षों पहले पतंजलि योगपीठ की स्थापना और भारत स्वाभिमान आन्दोलन के समय ही रख दी थी जब उन्होंने पांच राष्ट्रीय भ्रम, पांच राष्ट्रीय सामाजिक आंदोलन और अपनी पांच प्रतिज्ञाओं को दुनिया के समक्ष बार-बार दोहराया था। योग और आयुर्वेद के माध्यम से स्वास्थ्य की क्रांति लाने वाले पूज्य स्वामी जी इस सत्य से परिचित थे कि जब तक राजनितिक सत्ता में परिवर्तन नहीं होता तब तक शिक्षा व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन संभव नहीं। वर्ष 2014 में राजनीतिक सत्ता के परिवर्तन में ऋषि परम्पराओं के अनुरूप अग्रणी भूमिका निभाने के पश्चात वर्ष 2015 उन्होंने सरकार के समक्ष नए शिक्षा बोर्ड के गठन का प्रस्ताव रख दिया जो कि कुछ आपत्तियों के कारण स्वीकार नहीं हुई और 2016 में खारिज कर दी गयी। पूज्य स्वामी जी ने अपने भागीरथ प्रयासों से वर्ष 2022 में भारतीय शिक्षा बोर्ड को सरकारी मान्यता दिला ही दी। इस प्रकार वर्ष 2022 और पूज्य स्वामी जी के प्रयास, भारतीय शिक्षा के मूल्यों की पुनस्र्थापना के लिए सदियों तक याद रखे जायेंगे। 
अतुलनीय भारत से साक्षात्कार 
परम पूज्य गुरुवर के अथक प्रयासों से भारतीय शिक्षा बोर्ड का गठन तो हो चुका है और अब अगली चुनौती विभिन्न स्कूलों को इससे जोडऩे से लेकर, योग्य शिक्षकों की तलाश एवं संसाधनों का एकत्रीकरण है। पर इससे भी बड़ी चुनौती समाज के बुद्धिजीवी और सक्षम वर्ग के साथ साथ बच्चों के माता-पिता तक इस संदेश को पहुँचाना है कि वे सभी स्वयं आगे आयें जिससे इस बोर्ड के प्रति सकारात्मक माहौल बन सके। हो सकता है नयी संस्कृति एवं नयी शिक्षा व्यवस्था से पढक़र निकले एवं पढ़े-लिखे होने का बोध रखने वाले कुछ शिक्षितों को भारतीय शिक्षा बोर्ड का भविष्य अभी उज्जवल ना दिखे, पर उन्हें यह विश्वास दिलाना होगा कि आने वाला कल इसी का है। भारतीय शिक्षा बोर्ड समय की पुकार है और परिवार एवं वर्तमान समाज की सर्व समस्याओं का समाधान भी है। 
अत: आइये हम सभी यह संकल्प लें कि हम पूरी उर्जा और सकारात्मक भाव से इस अभियान से स्वयं भी जुड़ेंगे और शिक्षण संस्थानों और अभिभावकों तक इसकी महत्ता पहुंचाएंगे। जिससे भारत के 140 करोड़ लोग भारत की विरासत पर गर्व कर इस अनुष्ठान में अपना हर संभव योगदान दे सकें। पूज्य गुरुवर के सानिध्य में हमने योग, आयुर्वेद और स्वदेशी को जिस प्रकार जन आन्दोलन बनाया, यदि हमने यह प्रण ले लिया तो जब स्वाधीनता की सौवीं वर्षगांठ के समय ही हम विश्वगुरु के यशस्वी भाव को पुन: प्राप्त कर विश्व को नेतृत्व देने की स्थिति में आ जायेंगे। फि़लहाल तो यह बोर्ड अति शैशवावस्था में है पर इतना तो तय है कि आने वाले कल में यही भारतीय शिक्षा बोर्ड पूरे विश्व को अतुलनीय भारत से साक्षात्कार करवाएगा।
थोडा आत्ममंथन सभी करें
आईआईटी, ट्रिपल आईआईटी, एनआईटी जैसे संस्थान तकनीक के क्षेत्र में इस देश के रत्न के समान हैं जिनमें प्रवेश पाना आसान नहीं होता। लाखों लोग हर वर्ष प्रवेश के लिए प्रयत्न करते हैं। पर यह आश्चर्य किन्तु सत्य है कि चंद्रयान और मंगल मिशन जिसकी सफलता में इसरो के 3600 वैज्ञानिक सीधे और 5 से 6 हजार लोग अप्रत्यक्ष रूप से लगे थे उनमें से कोई भी इन जाने-माने तकनीकी संस्थान से नहीं था। बड़े गर्व से हम कहते फिरते हैं कि अंतरिक्ष में शोध करने वाली विश्व में आज जो दो सबसे बड़ी संस्थाएं हैं उनमें अमेरिका की संस्था नासा और भारत की संस्था इसरो है। हमें इसका भी गर्व होता है कि अमेरिकी संस्थान नासा में 36 प्रतिशत भारतीय मूल के वैज्ञानिक हैं पर इसरो में एक भी अमेरिकी नहीं काम करता, हम इस पर मंथन नहीं करते। यही नहीं वर्तमान में अमेरिका में 38 प्रतिशत डॉक्टर और तमाम दिग्गज कंपनियों के सीईओ भी ऐसे भारतीय हैं जिनकी शिक्षा भारत में हुई है। अनेकों दिग्गज विदेशी कंपनियों के बड़े हिस्से को आज भारतीय मेधा संभाल रही है। ऐसे में हमें इस पर भी आत्ममंथन करना होगा कि आखिर हमारी शिक्षा और उससे जुड़ी अन्य व्यवस्था में वह कौन सी खामी रह गई है कि देश की श्रेष्ठ मेधा शिक्षा ग्रहण कर अपने देश की बजाय दूसरे देश की सेवा कर रहे हैं।

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