वैराग्य

वैराग्य

आचार्या डॉ. सुमन, प्रोफेसर -पतंजलि आयुर्वेद महाविद्यालय, हरिद्वार

चित्त की निर्मलता एकाग्रता का मुख्य साधन वैराग्य है। इस लेख में वेदों, उपनिषदों, दर्शनों, मनुस्मृति, रामायण, महाभारत अन्य मनुस्मृति आदि महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों में वर्णित वैराग्यपरक विषयों का अनुशीलन करके वैराग्य विषय पर ध्यान केन्द्रित किया गया है।
वेदों में पदे-पदे ऋषियों द्वारा भगवान् से बन्धन से छूटने की प्रार्थना की गई है यथा-
उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्इस पंक्ति के द्वारा ईश्वर से प्रार्थना की गई है कि जैसे खरबूजा या ककड़ी पकने के बाद बेलरूपी बन्धन से मुक्त हो जाता है, वैसे हमें भी संसार रूपी बन्धन से और जन्म-मरण के चक्र से मुक्त कर। संकल्पित मन से भगवान् की प्राप्ति करके ही सुख प्राप्त होता है, अन्यथा नहीं। इस तथ्य का वर्णन भी वेदों में स्थान-स्थान पर मिलता है। सर्वोत्पादक ईश्वर के उत्पन्न किए इस विश्व में रहकर मन को विषयों की ओर जाने से रोककर एकाग्र तथा बलवान् बनाना चाहिए। क्योंकि योगाभ्यास अर्थात् चित्त की वृत्तियों को रोकने का अभ्यास करने पर ही परमसुख का लाभ मिल सकेगा, किसी भी बड़ी से बड़ी लौकिक सम्पत्ति से नहीं।
यजुर्वेद और अथर्ववेद में तो बहुत स्पष्ट रूप से वर्णन है कि इस संसाररूपी नदी से पार होकर ही जीवन सुखी हो सकता है। यह संसार एक बहुत भंयकर नदी है। इस नदी को पार करना ही मनुष्य का मुख्य उद्देश्य है। बिना वैराग्यरूपी नाव के इस नदी को पार नहीं किया जा सकता। अत: सभी मनुष्यों को इस वैराग्यरूपी नाव में बैठकर इस नदी को पार करना चाहिए। मोहरूप पाशों को तथा मृत्युरूप पाशों को खोलने की बात का तो वेदों में विशद् वर्णन मिलता है।
ईशादि ग्यारह उपनिषदों का मुख्य रूप से संसार से रागासक्ति हटाकर मुक्ति की ओर ले जाना ही वण्र्य विषय है और मुक्ति का परममुख्य साधन ज्ञान और वैराग्य होता है। अत: मुक्ति की कामना करने वाले योगी को उपनिषदों की शरण में जाना चाहिए। ईशोपनिषद्, कठोपनिषद्, मुण्डकोपनिषद्, केनोपनिषद्, छान्दोग्योपनिषद् एवं बृहदारण्यकोपनिषद् तो विशेषरूप से भोगों की तुच्छता का एवं मुक्ति की उपादेयता का वर्णन करते हैं।
दर्शन शब्द से, ज्ञात होता है कि इसमें कितना गूढ़ ज्ञान अन्तर्निहित है। दृश्यते अनेन तात्विकं ब्रह्म आत्मा वेति दर्शनम्।इस संसार में मनुष्य के आने के दो ही प्रयोजन हैं-भोग और अपवर्ग। किन्तु आज मनुष्य एक ही पक्ष पर बल देते हैं-वह है भोग। दूसरे पक्ष अपवर्ग की ओर तो किसी-किसी धीर पुरुष का ही ध्यान जाता है। संसार की इस चकाचौंध और भीड़-भाड़ से दूर पहाड़, जंगल, गुफा नदी तट का आश्रय लेकर गूढतम ज्ञान-विज्ञान का साक्षात्कार कर, हम मानवों पर अपनी कृपा दृष्टि मित्रता की भावना रखते हुए संसार के भोगों में फँसे हुए हम लोगों को मोक्ष-मार्ग बतलाने के लिए गौतम, कणाद, पतंजलि, कपिल, जैमिनी आदि ऋषियों ने अपने आध्यात्मिक ज्ञान को पहुँचाने के लिए दर्शनों की रचना की। योगदर्शन, सांख्यदर्शन एवं वेदान्तदर्शन मुख्यरूप से मोक्षशास्त्र कहे गए हैं। यहाँ सूत्ररूप में बहुत ही गम्भीर बात को कहने की शैली को आप सभी जानते हैं। अत: उसी शैली में भारतीय : दर्शनों के मुक्तिपरक अथवा वैराग्यपरक सूत्रों पर विचार किया गया है।
व्यासभाष्य में समाधि को योग कहा गया है और इसी योग या समाधि की प्राप्ति के मुख्य साधन अभ्यास और वैराग्य को बताया है। देखे हुए और सुने हुए विषयों से वितृष्ण अर्थात् विरक्त हो जाने को ही वशीकारसंज्ञक वैराग्य कहा गया है, इसी को अपरवैराग्य भी कहते हैं एवं पुरुषख्याति हो जाने पर सत्त्वादि गुणों से अर्थात् इस संसार का कारण जो मूल प्रकृति है, उससे भी विरक्त हो जाने को परवैराग्य कहते हैं।
वाल्मिकी-रामायण के भगवान् राम हम सब के आज भी आदर्श माने जाते हैं। इसमें सबसे बड़ा कारण है कि उन्होंने राज्याभिषेक एवं वनवास में रत्तिभर भी फर्क नहीं समझा। जिस राम का कुछ पल पहले राज्याभिषेक होना था, उसको अब वनवास जाने की तैय्यारी करने को कहा जा रहा है। संसार में इससे बड़ा वैराग्यपूर्ण-जीवन का उदाहरण मिलना कठिन है। जिसको वनवास मिला है उसे लोग समझाते हैं परन्तु यहाँ तो उल्टा ही देखने को मिल रहा है। जिसे अभी चौदह दिन या चौदह महीने के लिए नहीं अपितु चौदहवर्ष तक वन में जंगली-जानवरों के बीच, कन्द-मूल के भोजन पत्तों की शय्या तथा वल्कल (छाल) के वस्त्र झोंपड़ी में रहना है। ऐसे भगवान् राम अपने माता-पिता, भाई-बन्धु अयोध्यावासियों को समझा रहें है। कितना अद्भुत वैराग्य भाव अथवा अनासक्त भाव हमें इस वाल्मीकि रामायण में देखने को मिलता है। इसी प्रकार सीता और शबरी आदि कितनी ही तपस्विनियों की तपस्या का वर्णन यहाँ मिलता है। सीता, लक्ष्मण भरत के त्याग की चर्चा तो आज भी घर-घर में होती है। उन्होंने वनवास मिलने पर भी वनवासी जीवन को जीया है। यद्यपि रामायण में मोहासक्ति भी बहुत स्थानों में वर्णित है- परन्तु विवेकशील समझदार लोगों को मोहासक्त दशरथ, बाली रावण आदि की दशा को देखकर उसके परिणाम को देखकर वैराग्ययुक्त होकर मुक्ति की राह पकडऩी चाहिए।
पुराणों में सबसे पहले श्रीमद्भागवत महापुराण में विदुर जी ने राजा धृतराष्ट्र को जो कि पुत्र मोह में अन्धा हो चुका था, उनको आसक्ति से मुक्ति दिलाने के लिए वैराग्य-भाव धारण करने का उपदेश दिया कि चाहे अपनी समझ से हो या दूसरे के समझाने से- जो इस संसार को दु: रूप समझकर इससे विरक्त हो जाता है और अपने अन्त:करण को वश में करके हृदय में भगवान् को धारण कर संन्यास के लिए घर से निकल पड़ता है, वही उत्तम मनुष्य है।
मात्र श्रीमद्भागवत महापुराण में अनेकों वैराग्यपरक संवाद भरे पड़े हैं। जैसे प्रह्लाद-हिरण्यकशिपु संवाद, राजा ययाति उसकी पत्नी देवयानी का संवाद, भगवान् श्रीकृष्ण उद्धव का संवाद इत्यादि अनेकों संवादों से साधारण जिज्ञासु जन के मन में भी वैराग्य के भाव सरलता से जग सकते हैं।
ब्रह्मपुराण में ब्रह्मा जी द्वारा मनुष्यों को सचेत रहते हुए वासनाओं से बचने का उपदेश दिया गया है-
यह संसार महाघोर, नि:सार, दु: रूपी फेन से व्याप्त है। यहाँ क्रोधरूपी ग्राह (मगरमच्छ) भरे पड़े हैं। यह भयानक विषय वासनात्मक जल से परिपूर्ण है। यह अनेक रोग-तरंग से क्षुब्ध, मोहरूपी भँवर से ऐसा भयप्रद है कि इसे पार नहीं किया जा सकता है। यह दुष्पार है।
लिंगमहापुराण में भी वैराग्य के विषय में बहुत सुन्दर वर्णन है-
संसार में विष से तप्त लोगों के लिए एक ही उपाय है-अमृत के समान ज्ञान और ध्यान। इसके अतिरिक्त अन्य कोई समाधान नहीं है। ज्ञान धर्म से उत्पन्न होता है। वैराग्य ज्ञान से उत्पप होता है। वैराग्य से परम ज्ञान उत्पन्न होता है, जो कि परमार्थ को प्रकट करने वाला होता है। ज्ञान और वैराग्य से युक्त ही यौगिक-सिद्धि प्राप्त करता है। सत्त्व गुण का पालन करने वाले की यौगिक सिद्धि से मुक्ति होती है, अन्यथा नहीं। श्रीमार्कण्डेय पुराण में माता मदालसा द्वारा अपने पुत्र को पत्र लिखना कि साधुसंग ही जगत् का ओषधिस्वरूप है, वैराग्यभाव को दर्शाता है। बृहन्नारदीयपुराण में भी वैराग्य का बहुत सुन्दर वर्णन है। श्री विष्णुपुराण में श्री पराशर ने मुनियों को अत्यन्त सारगर्भित वैराग्यपरक उपदेश दिया है।
वैराग्यशतकम् में तो भर्तृहरि वैराग्य के विषय में बहुत सुन्दर लिखते हैं- सर्वं वस्तु भयान्वितं भुवि नृणां वैराग्यमेवाभयम्संसार में सब कुछ भयप्रद होता है, एक मात्र वैराग्य ही ऐसा है जो अभयप्रदान करता है।
 

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