वीर सावरकर और  जवाहर लाल नेहरू

वीर सावरकर और  जवाहर लाल नेहरू

प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज  

देश की बड़ी विभूतियों के मध्य तुलना की कोई आवश्यकता नहीं है, फिर भी सम्य्क दृष्टि आवश्यक है। हाल ही में वीर सावरकर और जवाहरलाल नेहरू को लेकर देश में बहुत सा भ्रम फ़ैला है। सम्य्क दृष्टि के लिये उचित होगा कि इस विषय में दोनों विभूतियों की विशेषताओं की तथ्यात्मक प्रस्तुति की जाये।
पारिवारिक पृष्ठभूमि
गीता में कुलधर्म को ही शाश्वत और सनातन कहा गया है। अत: कुलों की परम्परा का विशेष महत्व है। आधुनिक काल में उसे ही 'बैकग्राउंडÓ कह दिया जाता है। दोनों ही विभूतियों की पारिवारिक पृष्ठभूमि को जानना चाहिये।
जवाहरलाल नेहरू के पितामह गंगाधार नेहरू ईस्ट इंडिया कंपनी के अधीन कंपनी के दिल्ली के किले के कोटवाल थे। कोट संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ है दुर्ग या किला या गढ़। वर्तमान में जहां  दिल्ली विश्वविद्यालय है, वहां पर ही कंपनी के महाप्रबंधक की बड़ी कोठी थी, उसके ही वे रक्षक थे। साथ ही आस-पास के संपूर्ण इलाके में कंपनी के हितों की देखभाल उनका मुख्य काम था। परम्परा से कोली जाति के लोग ही कोटवाल होते रहे हैं, परंतु कोलियों ने अंग्रेजों के यहाँ सेवा देना स्वीकार नहीं किया। अपनी परिस्थितियों के कारण गंगाधार ने कश्मीरी ब्राह्मण होते हुये भी कंपनी की यह नौकरी स्वीकार कर ली। जैसे कि राममोहन राय ने कोलकाता में की थी। राममोहन राय को उसके कारण राजा की उपाधि मिली। तो उससे भी यह बात फ़ैली कि कम्पनी की सेवा करने पर वे बड़ा ओहदा देते हैं परंतु जब 1857 ईस्वीं में भारत के धर्मनिष्ठ राजाओं ने कम्पनी के लोगों को दुष्ट पाकर मारकर भगाना शुरू किया और दिल्ली तक जा पहुंचे तो क्षुब्ध लोगों की एक टुकड़ी ने गंगाधार जी का घर लूट लिया और जलाने की भी कोशिश की। गंगाधार जी छिपकर, बचकर कानपुर पहुंचे और फिर आगरा गये। आगरा में ही मोतीलाल का विकास हुआ। कानपुर से उन्होंने 1883 ईस्वीं में 22 वर्ष की उम्र में वकालत पास की और 3 वर्ष बाद इलाहाबाद जाकर अंग्रेजों के द्वारा नये बनाये गये हाईकोर्ट में वकालत शुरू की। तब उन्हें एक मुकदमे की कुल फीस पांच रूपये मिलती थी जो वर्तमान में लगभग 5000 रुपये कही जायेगी, परंतु हाईकोर्ट के वकीलों की वर्तमान फीस एक लाख रूपये तक है। अत: स्पष्ट है कि प्रारंभ में गंगाधार जी मेहनत की कमाई खा रहे थे। इसी समय जब मोतीलाल 28 वर्ष के थे, उनके पुत्र जवाहर लाल नेहरू का जन्म 14 नवंबर 1889 ईस्वी में एक साधारण से मकान में हुआ।
भाग्यशाली जवाहर
जवाहर लाल एक भाग्यशाली शिशु थे। उनके जन्म के समय तक पिता की स्थिति साधारण थी। जो लोग कहते हैं कि वे चांदी का चम्मच मुँह में लेकर पैदा हुये थे, वे अनावश्यक चाटुकारिता करते हैं और उनकी वास्तविक विशेषता को छिपाते हैं। सच यह है कि जवाहर लाल बहुत साधारण परिस्थिति में पैदा हुये और बड़ा भाग्य लेकर पैदा हुये। उनके जन्म के तत्काल बाद से पिता की आय कई गुनी बढ़ने लगी और 11 वर्षोर्ं बाद पहली बार अपना मकान खरीदने में मोतीलाल सफल हुये। 1858 ईस्वीं में दिल्ली से उजड़ा हुआ पारिवारिक आवास 42 वर्षों बाद प्रयागराज में पुन: प्राप्त हुआ।
पिता मोतीलाल जी ने आसपास के फ़ूलपुर, मेजा और करछना तथा जारी-कांटी आदि इलाको के कुछ जमीदारों के मुकदमे लिये क्योंकि अंग्रेजों की शह से झूठे मुकदमे दायर किये जाकर 1857 में अंग्रेजों के विरूद्ध सक्रिय लोगों की जमीन छीन ली जाती थी। परंतु यह कार्य मुकदमा चलाकर किया जाता था ताकि कोई विद्रोह न फैले, तो मोतीलाल जी ने उन जमीदारों की पैरवी की और उसमें अच्छी खासी फीस मिलने लगी। तब 13 वर्षों की वकालत की कमाई के बाद 1900 ईस्वीं में (जब जवाहर लाल 11 वर्ष के थे और पिता 39 वर्ष के) उन्होंने अपने मित्र अंग्रेजों के कहने पर 1857 ईस्वीं में ही अंग्रेजों का साथ देने वाले एक मुसलमान संम्पन्न व्यक्ति की कोठी चर्च रोड, सिविल लाईन्स इलाहाबाद में खरीदी। कोठी का नाम महमूद मंजिल था। मोतीलाल जी ने उसका नाम आनन्द भवन रखा। मोतीलाल जी अंग्रेजों के परम मित्र थे और उनके कहने पर ही कांग्रेस में सक्रिय हुये। वे कांग्रेस के अंग्रेज समर्थक गुट के साथ रहे।
इनर टेम्पल में दीक्षा और ट्रिनिटी की शपथ
जवाहर लाल को घर में ट्यूटर से पढ़ाई कराने के बाद मोतीलाल जी ने बेटे को पक्का अंग्रेज बनने के लिये हैरो पब्लिक स्कूल, लंदन भेजा। लंदन में वे बाद में इनर टेम्पल नामक ईसाई दीक्षाग्रह में दीक्षित होकर ट्रिनिटी कॉलेज में पढ़ने लगे। ट्रिनिटी का अर्थ है - 'होली फ़ादरÓ, दि ऑनली सन और होली स्पिरिट या पवित्र प्रेतात्मा। इन तीनों के प्रति समर्पण। ट्रिनिटी कॉलेज से उन्होंने वकालत पास की और फिर भारत आकर वकालत करने लगे तथा साथ ही कांग्रेस में भी सक्रिय हुये। राजनीति की दीक्षा पिता से प्राप्त की और जब पिता ने कुछ समय के लिये कांग्रेस का त्यागकर 'खिलाफ़त स्वराजÓ पार्टी बनाई, तब भी वे पिता की सलाह के अनुसार कांग्रेस में ही रहे। पिता की पार्टी को अंग्रेजों द्वारा बनाई गई केन्द्रीय असेम्बली में भारी सीटें मिलीं। परंतु फिर बाद में 'डोमिनियनÓ स्वराज की पार्टी की मांग अस्वीकार होने पर मोतीलाल जी ने असेम्बली से इस्तीफ़ा दे दिया और कांग्रेस से पुन: जुड़ गये। कुछ समय बाद वे कांग्रेस के अध्यक्ष बनें। वे 10 वर्षों के भीतर दो बार कांग्रेस के अध्यक्ष बनें। जिसके बाद जवाहर लाल नेहरू कांग्रेस के अध्यक्ष हुए और 6 वर्षों के भीतर जवाहरलाल दुबारा भी अध्यक्ष हुए।
वीर सावरकर की पारिवारिक पृष्ठभूमि
विनायक दामोदर सावरकर नासिक के पास भगुर गांव में 28 मई 1883 को पैदा हुये। वे जवाहर लाल जी से साढ़े छ: वर्ष बड़े थे। उनके पिता दामोदर सावरकर एक धर्मनिष्ठ ब्राह्मण थे। गणेश सावरकर और नारायण सावरकर - ये दो उनके भाई थे। गणेश उनसे 10 वर्ष बड़े थे और नारायण 5 वर्ष छोटे। तीनों ही भाई प्रचंड देशभक्त और क्रांतिकारी थे और तीनों को ब्रिटिश सरकार ने बहुत यातनायें दीं।
हाईस्कूल में ही गणेश और विनायक ने मिलकर 'अभिनव भारतÓ नामक संस्था बनाई और विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार किया तथा विदेशी वस्त्रों को जलाने का एक बड़ा आयोजन किया जिसमें उस समय के सर्व पूज्य राष्ट्रीय नेता लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक मुख्य अतिथि थे।
कुछ समय बाद विनायक महान क्रांतिकारी श्याम जी कृष्ण वर्मा द्वारा स्थापित छात्रवृत्ति प्राप्त कर विधि के अध्ययन के लिये लंदन गये और वहाँ इंडिया हाऊस में रहकर 'फ्री इंडियाÓ नामक संस्था से जुड़े। 1907 ईस्वीं में उन्होंने भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की हीरक जयंती का भव्य आयोजन किया और उसमें अपने विस्तृत और प्रामाणिक वक्तव्य के द्वारा यह सिद्ध किया कि 1857 ईस्वीं में हुआ संग्राम भारत का स्वाधीनता आंदोलन था, न की सिपाहियों का कोई विद्रोह। बाद में इसी नाम से एक पुस्तक भी उन्होंने लिखी। जिसके प्रकाशन पर इंग्लैंड और भारत दोनों जगह प्रतिबंध लगा दिया गया। बाद में पेरिस से वह पुस्तक प्रकाशित हुई।
रचित साहित्य
दोनों विभूतियों द्वारा जीवनकाल में लिखी गई पुस्तकों के विषय में तुलनात्मक दृष्टिपात उचित होगा। श्री जवाहर लाल नेहरू ने कुछ चि_ियां अपनी बेटी के नाम लिखीं जो 1929 ईस्वीं में प्रकाशित हुईं, जब वे 40 वर्ष के थे। इसके बाद उन्होंने 44 वर्ष की उम्र में 'विश्व इतिहास की एक झलकÓ अंग्रेजी में प्रकाशित की। उसके तीन साल बाद 47 वर्ष की उम्र में उन्होंने आत्मकथा लिखी और फिर 9 वर्ष बाद 56 वर्ष की उम्र में उन्होंने अंग्रेजी में ही 'भारत की खोजÓ लिखी जो 1945 में प्रकाशित हुई। नेहरू जी कुल 75 वर्ष जिए। 18 वर्ष उन्होंने भारत के प्रधानमंत्री का दायित्व सम्हाला। जीवन में उन्हें अधिकांश समय भरपूर सुख मिला और राज्य का ऐश्वर्य मिला।
वीर सावरकर कुल 83 वर्ष जिए। जीवनभर उन्हें राक्षसों के उग्र विरोध के लिये भयंकर यातनायें सहनी पड़ी और 15 अगस्त 1947 के बाद लगभग 18 वर्ष उन्होंने लगभग एकांत में अध्ययन और लेखन करते हुये तथा देशभक्तों को प्रेरणा देते हुये तपस्वी जीवन जिया। उनके द्वारा रचित साहित्य विराट है। उनका लिखा सर्वाधिक महत्वपूर्ण पहला ग्रंथ है - 'भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्रामÓ24 वर्ष की वय में यह महान ग्रंथ लिख दिया गया था। यह इतना प्रामाणिक और महत्वपूर्ण ग्रंथ था कि इसके बाद किसी भी यूरोपीय लेखक ने 1857 के महान समर को सिपाही विद्रोह या गदर जैसा गंदा और झूठा नाम देने की हिम्मत नहीं की। केवल भारत के कम्युनिस्टों ने कांग्रेस के संरक्षण में भारत की पाठ्य पुस्तकों में इन नामों को जीवित रखा।
अंडमान की काल कोठरी में रहते हुये उन्होंने मराठी की अत्यन्त श्रेष्ठ कवितायें लिखीं। इसके बाद उन्होंने 'हिन्दुत्व, 'हिन्दू पदपादशाही, 'उ:श्राप, 'उत्तरक्रिया, 'संन्यस्त खड्ग, 'मेजिनीचरित्र, 'भारतीय इतिहास के छ: स्वर्णिम पृष्ठÓ आदि अनेक महत्वपूर्ण ग्रन्थों की रचना की। उनके द्वारा लिखे गये चारों नाटक संगीत उ:श्राप, बोधिवृक्ष, संगीत संन्यस्त खड्ग, संगीत उत्तरक्रिया अपनी श्रेष्ठ नाट्य वस्तु और शिल्प के लिये प्रसिद्ध हैं। इसके साथ ही लेखों का संग्रह 'गरमागरम चिवड़ा में 22 लेख समकालीन राष्ट्रीय जीवन पर हैं और 15 लेख गांधी जी की राजनैतिक गलतियों पर 'गांधी आपाधापी के नाम से संकलित हैं। भारत की प्राचीन और आर्वाचीन महिलाओं के विषय में तथा विश्व की वर्तमान महिलाओं में से रूसी, यहूदी, चीनी, इटली और अबीसीनियाई विशिष्ट स्त्री विभूतियों के विषय में उनके लेख अत्यंत प्रभावशाली हैं। उन्होंने बाईबिल को उद्धतकर उसमें अन्तर्निहित स्त्री विरोध को उजागर किया।
'चर्च में महिलाएँ मौनव्रत धारण करें, क्योंकि वहाँ बातें करने की उन्हें आज्ञा नहीं है। अज्ञान ही उनका मूलभूत स्वभाव-धर्म है। अत: जो कुछ सीखना-सँवरना है, वह घर में बैठकर सीखें। अपने पति से उन्हें पढ़ना चाहिए, क्योंकि चर्च में वार्तालाप करना स्त्रियों के लिये लज्जास्पद है। पत्नियों, अपने पति को ही अपने सर्वस्व का स्वामी समझो। जिस तरह ईसा मसीह जगत्पति है, उसी तरह पति-पत्नी का नेता है, स्वामी है। आदम के पश्चात ईव उत्पन्न हो गई। पुरुष ज्येष्ठ, स्त्री मूलत: कनिष्ठ, फिर भी आदम (प्रथम पुरुष) धोखे में नहीं आया। ईव 'पहली स्त्री ही पहले धोखा खा गई।
आदम और ईव की सारी गाथा का विश्लेषण कर उन्होंने उसे स्त्री विरोधी मानसिकता का परिणाम बताया। उन्होंने ईसाइयत के इस प्रावधाान को स्त्री को चिरकाल के लिये दासी बनाने की कठोर भावना से परिचालित बताया। इसके बाद उन्होंने इस बात पर चुटकी ली कि 'बेचारा कैथोलिक पंथ मध्ययुग में स्त्री विरोध का डंका बजाता रहा परंतु वहां कई सुन्दर ललनाओं के दांत, केश एवं वर्ण के बीमे कई प्रमुख प्रधानमंत्रियों के जीवन बीमाओं से भी अधिक राशि देकर किये जा रहे हैं और कई अभिनेत्रियों का वेतन प्रमुख बिशपों के वेतन से अधिक होता है। उनके छायाचित्रों की प्रतियाँ पोप के छायाचित्रों की प्रतियों से लाख गुना अधिक बिकती हैं। इस प्रकार अब यूरोप की नीति लावण्य की दासी हो रही लम्पटता के अतिरेक तक पहुंच गई है।
वीर सावरकर ने बड़े तेजस्वी जातिभंजक निबंध लिखें और जातिभेद को ही सनातन धर्म का मर्म बताने वालों का विद्ववतापूर्ण खंडन किया। उन्होंने छत्रपति शिवाजी महाराज, महाराणा प्रताप, गुरू गोविन्द सिंह, देशभक्त श्यामजी कृष्ण वर्मा, देशवीर शचीन्द्रनाथ सान्याल, वीर युवक शशिमोहन डे, भारतवीर श्रीराम राजू, देशवीर विष्णु गणेश पिंगले, जतीन्द्रनाथ, भगत सिंह, सुखदेव, बटुकेश्वर दत्त, लाल हरदयाल, वासुदेव बलवन्त फड़के, लोकमान्य तिलक आदि शताधिक महान विभूतिओं पर अत्यन्त भावपूर्ण और तथ्यपूर्ण लेख लिखे।
अंग्रेजों के वास्तविक विरोध में प्राप्त दंड एवं यातना
जवाहर लाल नेहरू और वीर विनायक सावरकर दोनों ने ही अपने-अपने स्तर पर अंग्रेजों का विरोध किया। जवाहर लाल जी को अंग्रेजों के वास्तविक विरोध के लिये कुल तीन बार राजनैतिक कैदी के रूप में सजा दी गई। पहली बार 14 अप्रैल 1930 से 11 अप्रैल 1930 तक छ: महीने की सजा दी गई। सविनय अवज्ञा आंदोलन, कांग्रेस द्वारा प्रारंभ करने की घोषणा के कारण उन्हें गिरफ्तार किया गया। यह वस्तुत: अंग्रेजों का विरोध नहीं था अपितु कांग्रेस का कहना यह था कि हम आपकी आज्ञाकारी प्रजा हैं और आपके सभी कानूनों का आज्ञाकारिता से पालन करते रहे हैं। परंतु यह नमक बनाने पर प्रतिबंध वाला कानून हम विनम्रतापूर्वक तोड़ रहे हैं। इस प्रकार हम ब्रिटिश शासन की आज्ञाकारी प्रजा रहते हुये ही इस विशेष कानून के संदर्भ में पूरी विनय के साथ अवज्ञा कर रहे हैं। दूसरी बार उन्हें वस्तुत: विश्वयुद्ध के समय अंग्रेजों की रणनीति के अंतर्गत गिरफ्तार किया गया। जवाहर लाल जी ने सार्वजनिक तौर पर यह घोषणा की थी कि वे इस महायुद्ध या विश्वयुद्ध में पूरी तरह अंग्रेजों के साथ और इंग्लैंड एवं फ्रांस के साथ हैं और भारतीय नवयुवक बड़ी से बड़ी संख्या में इस युद्ध में लड़ने के लिये अंग्रेजों की सेना में भर्ती हों, यह प्रचार वे कर रहे थे। गांधी जी का इस विषय में नेहरू से विरोध था। 'वार केबिनेट के सचिव स्टफ़ेर्ड क्रिप्स से जवाहर लाल जी के बहुत आत्मीय संबंध थे। अंग्रेजों द्वारा युद्ध के बाद निश्चित रूप से स्वाधीनता दिये जाने का लिखित करार नहीं करने पर जब कांग्रेस ने घोषणा की कि अब हम इस युद्ध में भारतीयों को भर्ती करने के काम में सहयोग नहीं देंगे और अंग्रेज लोग जगह-जगह हर स्वस्थ भारतीय नौजवान को पकड़कर जबरन सेना में भर्ती कर रहे हैं, इसका विरोध करेंगे तो मंत्रिमंडल ने मुख्य कांग्रेसी नेताओं को तत्काल गिरफ्तार करना शुरू किया और उसमे जवाहर लाल नेहरू भी पकड़े गये। यद्यपि नेहरू पूरी तरह इंग्लैंड के समर्थक सार्वजनिक रूप से थे। ऐसा लगता है कि पकड़े गये लोगों को देशभक्त माना जायेगा, भारतीय जनमानस के विषय में यह गुप्त सूचना प्राप्त होने पर ही अंग्रेजों ने नेहरू को भी 13 महीने के लिये जेल में डाल दिया। वस्तुत: सीधे ब्रिटिश विरोध के लिये उन्हें वास्तविक सजा 1942 में मिली, जब नेताजी सुभाषचन्द्र बोस और उनकी आजाद हिंद फौज के प्रति देशभर में उमड़ते उत्साह को देखकर गांधी जी ने भी 'अंग्रेजों भारत छोड़ो का नारा दिया तो युद्ध से बौखलाये और हार सर पर देखकर बुरी तरह क्षुब्ध अंग्रेजों ने 8 अगस्त की रात को जवाहर लाल नेहरू को भी गिरफ्तार कर लिया। भारतीयों को युद्ध के लिये भर्ती कराने का काम वे पूरा कर चुके थे और युद्ध पूरी भीषणता से मध्य पूर्व से यूरोप तक फ़ैला हुआ था। उधार नेताजी सुभाषचन्द्र बोस जापान के सहयोग से विजयी होते दिख रहे थे और इस बात की आशंका थी कि कोई नेताजी का समर्थक व्यक्ति कांग्रेसियों को मार सकता है या पीट सकता है। इसलिये सुरक्षा की दृष्टि से लगभग 3 साल के लिये गांधी जी और नेहरू जी आदि को राजनैतिक कैदी के रूप में बंद कर दिया गया। जबकि यह लगभग सुनिश्चित हो गया था कि युद्ध के बाद अंग्रेजों को जाना ही होगा क्योंकि अमेरिकी राष्ट्रपति का प्रबल आग्रह था कि युद्ध में साथ देने वाले भारत को पूर्ण स्वाधीनता देनी होगी और अंग्रेजों को भारत से हटना होगा। ऐसी स्थिति में जिन लोगों को सत्ता का ट्रांसफ़र करना है, उनकी प्रतिष्ठा देश में बनाना आवश्यक है, इसलिये यह गिरफ्तारी की गई। क्योंकि वस्तुत: उसके बाद कांग्रेस के नेताओं का भारतीय जनमानस पर कोई नियंत्रण नहीं रह गया था और भारत छोड़ो आंदोलन टांय-टांय फ़िस्स हो गया था। इस प्रकार एक अर्थ में यह राजनैतिक जेल अंग्रेजों की और कांग्रेस की साझा रणनीति थी। फिर भी यह मानना होगा कि कुल मिलाकर 3 बार में लगभग साढ़े चार वर्ष जवाहर लाल जी ने राजनैतिक सजा प्राप्त की। इसके अतिरिक्त 6 बार वे अन्य कारणों से जेल गये। पहली बार तो वे 3 महीने के लिये इसलिये बंद कर दिये गये क्योंकि 1857-58 ईस्वीं में प्रयागराज में अंग्रेजों का उग्रतम विरोध हुआ था और वहाँ सैकड़ों लोगों को अंग्रेजों ने खुलेआम नीम और पीपल के पेड़ों पर लटकाकर फ़ांसी दी थी और कई दिनों तक शवों को पेड़ों पर झूलने दिया गया था। इसलिये 1921 ईस्वीं में जब प्रिंस ऑफ़ वेल्स भारत आ रहे थे तो प्रयागराज के लोगों ने उनके स्वागत की कोई तैयारी नहीं की और बहिष्कार किया। इसके लिये प्रयागराज के अनेक प्रमुख लोगों को गिरफ्तार किया गया जिनमें एक जवाहर लाल जी भी थे और उनके पिताजी भी थे। इसी प्रकार दूसरी बार उन्हें 1922 में तब गिरफ्तार किया गया जब वे अपने पिता से मिलने नैनी जेल पहुंचे। तीसरी बार उन्हें नाभा रियासत (पंजाब) में स्थानीय राजा के विरूद्ध प्रदर्शन करने के लिये और सनातन धर्म के मंहतों के विरूद्ध प्रदर्शन करने के लिये 12 दिन की सजा मिली। इस सजा का अंग्रेजों से कोई संबंध नहीं था। 3 बार उन्हें किसानों को जमीदारों के विरूद्ध भड़काने के लिये जमीदारों के द्वारा गिरफ्तार किया गया और अंग्रेजों के हवाले कर दिया गया। इन सजाओं का भी ब्रिटिश शासन से कोई संबंध नहीं था। इस प्रकार ये 6 बार की सजायें ब्रिटिश शासन के विरोध से कोई संबंध नहीं रखतीं। 32वें वर्ष से 56वें वर्ष की आयु के बीच कुल 24 वर्षों में कुल साढे 4 वर्ष बहुत सौम्य किस्म की सजा अंग्रेजों के विरोध के रूप में जवाहर लाल जी को दी गईं।
सावरकर जी का ब्रिटिश विरोध
विनायक दामोदर सावरकर को जुलाई 1910 में 27 वर्ष की उम्र में पहली बार खतरनाक राजद्रोही घोषित कर ब्रिटिश शासन ने लंदन के रेलवे स्टेशन पर गिरफ्तार किया और 1924 ईस्वीं तक यानी 14 वर्षों तक उन्हें जेल में कठोरतम यातनायें दी गईं। उनके पैरों में सदा बेड़िया रहती थीं, उन्हें काल कोठरी में रखा जाता था, उनसे बेड़ी पहने-पहने कोल्हू में बैल के स्थान पर पेरा जाता था और दिनभर उनसे कोल्हू पिरवाया जाता था। बीच-बीच में कोड़े बरसाये जाते थे। खाने को बहुत ही रूखा और खराब किस्म का खाना दिया जाता था और वह भी न्यूनतम मात्र में। उन्हें भांति-भांति से मानसिक यातनायें भी दी गई। इसके बाद 1924 से 1937 ईस्वीं तक 13 वर्ष उन्हें एक स्थान पर ही नजरबंद रखा गया। इस प्रकार 27 वें वर्ष से 54 वे वर्ष तक कुल 28 वर्ष उन्हें राजनैतिक रूप से कार्य कर सकने की स्थिति से बाहर रखा गया। बलपूर्वक वे सार्वजनिक जीवन से पूरी तरह बाहर रखे गये। इसके बाद भी देश में उनका जवाहर लाल से कई गुना अधिक यश और प्रभाव था और है।
राजनैतिक सक्रियतायें
अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी अंग्रेजों की प्रेरणा और संरक्षण से और घोषित रूप से उनकी सहायता और सेवा के लिये बनाया गया राजनैतिक दल था जिसे लोकमान्य तिलक, विपिनचन्द्र पाल, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, लाला लाजपत राय, रासबिहारी घोष, एनी बेसेंट, चितरंजन दास, सुभाषचन्द्र बोस जैसे नेताओं ने तेजस्वी स्वरूप देने का प्रयास किया। परंतु लोकमान्य तिलक की मृत्यु के बाद अंग्रेजों ने अपने मित्रों मोतीलाल नेहरू, गांधी जी और जवाहर लाल नेहरू आदि को पुन: कांग्रेस के शीर्ष पर प्रतिष्ठित होने में सहयोग किया। जवाहर लाल जी के पिता मोतीलाल नेहरू 1919 ईस्वीं में अमृतसर कांग्रेस के अधयक्ष बने। उसके पहले तक 35 वर्षों में कुल तीन मुसलमान - बदरूद्दीन तैयब, सैयद मोहम्मद बहादुर तथा हसन इमाम ही कांग्रेस के अध्यक्ष बन सके थे। मोतीलाल जी की पहल से आनंद भवन में हिन्दुओं और मुसलमानों के प्रतिनिधियों की एक साझा बैठक हुई और पहली बार हिन्दुओं तथा मुसलमानों ने मिलकर संयुक्त रूप से अंग्रेजों से सत्ता का ट्रांसफ़र करवाने के लिये संयुक्त रणनीति बनाने की घोषणा की। जिसे लखनऊ पैक्ट में अधिकृत रूप से घोषित किया गया। उसके बाद अगले 10 वर्षों में अर्थात् 1919 से 1928 ईस्वीं के बीच चार मुसलमान कांग्रेस के अध्यक्ष हुये - हकीम अजमल खान, मोहम्मद अली, अबुल कलाम आजाद और मुख्तार अहमद अंसारी। 1928 ईस्वीं में मोतीलाल नेहरू दुबारा कांग्रेस के अध्यक्ष बनें और उसके अगले वर्ष जवाहर लाल नेहरू लाहौर अधिवेशन में कांग्रेस के अधयक्ष बनें। 1929 से 1954 ईस्वीं तक 25 वर्षों में 10 वर्ष जवाहर लाल जी कांग्रेस के अध्यक्ष रहे। कांग्रेस विश्वभर में प्रसिद्ध और प्रतिष्ठित संस्था थी तथा अंग्रेजों के सहयोगी संगठन के रूप में प्रख्यात थी। दोनों ही महायुद्धों में अंग्रेजों के लिये भारतीय नौजवानों को भर्ती कराने का काम कांग्रेस के नेताओं ने किया था। 15 अगस्त 1947 से 26 जनवरी 1950 तक भारत एक डोमिनियन राज था। जिसके स्वामी जार्ज षष्ठम थे। उस समय भारत के वायसराय की कार्यकारिणी परिषद के उपाध्यक्ष श्री जवाहर लाल नेहरू थे और उस नाते ही वे जार्ज षष्ठम की ओर से भारत के प्रधानमंत्री थे। वेबेल और माउंटबेटन क्रमश: उनके अध्यक्ष रहे, जिनके अधीन उपाध्यक्ष के रूप में श्री नेहरू भारत के प्राईम मिनिस्टर थे। अंग्रेजों के कहने पर ही गांधी जी ने कांग्रेस कार्यकारिणी और कांग्रेस प्रांतीय कमेटियों की सर्वसम्मत राय के विपरीत जाकर सरदार पटेल की जगह और आचार्य कृपलानी की भी उपेक्षा करते हुये जवाहर लाल को भावी प्रधानमंत्री बनने के निश्चित निर्णय के अनुपालन में 1946 ईस्वीं में कांग्रेस अध्यक्ष बनवाया था। पुन: 1951 ईस्वीं में जब पहले आम चुनाव घोषित हुये, उस समय जवाहर लाल जी ने अपने से भिन्न विचार रखने वाले राजर्षि पुरूषोत्तम दास टंडन को कांग्रेस से और राजनीति से हटने को विवश किया और स्वयं कांग्रेस अध्यक्ष बन गये तथा पांच वर्षों तक प्रधानमंत्री और कांग्रेस अध्यक्ष साथ-साथ रहे। बाद में अपने शिष्य यू.एन. ढेबर को अध्यक्ष बनवाया और उसके बाद अपनी बेटी इंदिरा गांधी को 2 बार कांग्रेस अध्यक्ष अपने जीवनकाल में ही बनवाया। इसके साथ ही प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए जवाहर लाल जी को 1955 ईस्वीं में भारत रत्न दिया गया। प्रथम आम चुनाव में कांग्रेस को कुल 45 प्रतिशत वोट मिले और वह 364 सीटें जीतकर सबसे बड़ी पार्टी बनी। दूसरे नम्बर पर अजय घोष की कम्युनिस्ट पार्टी 3 प्रतिशत वोट ही पाने के बावजूद 16 सीटों के साथ आई और तीसरे नंबर पर जयप्रकाश नारायण की सोशलिस्ट पार्टी आई जिसे लगभग 11 प्रतिशत मत मिले थे परंतु सीटें केवल 12 मिल पाई। इस तरह अपने वास्तविक वैचारिक विरोधियों को जिनमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, वीर सावरकर, हिन्दू महासभा और रामराज्य परिषद को रणनीति और कूटनीति के द्वारा प्रतिस्पर्धा के दायरे से बाहर फेंककर जवाहर लाल जी ने अपने विरोध में भी अपने मित्रों और शिष्यों को ही आगे बढ़ाया। वे 27 वर्षों तक भारत के एक छत्र शासक रहे।
विनायक दामोदर सावरकर ने 22 वर्ष की उम्र में अभिनव भारत संस्था का गठन अपने भाइयों के साथ मिलकर किया और लोकमान्य तिलक का आशीर्वाद प्राप्त किया तथा विदेशी वस्त्रों की होली जलाई और विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार किया। 24 वर्ष की आयु में वे लंदन में क्रांतिकारियों के प्रेरणास्रोत और मार्गदर्शक बने तथा 1857 ईस्वीं की क्रांति का स्वर्ण जयंती समारोह आयोजित किया। जिसमें सैकड़ों देशभक्त भारतीय शामिल हुये। डेेेढ़ हजार से अधिक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक ग्रंथों का अध्ययन कर 'भारतवर्ष का प्रथम स्वातंर्त्य समर नामक गौरव ग्रंथ लिखा। अगले 3 वर्षों की राजनैतिक गतिविधियों के कारण उन्हें तथा उनके दोनों भाइयों को ब्रिटिश सरकार ने राजद्रोही घोषित कर दिया।
1937 ईस्वीं में नजरबंदी समाप्त होने के बाद उन्होंने हिन्दू महासभा की अध्यक्षता की और देशभर में हिन्दू संगठनों को नई तेजस्विता और ऊर्जा प्रदान करते रहे तथा शासन के द्वारा लगातार दमन का सामना करते हुये लोकमानस का उन्मेष संभव किया। देशभर में हिन्दुत्व का भाव प्रबलतर और गहनतर होता गया। जबकि शिक्षा और संचार माध्यमों में सोवियत संघ के ही विचारों को बढ़ावा दिया जाता है और भारत को एक पिछड़ा तथा सामंतवाद में जकड़ा समाज प्रचारित किया जाता रहा। परंतु वीर सावरकर ने भारत के आत्म गौरव को प्रदीप्त रखा। यही वीर सावरकर और जवाहर लाल जी में अंतर है।

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