सतां संगो हि भेषजम्

सतां संगो हि भेषजम्

आचार्य प्रद्युम्न जी महाराज

संसार में जब दो व्यक्ति साथ-साथ रहते, या परस्पर मिलते रहते हैं तो स्वाभाविक रूप से उनके गुण-दोषों का शनै:-शनै: एक दूसरे पर प्रभाव पडऩे लगता है। उनकी वाणी, उनका आचरण, उनकी मान्यताएँ, उनका दर्शन, चिन्तन, अभिरुचियाँ, उनकी विशेषताएँ, उनका व्यवहार, स्वभाव अज्ञातरूप से एक-दूसरे को अपने अनुरूप गढऩे लगता है, प्रभावित करता रहता है। स्पष्ट ही जिसकी योग्यता जितनी अधिक होती है, जिसका ज्ञान का स्तर जितना उच्च होता है, जिसकी साधना जितनी गहरी होती है, जिसकी शक्ति जितनी अधिक होती है, जो जितना सजग व जागरूक होता है, जो जितना निभ्र्रान्त होता है, अपनी दृष्टि को जिसने जितना परिष्कृत कर लिया होता है, जो जितना संदेह रहित होता है, वह उसी अनुपात में अपने से कम या अवर को, अपने से नीचे खड़े हुये को ऊपर खींचता रहता है। श्रेष्ठ आचार्य अपने विद्यार्थियों का इसी पद्धति से निर्माण करते हैं। किन्तु जहाँ ऐसा आदर्श व्यक्तित्व नहीं होता और सामान्य रूप से लगभग समान स्तर के ही दो व्यक्ति मिलते हैं, तो वे भी एक-दूसरे से प्रभावित होने लगते हैं। ऐसे में चञ्चल के सम्पर्क से शान्त प्रकृति वाला व्यक्ति भी अशान्त हो जाता है, तो कभी शान्त के सम्पर्क से चञ्चल भी शान्त रहने लगता है। इसी प्रकार पुरुषार्थी के सम्पर्क से आलसी पुरुषार्थी हो जाता है। दूसरे शब्दों में दोनों में जिसकी शक्ति ज्यादा होती है, वह अपने से कम शक्ति वाले को अपने अनुरूप ढाल ही लेता है।
व्यक्तित्व विश्लेषकों का मत है कि एक व्यक्ति के दूसरे व्यक्ति के साथ सम्पर्क में आने पर गुणों व दोषों दोनों क्षेत्रों में तीन स्थितियाँ उत्पन्न हो सकती हैं-
गुणों के सन्दर्भ में:
  • उच्चतम स्थिति: इसके तहत व्यक्ति अपने गुणों को छोड़ता नहीं, पर दूसरे के गुणों को ग्रहण कर लेता है। जैसे एक व्यक्ति विद्याप्रेमी तो है, पर शरीर से पुरुषार्थी नहीं है। उसे शरीर से श्रम करने में रुचि लेने वाला एक साथी मिल जाता है, उसके सम्पर्क से वह धीरे-धीरे परिश्रमी भी हो जाता है।
इसी प्रकार कोई व्यक्ति किसी एक महापुरुष या कसी एक ही शास्त्र से बँधा हुआ है, पर वह किसी ऐसे व्यक्ति के सम्पर्क में आता है, जो सभी शास्त्रों के सत्य का आदर करता है, तो धीरे-धीरे वह भी इसी दृष्टि से सम्पन्न हो जाता है। किसी वैयाकरणी के सम्पर्क से दार्शनिक वैयाकरणी हो जाता है और दार्शनिक के सान्निध्य में वैयाकरणी दार्शनिक हो जाता है। इसी प्रकार कोई विचारक किसी सन्त के संग से सन्त हो जाता है। एक व्यायामशील व्यक्ति किसी स्वाध्यायशील के सम्पर्क में आने से स्वाध्याय करने लगता है। ऐसे ही एक कठोर सत्य बोलता है, दूसरा मधुरभाषी है। कटु सत्य बोलने वाला मधुरभाषी के सम्पर्क से मधुर सत्य अर्थात् सत्य को मधुर बोलना प्रारम्भ कर देता है। एक बहुत परिश्रमी है, किन्तु समय का पालन करने में बहुत लापरवाह है, दूसरा समय पालन में बहुत सावधान (क्कह्वठ्ठष्ह्लह्वड्डद्य) है। परिश्रमी व्यक्ति समय पालक के सम्पर्क में आने से समय पालन के गुण को भी सीख लेता है।
  • मध्यम स्थिति: इस स्थिति में व्यक्ति अन्य के गुणों को ग्रहण कर लेता है, किन्तु अपने गुणों को छोड़ देता है। जैसे एक व्यक्ति गीता का पाठ करता था। यह एक ऐसे व्यक्ति के सम्पर्क में आया जो अंग्रेजी का विद्वान् था। अब इसने गीता पाठ छोड़ दिया और अंग्रेजी पढऩे लगा। इसी प्रकार- एक व्यक्ति बच्चों को नि:शुल्क पढ़ाता था, दूसरा व्यक्ति बड़ा दानशील था, कमा-कमा कर दूसरों में खूब साधन-सम्पत्ति बाँटता रहता था। अब पहले व्यक्ति ने अपना नि:शुल्क पढ़ाने का काम छोड़कर, धन-दान करना आरम्भ कर दिया। एक व्यक्ति विद्वान् होते हुये भी मौन साधना में लीन रहता था, दूसरा पढ़ाने में लगा रहता था। पर संपर्क में आने से वह पहला भी अपने मौन को छोड़कर पढ़ाने में ही लग गया।
  • अधम स्थिति: परस्पर गुण परिवर्तन की इस अवस्था में व्यक्ति दूसरे के गुणों को तो ग्रहण नहीं कर पाता, किन्तु अपने गुणों को भी छोड़ देता है। जैसे एक व्यक्ति वार्तालाप में बहुत धीमी संयत वाणी से बोलता था, दूसरा व्यक्ति ऊँची तेज आवाज में बोलता था और बड़ा पुरुषार्थी भी था। इसके सम्पर्क में आने से साथी ने धीमा बोलना तो छोड़ ही दिया, किन्तु पुरुषार्थ को भी नहीं अपनाया। इसी प्रकार एक व्यक्ति मात्र स्वाध्यायशील था, दूसरा मात्र दानशील। सानिध्य में आकर उस स्वाध्यायशील ने दूसरे की दानशीलता को तो अपनाया नहीं, अपितु उसकी देखा देखी अपना स्वाध्याय छोड़ बैठा।
उक्त तीनों स्थितियों में सर्वाधिक जरूरत होती है जागरूकता की। अन्यथा अच्छी संगति भी दोषकारी साबित होती है। इसी क्रम में संगति से दुर्गुणों का भी तेजी से आदान-प्रदान होता है। जो सर्वाधिक खतरनाक है। प्रस्तुत है दोषों के संदर्भ में संगति की तीन स्थितियां:-
दोषों के सन्दर्भ में तीन स्थितियाँ:
अपने दोषों को छोडऩा:
इसमें व्यक्ति अपने दोषों को छोड़ देता है, किन्तु दूसरों के दोषों को ग्रहण नहीं करता। गुणों के प्रसंग में जैसे उत्तम स्थिति मानी जाती है कि व्यक्ति अपने गुणों को छोड़े नहीं, किन्तु दूसरे के गुणों को ग्रहण कर ले, इसी प्रकार यदि व्यक्ति किसी के सम्पर्क में आकर अपने दोषों को छोड़ दे तथा दूसरे के दोषों को ग्रहण न करे, तो यह उत्तम स्थिति मानी जायेगी। जैसे एक व्यक्ति विनम्र तो है पर लोभी है, दूसरा व्यक्ति अहंकारी है किन्तु उदार है। अब विनम्र के सम्पर्क से अहंकारी विनम्र हो जाता है, किन्तु उसके समान लोभी नहीं बनता, तथा उदार के सम्पर्क से लोभी उदार हो जाता है, किन्तु उसके समान अहंकारी नहीं बनता।
अपने दोष छोड़कर दूसरों के दोष ग्रहण करना:
यह कि व्यक्ति अपने दोषों को छोड़ दे किन्तु दूसरे के दोषों को ग्रहण कर ले। जैसे एक व्यक्ति कामी है, किन्तु क्रोधी नहीं है, दूसरा व्यक्ति क्रोधी है, पर कामी नहीं है। अब ये दोनों व्यक्ति जब एक दूसरे के सम्पर्क में आते हैं, तो क्रोधी अक्रोधी तो हो गया किन्तु साथ में कामी भी हो गया। इसी प्रकार किसी सरल व्यक्तिके सम्पर्क से कोई जटिल व्यक्ति अपनी जटिलता को छोड़ देता है, किन्तु साथ में सरल व्यक्ति के किसी दोष को भी ग्रहण कर लेता है। किसी उदार व्यक्ति के सम्पर्क से लोभी ने अपना लोभ तो छोड़ दिया, किन्तु उदार व्यक्ति के किसी दोष को भी साथ में ग्रहण कर लिया।
अपने व दूसरे दोनों के दोष ग्रहण कर लेना:
इस स्थिति में व्यक्ति अपने दोष को तो त्यागता नहीं है, किन्तु दूसरे के दोष को भी ग्रहण कर लेता है। जैसे एक व्यक्ति अहंकारी है, दूसरे किसी लोभी व्यक्ति के सम्पर्क से वह अहंकारी के साथ-साथ लोभी भी हो गया। इसी प्रकार एक  व्यक्ति बहुत स्वार्थी है, दूसरा व्यक्ति बड़ा असत्यवादी है। पर परस्पर सम्पर्क से स्वार्थी व्यक्ति असत्यवादी भी हो जाता है।
वास्तव में मानव जीवन में कोई भी व्यक्ति संग के सुप्रभाव-दुष्प्रभाव को जब चाहे व्यापक रूप से देख सकता है, किन्तु यह भी है कि कुछ विशेष व्यक्ति सूर्य-किरणों की तरह अच्छे या बुरे के साथ संश्लिष्ट होने पर भी अप्रभावित बने रहते हैं। इसके विपरीत सामान्य जन तो ठीक वायु की तरह होते हैं, जिस प्रकार वायु ठण्ड के प्रभाव से शीतल और उष्णता के प्रभाव में गर्म, कभी सुगन्धित-कभी दुर्गन्धित होती रहती है। साधु पुरुष खल-संगम से खल नहीं बनते, किन्तु उनके सम्पर्क से खल साधु बन जाते हैं या बन सकते हैं।
उपर्युक्त विश्लेषकों के बीच सत्संगति की आदर्श स्थिति यह है कि व्यक्ति गुणग्राही, मधुग्राही बन कर रहे। जहाँ कहीं भी कोई विशेष गुण दिखाई दे, उसे भौंरे या मधुमक्खी की तरह तत्काल ग्रहण कर ले। साथ ही भ्रमर या मधुमक्खी जैसे गंदगी पर नहीं बैठते, वैसे ही व्यक्ति किसी के दुर्गुण या हीन गुण की ओर न जाये। व्यक्ति को मक्खी जैसे स्वभाव वाला तो कभी नहीं होना चाहिए, जो गंदगी पर बैठती रहती है और मिठाई पर भी। जो व्यक्ति सच्चे अर्थों में गुणग्राही या मधुग्राही बनकर जीवन जीते हैं, वे निरन्तर उन्नति करते रहते हैं, उनका जीवन सतत परिष्कृत व उज्जवल होता रहता है। आवश्यक बात यही है कि व्यक्ति में ऊँचा उठने की अभीप्सा रूपी आग सदा प्रज्वलित रहनी चाहिए, फिर अपने आप रास्ता निकलता रहता है। जहाँ गुण और दोष दोनों दिखाई दे रहे हैं, वहाँ व्यक्ति दोषों की उपेक्षा करके केवल गुणों को ही देखे, यही व्यक्तित्व का तकाजा है। गुण ग्राहिता का यह कठिन मार्ग अवश्य है, पर इसे सहजता में पाया जा सकता है। क्योंकि सज्जनों की संगति औषधि के समान रोगों-दोषों-दु:खों व तापों को दूर करने वाली होती है।

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