कंठ, उदर, तथा वृक्क्वस्ती रोग निवारक आयुर्वेदिक घटक खरबूज
On
समस्त भारत में नदियों के किनारे तथा उष्ण व शुष्क प्रदेशों में इसकी खेती की जाती है। पुराणों में उल्लेख है कि भगवान विष्णु ने आदर से इसे अपने दोनों हाथों में धारण किया था। अत: इसे संस्कृत में 'दशांगुल नाम दिया गया है। यद्यपि आयुर्वेदीय प्राचीन ग्रन्थों में इसका विषद उल्लेख नहीं मिलता तथापि यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि भारतीयों को इसका ज्ञान प्राचीनकाल से था। भारतवर्ष के भिन्न-भिन्न प्रान्तों एवं स्थान भेद से रूप रंग एवं स्वाद की विभिन्नता के कारण इसकी कई उपजातियां है। किन्तु गुणों की दृष्टि से उनमें कोई विशेष अन्तर नहीं है। इसमें शरीर को सशक्त बनाने वाले तत्व लौह और विटामिन सी अधिक मात्रा में पाए जाते हैं। साथ ही खनिज लवण की भी इसमें विशेषता होने से यह स्कर्वी जैसे रोगों से शरीर की रक्षा करता है। इसके फलों को सेवन से पूर्व कुछ देर तक शीतल जल में भिगोकर रखना चाहिए तथा भोजन के कुछ देर बाद ही सेवन करना ठीक होता है। खाली पेट या भोजन के पहले खाने से शरीर में पित्त प्रकोप की संभावना रहती है। किसी-किसी को पित्तज्वर भी हो जाता है। इसके खाने के पश्चात् ही दूध का सेवन हानिप्रद है। इसे यथोचित प्रमाण में खाने के बाद एक गिलास शक्कर का शर्बत पीना पाचन के लिए विशेष उपयोगी है। पुराने एक्जीमा पीडि़त रोगी के लिये यह अतिहितकारी है।
बाह्यस्वरूप
इसकी पतली, आरोही, जमीन पर फैलने वाली, तरबूज की बेल जैसी, वर्षायु, स्थूल मूल-स्तंभयुक्त लता होती है। इसका काण्ड कोणीय, खुरदरा होता है। इसके पत्र सरल, रोमश, पंचकोणीय, गोलाकार तथा दोनों पृष्ठ पर खुरदरे, आधार पर हृदयाकार, 9 सेमी लम्बे एवं 8 सेमी चौड़ेे होते हैं। इसके पुष्प छोटे, पीत वर्ण के होते हैं। इसके फल 10-15 सेमी व्यास के, गोलाकार, अण्डाकार, पकने पर हरिताभ पीतवर्ण के, चिकने तथा सुगन्धित होते हैं। इन पर चारों ओर लगभग 10 हरे रंग की धारीयां बनी होती हैं। बीज अनेक, लम्बे, चपटे तथा श्वेत वर्ण के होते हैं। इसका पुष्पकाल एवं फलकाल नवम्बर से जून तक होता है।
आयुर्वेदीय गुण-कर्म एवं प्रभाव
-
खरबूज तिक्त, मधुर, कटु, शीत, गुरु, स्निग्ध तथा रूक्ष होता है।
-
खरबूज वृष्य, बलकारक, मूत्रल, कोष्ठशुद्धिकारक, पुष्टिकारक, सारक तथा तर्पण कारक होता है।
-
यह दाह, श्रम, उन्माद तथा मूत्रकृच्छ्र नाशक होता है।
-
खरबूज का बालफल तिक्त होता है।
-
खरबूज का पक्वफल तृप्तिकारक, मधुर, पौष्टिक, बलकारक, गुरु, कोष्ठशुद्धिकारक, स्निग्ध, मूत्रल, अत्यंत सुगन्धित, शीत, वृष्य तथा वातशामक होता है।
-
खरबूज जीर्ण विचर्चिका, उदररोग तथा वातपित्त शामक होता है। इसका अपक्व फल मधुर, तिक्त तथा किञ्चित् अम्ल, संतर्पण-कारक व पुष्टिप्रद होता है। यह वीर्यवर्धक, मूत्रशोधक, कफकारक, बलकारक, दाह, श्रम तथा पित्तोन्माद में लाभप्रद होता है।
-
खरबूज का सार अनॉक्सीकारक एवं शोथहर क्रियाशीलता प्रदर्शित करता है।
-
खरबूज के बीजों का मेथेनॉलिक सार उच्च व्रणरोधी क्रियाशीलता प्रदर्शित करता है।
औषधीय प्रयोग
शिरो रोग
-
शिर:शूल- खरबूजे की मज्जा को घी में भूनकर मिश्री की चासनी में डालकर सेवन करने से सिरदर्द में लाभ होता है।
कण्ठ रोग
-
कण्ठदाह-खरबूजे के बीजों का क्वाथ बनाकर गरारा करने से गले की दाह का शमन होता है।
मुख रोग
-
चेहरे के दाग-खरबूज के बीजों को पीसकर चेहरे पर लगाने से चेहरे के दाग, झांई आदि नष्ट हो जाते हैं।
-
खरबूज के फलों के छिलके को पीसकर लगाने से चेहरे के दाग ठीक हो जाते हैं।
हृदय रोग
-
हृदय दाह-खरबूज बीज (2 ग्राम) तथा खीरे के बीजों (2 ग्राम) को मिलाकर पीसकर उसमें 500 मिग्रा काली मिर्च तथा 5 ग्राम मिश्री मिलाकर घोंट-छानकर पिलाने से हृदय के दाह में लाभ होता है।
उदर रोग
-
अफारा-खरबूजे की मींगी को पीसकर गुनगुना करके बच्चों के पेट पर लेप करने से अफारा मिटता है।
-
प्रवाहिका-प्रवाहिका की प्रारम्भिक अवस्था में जब आमदोष, कफ तथा दुर्गन्धयुक्त मल की बार-बार प्रवृत्ति हो रही हो तो, खरबूज के फलमज्जा में सोंठ, काली मिर्च तथा जीरा चूर्ण को डालकर ऊपर से सैंधव नमक डालकर खाने से आमदोष का पाचन होकर मल दौर्गन्ध्य तथा अपानवायु का अवरोध दूर होता है।
वृक्कवस्ति रोग
-
मूत्र विकार-खरबूजे के फल का सेवन करने से मूत्रसंस्थानगत विकारों का शमन होता है।
-
खरबूजे की मींगी में मिश्री तथा काली मिर्च मिलाकर खिलाने से मूत्र की वृद्धि होती है तथा मूत्रविकारों का शमन होता है। इसकी मींगी को पीसकर, दूध में मिलाकर पीने से मूत्रनली की दाह मिटती है।
-
मूत्रकृच्छ्र-5-10 ग्राम खरबूजे के बीज चूर्ण में समभाग मिश्री मिलाकर खाने से मूत्रघात तथा मूत्रकृच्छ्र (दर्द एवं कठिनाई के साथ मूत्र त्याग) में लाभ होता है।
-
वृक्क शूल (गुर्दे का दर्द)-खरबूज के 2-5 ग्राम बीजों को पीसकर जल में मिलाकर सेवन करने से वृक्कशूल का शमन होता है।
-
5-10 ग्राम खरबूज के बीजों को पीस-छानकर, उसमें 65 मिग्रा यवक्षार मिलाकर पिलाने से वृक्कशूल का शमन होता है।
प्रजननसंस्थान रोग
-
उपदंश-5 ग्राम खरबूजे के बीजों को पानी में पीसकर, उसमें 15-20 बूंदें चन्दन तैल की मिलाकर सेवन करने से उपदंश में लाभ होता है।
त्वचा रोग
-
विचर्चिका-खरबूजे के फलों को पीसकर लगाने से विचर्चिका में लाभ होता है।
सर्वशरीर रोग
-
दुर्बलता-खरबूजे की मींगी का सेवन करने से शरीर पुष्ट होता है तथा दुर्बलता नष्ट होती है।
-
आतपघात (लू लगना)-खरबूज के बीजों को पीसकर सिर पर तथा समस्त शरीर पर लगाने से लाभ होता है।
-
पित्तरोग-खरबूजे के छोटे-छोटे टुकड़ों में खाण्ड मिलाकर उसका पानक बनाकर नियमित सेवन करने से पित्तप्रभाव अल्प हो जाता है तथा पित्तज रोगों का शमन होता है।
रासायनिक संघटन
-
खरबूजे के बीज तथा बीज तैल में लिनोलिक अम्ल, लेसिथिन, सिफेलिन, सेरब्रोसाईड, मल्टीफ्लोरिनॉल, आइसो मल्टीफ्लोरिनॉल, α तथा β एमायरिन, टेरेक्सेरॉल, ल्यूपिओल, युफोल, स्टिग्मास्टेरॉल, क्लेरोस्टेरॉल, एवेनास्टेरॉल (Avenasterol), केम्पेस्टेरॉल तथा सिटोस्टेरॉल पाया जाता है।
-
खरबूजे के फल में सेपोनिन, फेरुलिक, केफीक, क्लोरोजेनीक अम्ल पाया जाता है।
-
खरबूजे के पत्र में मेलोसाइड A एवं L तथा अन्य केम्पफेरॉल एस्टर पाए जाते हैं।
लेखक
Related Posts
Latest News
01 Nov 2024 17:59:04
जीवन सूत्र (1) जीवन का निचोड़/निष्कर्ष- जब भी बड़ों के पास बैठते हैं तो जीवन के सार तत्त्व की बात...