एंटीबायोटिक जान बचाने वाले या मारने वाले?

एंटीबायोटिक जान बचाने वाले या मारने वाले?

भाई राकेश 'भारत’, सह-संपादक
एवं मुख्य केन्द्रीय प्रभारी भारत स्वाभिमान

  • एक्सपर्ट अब मानने लगे हैं कि एंटीबायोटिक जान बचाने का नहीं बल्कि जान लेने का काम करेंगे
  • खेती में भी बड़ी संख्या में हो रहा है एंटीबायोटिक का इस्तेमाल
  • कोरोना काल में एंटीबायोटिक की हैवी डोज का प्रयोग अंधाधुंध हुआ जिससे एंटीबायोटिक रेजिस्टेंस पैदा हुआ
कोनॉमिस्ट की एक ताजा रिपोर्ट के अनुसार कोरोना की पहली लहर में भारतीयों ने एंटीबायोटिक की 21.6 करोड़ अतिरिक्त खुराक ली जो दुनिया में सबसे ज्यादा है। एंटीबायोटिक के नुकसान को देखते हुए नेशनल मेडिकल कमीशन ने इसके जरूरत से ज्यादा उपयोग को रोकने के लिए तमाम मेडिकल कॉलेजों से एक्शन प्लान मांगा है।
मानव जाति के सामने जो बड़ी समस्या है एएमआर अर्थात एंटीमाइक्रोबॉयल रेजिस्टेंस जब माइक्रो ऑर्गेनिक बैक्टीरिया वायरस पैरासाइट या फंगस से होने वाले संक्रमण के खिलाफ उनके लिए बनाई गई दवाइयां काम करना बंद कर देती हैं तो एएमआर की स्थिति पैदा होती है।
अब तो एक्सपर्ट खुले तौर पर कहने लगे हैं कि अपने डॉक्टर से यह जरूर पूछें क्या वाकई मुझे एंटीबायोटिक्स की जरूरत है। अगर मरीज यह पूछने लगे तो इससे भी डॉक्टर अनावश्यक एंटीबायोटिक लिखने के दबाव में नहीं होंगे। भारत में यह मनोवृति बन चुकी है अगर डॉक्टर एंटीबायोटिक देता है तो मरीज यह मान लेता है कि उसके ऊपर असर नहीं करेंगे।
खेती में भी बड़ी संख्या में एंटीबायोटिक का इस्तेमाल होता है। ऐसी एंटीबायोटिक जॉब 4 में तो काम नहीं आती लेकिन सब्जियों और फलों में एंटीबायोटिक दवाओं के छिड़काव को लेकर किसानों को जागरूक करने की आवश्यकता है क्योंकि यही खेती वाली एंटीबायोटिक फल सब्जियों और पानी के माध्यम से हमारे शरीर तक पहुंच रहा है।
1928 में पहली एंटीबायोटिक पेनिसिलिन की खोज एलैक्जेंडर फ्लेमिंग (Alexander Fleming) ने की। 1942 में अर्नस्ट बोरिस चैन (Ernst Boris Chain) और हार्वर्ड वॉल्टर फ्लोरे (Howard Walter Florey) की दवाई बनाने की तकनीक का आविष्कार किया और 1945 में तीनों को संयुक्त रूप से एंटीबायोटिक के लिए चिकित्सा का नोबेल पुरस्कार दिया गया।

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एंटीमाइक्रोबॉयल रजिस्टेंस अर्थात् एएमआर के कारण आज 4,95,0000 लोग पूरी दुनिया में मर जाते हैं अफ्रीका में 141 मौतें हर 10,00,000 में से एंटीबायोटिक रेजिस्टेंस के कारण होती हैं। भारत में 50,000 से ज्यादा नवजात शिशु सेप्टिक से मर जाते हैं।
सबसे बड़ा खतरा है एंटीबायोटिक रेजिस्टेंस जिसके कारण या एंटीमाइक्रोबॉयल रेजिस्टेंस एएमआर के कारण 2050 तक दुनिया भर में एक करोड़ से ज्यादा मौतें होंगी। एंटीबायोटिक के कारण केवल डेथ नहीं होंगी बल्कि 27 प्रतिशत तक खाद्य उत्पादन में भी कमी हो सकती है। 15,00,000 मौत एचआईवी ऐड्स और मलेरिया की वजह से होती हैं। लेकिन एएमआर एंटीमाइक्रोबॉयल रेजिस्टेंस के कारण इन दोनों से 3 गुना ज्यादा मौतें हो रही हैं। खतरनाक बात यह है कि 2020 से 2021 में 48 प्रतिशत एंटीबायोटिक की खपत में बढ़ोतरी हो गई है। भारत में 30 प्रतिशत प्रति व्यक्ति एंटीबायोटिक के उपयोग में बढ़ोतरी हो रही है। 70 प्रतिशत एंटीबायोटिक पशुओं के लिए इस्तेमाल की जाती हैं। 75 प्रतिशत हिस्सा उनके मल मूत्र के जरिए जमीन और पानी में मिल जाता है। 75 प्रतिशत ड्रग रेजिस्टेंस के मामले स्वास्थ्य संबंधी संक्रमण से हो रहे हैं। 70 प्रतिशत विदेशी लोग जो भारत आते हैं उनकी आंतों में ड्रग रेजिस्टेंस बैक्टीरिया होते हैं उनकी आंतों के ड्रग रेजिस्टेंस बैक्टीरिया फेल कर दूसरे लोगों को भी ड्रग रेजिस्टेंस पैदा करते हैं।
आंतों में ड्रग रेजिस्टेंस बैक्टीरिया का विकास हो जाता है। पालतू जानवरों को जो एंटीबायोटिक दी जाती है, वह जानवरों से मनुष्य के भोजन में आ जाती है और एक व्यक्ति से वह आंखों का ड्रग रेजिस्टेंस बैक्टीरिया कई व्यक्तियों में फैल जाता है।
कोरोनाकाल में हम सबने देखा कि एक छोटे से वायरस ने किस प्रकार से पूरी दुनिया में लॉकडाउन कर दिया और लॉकडाउन के साथ-साथ लाखों लोगों की जानें गई। कितने लोग बेरोजगार हो गए, कितने लोगों का घर बार छूट गया और कितने लोगों को गंभीर बीमारियां हुईं। 2020 में जब यह कोरोना महामारी बिल्कुल उछाल पर थी और पूरी दुनिया केवल कोरोना से चिंतित थी, उस समय विश्व स्वास्थ्य संगठन के डायरेक्टर जनरल श्री टैडरोज (Tedros) ने कहा कि कोरोना वायरस बड़ा खतरा नहीं है, अभी कोरोना से भी बड़ा खतरा पूरी दुनिया के सामने आने वाला है। उन्होंने आगे कहा कि कोरोना से बड़ा खतरा है एंटीबायोटिक से रजिस्टेंस पैदा होने का।

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कोरोना वायरस के नुकसान से विश्व स्वास्थ्य संगठन उतना भयभीत नहीं जितना वह आने वाली महामारी के अंदाज से है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार एंटीबायोटिक से जो रजिस्टेंस पैदा हो रहा है उससे कई गुना ज्यादा बड़ी महामारी पैदा हो सकती है। एंटीबायोटिक का काम करना बंद करना पूरी दुनिया व मानवता के सामने सबसे बड़ा खतरा माना जा रहा है।

मानवता के सामने बड़ा खतरा सुपरबग

एंटीमाइक्रोबॉयल प्रतिरोध विकसित करने वाले सूक्ष्म जीवों को सुपरबग के नाम से जाना जाता है ऐसे सूक्ष्मजीव जिनके ऊपर एंटीबायोटिक असर नहीं करती जो अपने आपको एंटीबायोटिक के असर से ताकतवर बना लेते हैं उनको सुपरबग कहा जाता है।
कोरोना काल में बेतहाशा एंटीबायोटिक की हैवी डोज का प्रयोग अंधाधुंध हुआ जिससे एंटीबायोटिक रेजिस्टेंस पैदा हुआ और इस सुपरबग के संपर्क में जो कोरोना वायरस आए उनमें से 60 प्रतिशत से अधिक की मौत हो गई।
जर्नल इनफेक्शन एंड ड्रग रेजिस्टेंस में प्रकाशित एक शोध यह कहता है कि भारत में लंबे वक्त से इन दवाओं का उपयोग बढ़ गया था और इन दवाओं के उपयोग से संक्रमित मरीजों में बैक्टीरियल और फंगल इन्फेक्शन बहुत तेजी के साथ फैला। ऐसी सामान्य फफूंद या फंगस जो हमारे ऊपर असर नहीं दिखा सकती, ऐसी फफूंद भी ब्लैक फंगस के रूप में, वाइट फंगस के रूप में, येलो फंगस के रूप में आई और हजारों लोगों को अपनी आंख से लेकर दूसरे अंगों से हाथ धोना पड़ा।

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शोधकर्ताओं का यह मानना है कि कोरोना काल में जो ज्यादा मृत्यु दर हुई उसमें एक बड़ा कारण था ज्यादा मात्रा में एंटीबायोटिक का प्रयोग। दूसरा कारण प्रतिबंधित दवाओं का भी खूब प्रयोग किया गया। आईसीएमआर की माइक्रोबायोलॉजिस्ट कामिनी वालिया कहती हैं कि कोविड-19 के इलाज में ऐसी कई एंटीबायोटिक दवाओं का प्रयोग किया गया जिन्हें डब्ल्यूएचओ ने सामान्य संक्रमण की स्थिति में प्रतिबंधित किया हुआ था।
एम्स के मेडिसिन विभाग के प्रोफेसर नीरज जी कहते हैं कि भारत में एंटीबायोटिक दवाएं लोगों को बहुत आसानी से मिल जाती हैं जबकि पश्चिमी देशों में ऐसा नहीं है। हल्के लक्षण वालों को भी बिना वजह एंटीबायोटिक और स्टिराइड दिए गए जिससे लोगों को नुकसान हुआ।
डब्ल्यूएचओ की बार-बार चेतावनी के बाद भी  एवरमेक्टिन, अरिथ्रोमायसिन, रेमदेसीविर, डेक्सामेथासोन आदि दवाएं खूब प्रयोग की गई। इसका यह परिणाम निकला कि जिनको ज्यादा मात्रा में एंटीबायोटिक दी गईं उनको सामान्य बैक्टीरियल इनफेक्शन होने के बाद एडवांस एंटीबायोटिक भी काम नहीं कर रही हैं।

भविष्य का खतरा

आधुनिक चिकित्सा विज्ञान यह मानता है कि एंटीबायोटिक दवाइयों के बिना दुनिया की कल्पना करना भी भयानक है। विशेषज्ञ कैंडिडा और इस जैसे सूक्ष्म दवा प्रतिरोधी बैक्टीरिया के फैलाव को देखते हुए इसका महत्व और ज्यादा मानते हैं कि 2050 तक एंटीबायोटिक रजिस्टेंस से होने वाले इन्फेक्शन से 1 करोड़ लोगों की मौत की आशंका है। आज भी यह संख्या 7,00,000 से ज्यादा है।
विश्व बैंक का कहना है कि इंफेक्शन फैलने के परिणाम 2008-9 की आर्थिक मंदी के संकट के समान होंगे। फार्मा कंपनियों को एंटीबायोटिक की दवा बनाना एक नुकसान का काम लगता है और कोई भी फार्मा कंपनी अब नई एंटीबायोटिक के ऊपर रिसर्च नहीं कर रही। 1980 के दशक के बाद एंटीबायोटिक दवाएं आना बहुत कम हो गई और 2003-2004 के बाद यदि हम बात करें तो कोई भी नई एंटीबायोटिक दवा नहीं आई क्योंकि फार्मा कंपनियों को लगता है कि एक एंटीबायोटिक दवा को डेवलप करने में समय, संसाधन और खर्चा ज्यादा लगता है जबकि आमदनी कम होती है। इसलिए वह  ऐसे रोगी को दवा लिखने में ज्यादा रुचि रखता है जो रोज दवा खाएं, जिससे वह लाखों करोड़ का बिजनेस कर सकें।

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