स्वराज के मंत्र दाता महर्षि दयानन्द सरस्वती
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महामहोपाध्याय डॉ. महावीर
प्रति-कुलपति, पतंजलि विश्वविद्यालय
जब हमारा देश भारत पराधीनता की दुर्दशा में जकड़ा हुआ था। बहुजनों के लिए शिक्षा के द्वार बन्द हो चुके थे। जाति प्रथा ने विषैले सांप की तरह समाज को चारों ओर से घेर लिया था। हजारों जातियों-उपजातियों में देश बटा हुआ था। अस्पृश्यता को अमानवीय स्वरूप प्राप्त हो गया था। बाल-विवाह खुल्लम खुल्ला, बेधडक़ और बेखटके हो रहे थे। विधवा नारियों की दैन्यावस्था तथा करूण-क्रन्दन की कोई सीमा नहीं रह गई थी। अज्ञान-अन्धकार और पाखण्ड का दानव समाज को निगल रहा था। हिन्दु समाज की अवस्था जीर्ण वस्त्रों की तरह हो चुकी थी। उसकी प्रतिकार शक्ति समाप्त हो चुकी थी। हताशा-निराशा और मायूसी अपनी चरम सीमा पार कर चुकी थी। स्त्री-शूद्र्रों की दशा अत्यन्त दयनीय थी। देश की इस अवस्था को देखकर दया के सागर दयानन्द का हृदय द्रवित हुआ। किसी पर्वत पर या सरिता के तटपर एकान्त-शान्त स्थान में समाधिस्थ होकर मुक्ति की साधना में स्वयं को पूर्णरूप से समर्पित न कर राष्ट्र सेवा में, स्वराज्य का शंखनाद करने और देश के सोये हुए स्वाभिमान और गौरव का जगाने के लिए ऋषिवर दयानन्द ने अपने जीवन की आहूति दे दी, इसीलिए श्रीमति एनी बेसिेंट ने कहा था-
‘जब स्वराज्य का मन्दिर बनेगा तब उसमें बड़े-बड़े नेताओं की मूर्तिया होंगी, और सबसे ऊंची मूर्ति दयानन्द की होगी।’
महान क्रान्तिकारी स्वातन्त्रय वीर सावरकर ने कहा था- ‘‘महर्षि दयानन्द स्वाधीनता संग्राम के सर्वप्रथम योद्धा और हिन्दु जाति के रक्षक थे।’’
लोकमान्य तिलक ने स्वामी जी के विषय में लिखा-
‘‘ऋषि दयानन्द जाज्वल्यमान नक्षत्र थे, जो भारतीय आकाश पर अपनी अलौकिक आभा से चमके और गहरी निद्रा में सोये हुए भारत को जाग्रत किया। वे स्वराज्य के सर्वप्रथम संदेशवाहक तथा मानवता के उपासक थे’’
11 नवम्बर 1950 को ऋषि निर्वाणोत्सव पर श्रद्धांजलि देते हुए लौह पुरूष सरदार पटेल ने कहा था- ‘‘स्वामी दयानन्द का सबसे बड़ा योगदान यह था कि उन्होंने देश को किंकर्त्तव्यमूढ़ता के गहरे गड्ढ़े में गिर जाने से बचाया। उन्होंने भारत की स्वाधीनता की वास्तविक नींव डाली थी।’’
महर्षि दयानन्द ने अपने अमर ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश के आठवें समुल्लास में स्वराज्य की घोषणा करते हुए लिखा था ‘‘आर्यावर्त्त में आर्यों का अखण्ड स्वतन्त्र स्वाधीन निर्भय राज्य इस समय नहीं है। जो कुछ है सो भी विदेशियों के पदाक्रांत है, कुछ थोड़े से राजा स्वतन्त्र हैं। दुर्दिन जब आता है तब देशवासियों को अनेक प्रकार का दु:ख भोगना पड़ता है, कोई कितना ही करे परन्तु स्वदेशी राज्य सर्वोपरि उत्तम होता है, अथवा मतमतान्तर के आग्रह रहित अपने पराये का पक्षपात शून्य प्रजा पर माता-पिता के समान कृपा, न्याय और दया के साथ विदेशियों का राज्य पूर्ण सुखदायी नहीं।’’
पूर्ण स्वराज्य की इससे अधिक सुस्पष्ट अवधारणा और क्या हो सकती है। महर्षि ने सत्यार्थ प्रकाश वेदभाष्य, आर्याभिविनय आदि अपनी कालजयी रचनाओं में स्वराज्य के सम्बन्ध में जो स्पष्ट विचार रखे हैं उनको पढक़र यह मानने में कोई सन्देह नहीं रह जाता कि स्वामी दयानन्द ही स्वराज्य के सर्वप्रथम उद्गाता या मन्त्रदाता थे।
इतिहास साक्षी है कि महात्मा गांधी को स्वतन्त्रता का पाठ पढ़ाने वाले गोपाल कृष्ण गोखले थे। गोपाल कृष्ण गोखले को देशभक्ति की प्रेरणा महादेव रानाड़े से मिली थी। महादेव रानाड़े ने देशभक्ति का पाठ स्वामी दयानन्द से पढ़ा था। 1875 ई. में महर्षि दयानन्द जब पूना में प्रवचन दे रहे थे, उन्हीं दिनों श्री रानाड़े का सम्पर्क ऋषिवर से हुआ, और उनके अन्त:करण में देश प्रेम की ज्वाला प्रज्वलित हो उठी।
श्री रानाड़े जी ने श्रीयुत् गोपाल कृष्ण जी गोखले को राष्ट्रीयता का पाठ पढ़ाया और इन्हीं गोखले जी से स्वराज्य की प्रेरणा पाकर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी स्वातन्त्रय समर में कूद पड़े।
दिल्ली के चान्दनी चौक में अंग्रेज सिपाहियों की बन्दूकों के सामने कुरते के बटन खोलकर ‘हिम्मत हो तो चला दो गोलियां, संन्यासी का सीना खुला है’ की सिंह गर्जना करने वाले अमर हुतात्मा स्वामी श्रद्धानन्द, महर्षि दयानन्द के ही परम शिष्य थे।
स्वामी दयानन्द के आविर्भाव से पूर्व स्वराज्य की बात कहने का साहस कोई नहीं कर पाया था। 1906 में दादाभाई नैरोजी ने पहली बार स्वराज्य शब्द का उद्घोष किया, उसके 10 वर्ष बाद लखनऊ कांग्रेस अधिवेशन में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने स्वराज्य को भारतवासियों का जन्म सिद्ध अधिकार घोषित किया। इसके पश्चात् कांग्रेस ने 1929 ई. में लाहौर सम्मेलन में देश की पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए प्रस्ताव पास किया। जबकि ऋषिवर ने इसकी घोषणा 55 वर्ष पूर्व 1874 ई. में ही कर दी थी।
स्वामी जी ने देशवासियों के आत्मगौरव को जागृत करने और पराधीनता की हीन भावना का समूलोच्छेद करने के लिए लिखा था ‘‘यह आर्यावर्त्त देश ऐसा है कि जिसके सदृश भूगोल में दूसरा देश नहीं है। आर्यावर्त्त देश ही सच्चा पारसमणि है, जिसको लोहरूपी विदेशी छूते ही स्वर्ण अर्थात् धनाढ्य हो जाते हैं।’’
इसी प्रकार सत्यार्थ प्रकाश के ग्यारहवें समुल्लास में देश प्रेम की भावना से आप्लावित होकर वे लिखते हैं- ‘‘जिस देश के पदार्थों से अपना शरीर बना, अब भी पालन होता है और आगे भी होगा उसकी उन्नति तन, मन, धन से सबजने मिलकर करें।’’
प्राचीन भारत (आर्यावर्त्त) की महिमा को निरूपित करते हुए अत्यन्त हृदयस्पर्शी शब्दों में देशवासियों के स्वाभिमान को जगाने के लिए वे लिखते हैं-
‘‘सृष्टि से लेके पांच सहस्र वर्षों पूर्व समय पर्यन्त आर्यों का सार्वभौम चक्रवर्ती अर्थात् भूगोल में सर्वोपरि एकमात्र राज्य था। अन्य देशों में माण्डलिक अर्थात् छोटे-छोटे राजा रहते थे, क्योंकि कौरव और पाण्डव पर्यन्त यहाँ के राज्य और राजशासन में सब भूगोल के राजा और प्रजा चलते थे।’’
सत्यार्थ प्रकाश 11 समुल्लास
ऋषिवर अपने व्याख्यानों और लेखों के माध्यम से भारतीयों को स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए दिन-रात प्रेरित करते थे। एकबार दानापुर (बिहार) में जोन्स नामक एक व्यापारी से वात्र्ता करते हुए स्वामी जी कहते हैं- ‘‘यदि भारतवासियों में एकता तथा सच्ची देशभक्ति के भाव उत्पन्न हो जायें तो विदेशी शासकों को अपना बोरिया-बिस्तर उठाकर तुरन्त जाना पड़े’
स्वामी दयानन्द सरस्वती व्यक्तिव एवं विचार पृ. 108
1905 ई. में जब लार्ड कर्जन ने बंगाल का विभाजन करके राष्ट्र के हृदय को आघात पहुँचाया तो क्षोभ और आक्रोश की पूरी शक्ति से वंगभंग आन्दोलन की चिंगारी राष्ट्र के एक कोने से दूसरे कोने तक फैल गई। इस अग्नि का प्रचण्ड रूप पंजाब में स्पष्ट दिखाई दे रहा था। उस समय पंजाब का नेतृत्व कर रहे थे, आर्य समाज को अपनी माता और स्वामी दयानन्द को पिता मानने वाले, वीर लाला लाजपतराय। उनकी सिंह गर्जना के कारण देश ने उन्हें ‘शेरे पंजाब’ कहकर सम्मानित किया।
अंग्रेजों ने उन्हें मांडले के किले में नजरबन्द कर दिया।
सशस्त्र क्रान्ति में योगदान
स्वराज्य प्राप्ति के लिये शान्ति के मार्ग के साथ-साथ सशस्त्र क्रान्ति का भी एक सशक्त आन्दोलन चल रहा था। इसमें अग्रणी भूमिका उन क्रान्तिवीरों की थी जो प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से स्वामी दयानन्द की राष्ट्रवादी चिन्तनधारा से पूर्णरूपेण प्रभावित अथवा प्रेरित थे।
इनमें अग्रणी नाम हैं श्री श्यामजी कृष्ण वर्मा तथा अमर शहीद रामप्रसाद बिस्मिल।
श्री श्यामजी कृष्ण वर्मा ने इंग्लैण्ड में जाकर लन्दन में 1905 में ‘इंडियन हाऊस’की स्थापना करके ‘इंडियन होम रूल सोसायटी’द्वारा वहाँ रहने वाले भारतीय युवकों को स्वाधीनता संग्राम से जुडऩे के लिये प्रेरित किया। आप द्वारा प्रकाशित ‘इंडियन सोशयलोजिस्ट’नामक मासिक पत्र युवकों के लिए राजनीति का धर्मशास्त्र बना हुआ था। इस पत्र में प्रकाशित श्री श्यामजी कृष्ण वर्मा के उत्तेजक विचारों से प्रभावित होकर मदन लाल ढींगरा, भाई परमानन्द, भाई हरदयाल जैसे अनेक युवक आत्म बलिदान के मार्ग पर निकल पड़े थे।
वीर सावरकर स्वयं को महर्षि का शिष्य मानकर अण्डमान कारावास काल में कैदियों को सत्यार्थ प्रकाश पढ़ाया करते थे। इन्हीं सावरकर के शिष्य मदनलाल ढींगरा ने लन्दन में कर्जन वायली को परलोक भेजकर भारत माता के अपमान का बदला लिया था।
देवता स्वरूप भाई परमानन्द महर्षि के विचारों का प्रचार-प्रसार करने विदेश गये थे, जिन्हें देशभक्ति के अपराध में फांसी के बदले काले पानी की यातनाएं सहन करनी पड़ी थी।
इसी तरह स्वामी दयानन्द के अनुगामी स्वामी सोमदेव जी, तथा महर्षि के साहित्य से प्रेरणा पाकर रामप्रसाद बिस्मिल, ठाकुर रोशन सिंह ने सशस्त्र क्रान्ति का मार्ग अपनाया और हंसते-हंसते स्वतन्त्रता की बलि वेदी पर अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दिया।
शहीद ए आजम भगत सिंह के दादा श्री अर्जुन सिंह ऋषि दयानन्द के प्रखर अनुयायी थे। अपने पूज्य दादा से प्रेरित होकर वीर भगत सिंह ने अपने प्रिय साथियों राजगुरू और सुखदेव के साथ ‘इन्कलाब जिन्दाबाद’के नारे लगाते हुए राष्ट्र के लिये अपना सर्वोच्च बलिदान दिया था।
डी.ए.वी. कॉलेज लाहौर में प्रो. जयचन्द विद्यालंकार जो कि गुरूकुल कांगड़ी वि.वि. के प्रखर स्नातक थे। ये क्रान्तिकारियों के गुरू थे। इन्हें कुलपिता स्वामी श्रद्धानन्द ने देशभक्ति का पाठ पढ़ाया था, क्योंकि स्वामी श्रद्धानन्द स्वयं ऋषि दयानन्द के परमभक्त थे।
न केवल स्वाधीनता के महान् आन्दोलन में अपितु भारतीय समाज को सब प्रकार से सशक्त एवं उत्कृष्टतम बनाने के लिये स्वामी दयानन्द ने जो कार्य किये वे भारतवर्ष के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित है। वैदिक समाजवाद के माध्यम से भेद-भाव रहित समता मूलक समाज की स्थापना करना, इस देश को आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक, राजनैतिक क्षेत्रों में विश्व का मूर्धन्य देश बनाने की उदात्त संकल्पना के साथ वे जीवनभर कार्य करते रहे।
ऋषिवर ने गुरूकुलों, कन्या पाठशालाओं के माध्यम से पुरुषों के समान महिलाओं के लिये भी शिक्षा के द्वारा खोल दिये थे। भारत की प्रत्येक बालिका और महिला को गार्गी के समान विदुषी और रानी लक्ष्मीबाई की तरह वीरांगना तथा प्राचीन ऋषिकाओं के समान वेद-विदुषी बनाने की प्रबल इच्छा उनके अन्त:करण में निरन्तर बनी रहती थी।
जिन अवैदिक मान्यताओं, रूढि़वाद, अज्ञान पाखण्ड, बालविवाह, सतीप्रथा, छुआछूत जैसे रोगों ने भारतीय समाज को जर्जर कर दिया था, वे इन रोगों को दूर कर भारत को विश्वगुरू बनाना चाहते थे। बड़े से बड़ा भय या प्रलोभन उन्हें सत्यमार्ग से विचलित नहीं कर पाया था।
आज जबकि हमारा देश जातिवाद, प्रान्तवाद, अत्याचार, अनाचार, भ्रष्टाचार और आतंकवाद के कीचड़ में फंसता जा रहा है, हमारी विश्ववारा वैदिक संस्कृति, सभ्यता, परम्परायें बिखरती हुई दिखाई दे रहे हैं, ऐसे विषम काल में स्वराज्य, स्वदेशी, स्वभाषा का सन्देश देकर राष्ट्र की अस्मिता जगाने वाले महर्षि के विचारों से ही स्वराज्य के साथ रामराज्य का स्वप्न भी साकार हो सकेगा।
आधुनिक भारत का इतिहास जब लिखा जायेगा, तब मोटे-मोटे स्वर्णाक्षरों में स्वामी दयानन्द का नाम लिखा होगा। देश की स्वतन्त्रता के 75 वर्ष पूर्ण होने पर अमृत महोत्सव की ऐतिहासिक वेला पर राष्ट्रवाद, स्वराज्य, स्वधर्म, के उद्गाता, स्वयं विषपान कर कोटि-कोटि देशवासियों को अमृतपान कराने वाले ऋषिवर की मधुर स्मृति को कोटि-कोटि प्रणाम।
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