परंपरागत उपवास एवं मिट्टी चिकित्सा पद्धति पर शोध कार्य

परंपरागत उपवास एवं मिट्टी चिकित्सा पद्धति पर शोध कार्य

डॉ. नागेन्द्र नीरज, निदेशक - योगग्राम

 
डब्ल्यू.एच.ओ. द्वारा ऐथिनो मेडिकोफोर्मकोलॉजी के रूप में प्राकृतिक चिकित्सा आयुर्वेद, योग तथा अन्य चिकित्सा पद्धति की मान्यता वर्ल्ड हेल्थ ऑगनाईजेशन, (डब्ल्यू.एच.ओ.) ने 2003 में टे्रडिशनल मेडिशन (TRM) के रूप में किया है। इन पद्धतियों को बढ़ाने एवं ताकत देने के लिए रिजनल कमेटी फॉर साउथ ईस्ट एशियाका 56वाँ सत्र में अलग-अलग देशों के आन्तरिक सहयोग से परम्परागत चिकित्सा पद्धति के विकास स्वास्थ्य शोध प्रयास एवं प्रसार मानव संसाधन, सूचनाओं के आदान-प्रदान अनुसंधान पर जोड़ दिया गया। परम्परागत औषधि (TRM) आदिवासी जनजाति संस्कृति एंव परम्पराओं में नानी, दादी, साधु, संत, फकीरों द्वारा प्रचलित एवं प्रचारित परम्परागत नुस्खों (Flok-remedies) जो विभिन्न पौधों तथा पंच महाभूतों से प्राप्त औषधियों के जैव सक्रिय औषध रसायनों एवं प्रक्रिया एवं प्रविधियों पर आधारित हैं। इन सभी चिकित्सकीय महत्त्व की खोज एथिनोमेडिकोलॉजी तथा एथिनो फार्मोकोलॉजी के अन्तर्गत किया जाता रहा है तथा  किया जा रहा हैं।
डब्ल्यू.एच.ओ. द्वारा ऐथिनो मेडिकोफोर्मकोलॉजी के रूप में प्राकृतिक चिकित्सा आयुर्वेद, योग तथा अन्य चिकित्सा पद्धति की मान्यता वर्ल्ड हेल्थ ऑगनाईजेशन, (डब्ल्यू.एच.ओ.) ने 2003 में टे्रडिशनल मेडिशन (TRM) के रूप में किया है। इन पद्धतियों को बढ़ाने एवं ताकत देने के लिए रिजनल कमेटी फॉर साउथ ईस्ट एशियाका 56वाँ सत्र में अलग-अलग देशों के आन्तरिक सहयोग से परम्परागत चिकित्सा पद्धति के विकास स्वास्थ्य शोध प्रयास एवं प्रसार मानव संसाधन, सूचनाओं के आदान-प्रदान अनुसंधान पर जोड़ दिया गया। परम्परागत औषधि (TRM) आदिवासी जनजाति संस्कृति एंव परम्पराओं में नानी, दादी, साधु, संत, फकीरों द्वारा प्रचलित एवं प्रचारित परम्परागत नुस्खों (Flok- remedies) जो विभिन्न पौधों तथा पंच महाभूतों से प्राप्त औषधियों के जैव सक्रिय औषध रसायनों एवं प्रक्रिया एवं प्रविधियों पर आधारित हैं। इन सभी चिकित्सकीय महत्त्व की खोज एथिनोमेडिकोलॉजी तथा एथिनो फार्मोकोलॉजी के अन्तर्गत किया जाता रहा है तथा किया जा रहा हैं।
प्रस्तुत लेख में हिन्दुस्तान में वैदिक काल से प्रचलित प्राकृतिक योग एवं आयुर्वेद की प्रचलित मात्रा दो चिकित्सा पद्धतियों उपवास तथा मिट्टी चिकित्सा पद्धति पर किये गये वैज्ञानिक शोध अध्ययन का जिक्र करेंगे। इन पद्धतियों पर विश्व के विख्यात विश्वविद्यालयों के रिसर्च फैकल्टी के मान्य आयुर्वैज्ञानिक, प्रोफेसर द्वारा की गई हैं। इन शोध पत्रों की एफिकेसी तथा प्रमाणीकरण पर किसी प्रकार की अंगूली नहीं उठायी जा सकती है।

मिट्टी चिकित्सा पर शोध अध्ययन

स्वानसी यूनिवर्सिटी वेल्स यू.के. में ब्राजिल, इराक तथा नादर्न आयरलैंड के वैज्ञानिकों ने आयरलैंड के फरमंघ बोहा हाई आइलैंड में पायी जाने वाली मिट्टी में खास प्रकार के स्वास्थ्यप्रद जीवाणु एक्टीनोमाइसिटेस माइक्रोब ‘स्टे्रटटोमाइसेस एस.पी. मायोफोरियाकी खोज की है। यह मिट्टी खास प्रकार की तीबेरी सदाबहार वृक्ष गंधपूरा (Winter Green) के तेल की तरह स्वाइसी चड़पड़ी सुगंधित होता हैं। इस चमत्कारिक औषधीय मिट्टी पर इन वैज्ञानिकों के रिसर्च से ज्ञात हुआ है कि यह छ: प्रकार के कुख्यात एक्सट्रीम ड्रग रोजिस्टेन्ट सुपर बग- (1) मेथिसिलिन रेजिस्टेन्ट स्टेफिलोकोकस ओरिअस (MRSA), (2) कार्बोपेनम रेजिस्टेन्ट एण्टोबैक्टीरिया सी (CRE-C), (3) कार्बोपेनम रेजिस्टेन्ट क्लेबसीला न्यूमोनी (CRKP), (4) क्लोसट्रीडियम-डिफ्फिसिल्ल एण्टोरोकोकस (CDE), (5) न्यू दहेली मेटाल्लोबीटालैक्टामेस (MDMBL), (6) वानकोमाइसिन रेजिस्टेन्ट एण्टरोकोकस फेशियम (VREF) को नष्ट करने की क्षमता हैं।
दो हजार वर्ष पूर्व फरमंघ बोहा हाइआइलैंड के इस क्षेत्र में सेल्टिक लोगों का साम्राज्य था, इनमें एक विशिष्ट वर्ग होता था।   
ड्रयूइडिसकहा जाता था। ये प्राय: ऊचे पदों पर आसीन पुजारी, जादूगर, न्यायकर्ता, भविष्यवक्ता, चिकित्सक, प्रशासक एवं राजनीतिज्ञ होते थे। प्रकृति पूजक ड्यूडिस वर्ग दांत दर्द, गले एवं ग्रीवा का संक्रमण पेट के रोग में इसी मिट्टी का प्रयोग करते थे। यह परम्परा गत् 1500 वर्षों से चलती आ रही है। इस मिट्टी के दिव्य गुणों पर किये गये अध्ययन की यह रिसर्च फ्रन्टियर इन माइक्रो बायोलॉजी में प्रकाशित हुआ है। इसी प्रकार मेयोक्लिनिक के माइक्रोबायोलॉजिस्ट डॉ. राबिन पटेल की यू.एस. अर्थ (पृथ्वी) साइन्स के सहयोग से एक रिसर्च रिपोर्ट इन्टरनेशनल जर्नल ‘एण्टीमाइक्रोबायेलॉजी एजेन्टमें प्रकाशित हुआ है जिसके अनुसार ऑरेगॉन की नीली मिट्टी में भी एक्सट्रीम मल्टी ड्रग रेजिस्टेन्ट हार्डियस्ट बैक्र्टीरियल स्ट्रन्स बैक्टीरियाओं को नष्ट करने की क्षमता है।
मेरी लैण्ड जॉन हाप किन्स स्कूल ऑफ मेडिसिन वाल्टीमोर के शोधकर्ता डॉ. बर्ग बोगेल्सटाइन के निर्देशन में मिट्टी की करिश्माई चिकित्सकीय शक्ति की खोज की है। इन वैज्ञानिकों ने मिटटी में पाये जाने वाले एक माइक्रोब्स आर्गेनिज्म का जेनिटकली, परिवर्धन करके उनमें कैंसर कोशिकाओं को खाकर नष्ट करने की क्षमता विकसित की है, इस जी.एम. बैक्टीरिया का नाम ‘क्लोसट्रीडियम नोवीहै। ये सिर्फ एवं सिर्फ कैंसर कोशिकाओं को ही खा पीकर चट कर जाते है, स्वस्थ कोशिकाओं को नुकसान नहीं पहँुचाते हैं। इस नई प्रभावी तकनीकी का नाम ‘कोबाल्ट थैरेपीयानि ‘क्लोसट्रीडियम बैक्टीरियो लाइटिक थैरेपीनाम दिया है, जो अत्यन्त प्रभावशाली है।
एरिजोना स्टेट यूनिवर्सिटी के शैलीहाइडत्म और लिंडा विलियम्स के रिसर्च के अनुसार मिट्टी में मौजूद मित्र माइक्रोआर्गेनिज्म तथा सैकड़ों मिनरल्स तथा अन्य रसायन त्वचा एवं कपाल पर एण्टी माइक्रोबियल वातावरण तथा सुरक्षात्मक पत्र्त मुहैया कराते है। ये माइक्रोबियल सामान्य से लेकर सुपर बग बैक्टीरियाओं से भी लड़ते है और उनका काम तमाम करते है। स्क्रीन इन्फेक्शन, फूड पॉयजनिंग तथा अन्य कई बीमारियों के मुख हानिकार खतरनाक कीटाणुओं से रक्षा करते हैं, उन्हें नष्ट करते हैं।
विलियम्स तथा हाइडल और उनके सहयोगियों ने दुनियांभर के 20 अलग-अलग मिट्टी के नमूने लेकर इनकी क्षमता का परीक्षण विभिन्न प्रकार से बैक्टीरियाओं पर किया। अध्ययन के अन्तर्गत फ्रांस की हरी मिट्टी तथा अमेरिका की नीली मिट्टी में प्रबल रोग एवं रोगाणुनाशक गुण पाया गया। खतरनाक बीमारियों के जन्मदाता बैक्टीरियाओं को इन मिट्टियों के प्रयोग ने नष्ट कर दिया।
साउथ आस्टे्रलिया यूनिवर्सिटी के मेधमल्लापरुम तथा सहयोगियों ने मिट्टी में माइक्रोब्स के एक ऐसे समूह की खोज की है जो वातावरण में मौजूद बी-टेक्स (b-tex-benzene+tauline ethyl benzene + जाइलिन xylene) को खाकर खत्म करते है। इस प्रकार के खतरनाक रसायन पेट्रोल पम्प, वर्कशॉप एवं सर्विस स्टेशन के आस-पास होते है। वर्ल्ड एनवायमेंटस टॉक्सीकोलॉजी एण्ड कमेस्ट्री कांग्रेस में प्रस्तु रिसर्च रिपोर्ट में इस सत्य तथ्य को प्रकाशित किया गया है। सर्वप्रथम रूस में जन्मे यहूदी अमेरिकी डॉ. शैल्मन ए. वाक्समैन ने सन् 1932 ई. में एक प्रयोग किया, टी.बी. के कीटाणुओं मिट्टी में दबाकर देखा कि वे पूर्णतया समाप्त हो गये हैं। मिट्टी की इस औषधीय गुण देखकर वे चमत्कृत, विमुग्ध, विस्मित एवं भावविह्वल होकर उन्होंने घोषणा की- ‘विश्व की महानतम औषधि मिट्टी ही है। उन्हीं के शब्दों में हम दस हजार मिट्टी के सूक्ष्म जीवाणुओं को अलग-अलग कर उनकी आश्चर्यजनक रोगाणु संहार क्षमता की खोज की। उनमें दस प्रतिशत माइक्रोबों में रोगाणुसंहार की अद्भुत प्रबल क्षमता है। डॉ. वावसमैन सन् 1943 ई. सर्वप्रथम मिट्टी के कल्चर द्वारा सर्वप्रथम टी.बी. की दवा ‘स्टे्प्टोमाइसिनतथा ‘नियोमाइसिनकी खोज की। इनके अतिरिक्त 20 अन्य एण्टी बॉयोटिक्स की भी खोज की। इस कार्य के लिए उन्हें सन् 1952 में फिजियोलॉजी तथा मेडिसिन का नोवेल पुरस्कार मिला।
दी क्वार्ट टेलीरिव्यू ऑन बायोलॉजी में कारनेल यूनिवर्सिटी के शोधकत्र्ता सेरा यांग की प्रकाशित रिसर्च रिपोर्ट के अनुसार ‘मनुष्य जियोफेगीअर्थात् मिट्टी खाकर रोगों का इलाज करने वाला प्राणी है। मनुष्य ने मिट्टी खाने की आदत सबसे पहले पेट के हानिकारक रसायनों, टॉक्सिन्स, परजीवियों, रोगाणुओं तथा विभिन्न रोगों से मुक्त होने के लिए सीखी। इस शोध के अनुसार मिट्टी खाने से बच्चों में लोहा, जिंक तथा कैलिशयम का अभाव दूर होता है। मिट्टी पेट में पैदा होने वाले रोगोत्पादक विषैले रसायनों को निकालकर बाहर करती है, इससे नुकसान कम फायदा ज्यादा होता है। ढाई हजार वर्ष पूर्व हिप्पोक्रेट्स के जमाने से ही मानव आबादी वाले सभी महाद्वीपों के लोगों के मिट्टी खाने की जानकारी मिलती है। मनुष्य को छोडक़र कई पशु-पक्षी खास करके शुकजाति के पक्षी मिट्टी खाकर अपने पेट की बीमारी को ठीक करते देखा गया है।
एक अन्य रिसर्च यूनिविर्सिटी ऑफ साउथेम्पटॉन के इन्यूनोफार्मिकोलॉजी के वैज्ञानिकों ने प्रो. स्टीफेन होलगेट के नेतृत्व में किया गया है। इन वैज्ञानिकों ने अफ्रीकन मिट्टी में रहने वाले बैक्टीरिया से दमा के रोगियों के लिए टीका बनाया है। इम्यून प्रतिक्रिया पैदा करने वाले इस बैक्टीरिया के टीके का प्रयोग अस्थमा के रोगियों पर सफलता के साथ हुआ है। 24 दमाग्रस्त विद्यार्थियों पर किया गया परिणाम अत्यन्त उत्साहवर्धक रहा। डॉ. होलगेट ने प्रयोगों के दौरान देखा कि जो लोग अपने पालतू पशुओं तथा मिट्टी के सम्पर्क में ज्यादा समय रहते है उनमें रेस्पॉन्स इम्यूनिटी शानदार होती है, जिसके परिणाम स्वरूप उसमें एलर्जी सम्बंधित दमा, जुकाम, खांसी व सर्दी तथा अन्य एलर्जिक रोग से मिट्टी के सम्पर्क में नहीं रहने वालों के अपेक्षा 60-70% तक कम होता है।
विगत् 46 साल में लगभग पौने तीन लाख लोगों पर मैंने मिट्टी चिकित्सा के विविध प्रयोग स्थानीय मिट्टी की पट्टी, सर्वांगीण सूर्यतप्त बालू स्नान, सर्वांग सूर्यतप्त आद्रवाष्पित रेत स्नान, सर्वांग मिट्टी स्नान, सर्वांग मड, पूल स्नान, मय मड मसाज व एक्सर साइज आदि विविध प्रयोग रोगियों तथा स्वयं पर करके विश्व की प्रथम मिट्टी पर शोध पुस्तक ‘अनमोल मिट्टी की बोललिखी है। इस पुस्तक में मिट्टी के अनेक प्रयोग बताये गये है।
इटली के चिआनसियानो स्पा, साइलेन स्प्रिंग, इटली के शोधकर्ताओं ने प्रमाणित किया है कि खनीजीय मिट्टी के प्रयोग से ऑस्टियो आर्थराइटिस के तीव्र लक्षणों तथा फ्रीक्वेंसी में अपूर्व सुधार होता है। यह नन स्टेरॉयडल एण्टी इ-फ्लामेटरी ड्रग्स से भी ज्यादा प्रभावशाली चिकित्सा की तरह काम करता है।
जर्नल ऑफ इन्टरनेशनल मेडिकल रिसर्च में प्रकाशित- ‘द इफेक्ट ऑफ मडथैरिपी ऑन रिलीफ इन नी (Knee) ऑस्टियोआर्थराइटिसरिसर्च रिपोर्ट के अनुसार 410 रोगियों पर क्वान्टिटेटिव मेटा एनालइसिस ऑफ सेवनस्टडीज में स्टैण्डर्ड मीन डिफरेन्स (एस.एम.डी.) तथा ऑनटेरियो ऑस्टियो एण्ड मैकमास्टर यूनिवर्सिटीज ऑस्टियो आर्थराइटिस इन्डेक्स पेन स्कोर के आधार पर मड थैरेपी की एक्यूरेसी तथा एफिकेसी की वैज्ञानिक जांच परख में ऑस्टियो आर्थराइटिस के रोगियों के दर्द एवं इन्फ्लामेशन में शानदार तरीके से लाभ पाया गया उपर्युक्त सभी शोध रिसर्च का एक ही निष्कर्ष एवं निचोड है  कि मड थैरेपी पेट पर रखने से पाचन संस्थान के सभी अंग सुप्रभावित होते है। उन पर शैथिल्य कारक एवं शान्ति, सुख प्रदायक टॉनिक तथा ताकत देने वाला (strengthining) प्रभाव होता है। इससे पेट पर शैथिलय कारक प्रशान्तक प्रभाव होता है, विकृत एवं विषाक्त गट्स माइक्रोबायोमडायवरसिटी के कमाल का सुधार होता है। जिससे गैस, एसीडिटी, कब्ज तथा उदर दर्द में लाभ मिलता है। मिट्टी चिकित्सा से गैस तथा हीट जठराग्नि सोखने की आन्त्रिक ताकत बढ़ जाती है जिससे भोजन का पाचन भलिभांति होता है। इससे एण्डोक्राइन सिस्टम थॉयराइड, निट्यूटरी आदि हाइपोथैलमिक पिट्यूटरी एड्निल एक्सिस तथा गट्स ब्रेन एक्सिस विशेष रूप से प्रभावित होता हैं तनाव, सिरदर्द, आंखों के रोग, त्वचा रोग, मूत्र एवं यौन संबंधित रोगों में राहत मिलती है। मिट्टी में अनेक खनिज रसायन सल्फर, जिंक मैग्नेशियम, ब्रोमिन आदि होते हैं जो शरीर से विकारों एवं अशुद्धियों को निकाल बाहर कर शुद्ध करते हैं। त्वचा के मरे हुए स्कीन सेल्स की सफाई कर सौन्दर्य एवं लावण्य को बढ़ा देते हैं, त्वचा में निखार लाते हैं। मिट्टी में मौजूद खनिज पदार्थ, माइक्रोबायोम, बैक्टोरियदि तथा उनके उपउत्पाद काढ़े प्रोडक्टस टॉक्सिन्स तथा उनसे उत्पन्न रोगों को स्वस्थ करने में सहायता करते है।

उपवास चिकित्सा पर शोध अध्ययन

भारत की परम्परागत आहार शैली रात्रि में खाने (डिनर) का कहीं विधान नहीं है। प्रात:काल एवं सायंकाल भोजन की ही संस्कृति रही है। हमारी यह परम्परा कितनी वैज्ञानिक है, इस पर खोज विश्व की मेडिकल साइन्स की श्रेष्ठतम प्रथम संस्थान जॉन्स हॉप किन्स यूनिवर्सिटी स्कूल ऑफ मेडिसिन, बाल्टीमोर मेरीलैंड के डॉ. मार्क मैटसन नदर्न यूनिवर्सिटी ऑफ आस्टे्रलिया तथा अन्य सैकड़ों वैज्ञानिकों एवं शोध संस्थानों ने किया है। भारत मनीषी के तत्संबंधित दो मंत्र इस प्रकार है-
द्र्विजातीनामशनं श्रुतिचोदितम
नान्तरा भोजनं कुर्यादाग्नि होत्रसमो विधि:।।
अन्तरा प्राताशं च सायमाशं तथैव च।
सदोपवासी स भवद्यो न मुडक्तेऽन्तरा पुन:।।
अर्थात् दोपहर (12) के पूर्व एवं सायं (5 बजे तक) दो ही समय भोजन करना वेद विहित है। इसका स्वास्थ्य लाभ एवं पुण्य लाभ दोनों ही मिलता है। अग्निहोत्र की तरह जठराग्नि होव्र भी दो समय करने से वातावरण पावन पवित्र शुद्ध एवं स्वस्थ होता है। ऐसे व्यक्ति को सदा उपवासी का लाभ मिलता है। समस्त रोगों का मूल कारण अजीर्ण से मुक्त रहता है।
यानि दो समय सुबह-शाम खाने का विधान कितना वैज्ञानिक है, इसे विश्व के इन कई महानशोध संस्थाओं ने इस प्रक्रिया पर खोज कर इस प्रयोग का नाम इन्टरमिटेन्ट फास्टिंग (IF) दिया है। यह आई.एफ. 05-19, 06-18 या 06-17 घण्टा यानि सुबह नौ बजे तथा शाम 3 बजे के मध्य भोजन से जैसे 9 बजे प्रात:काल का भोजन तथा 2 बजे सायं का भोजन करने से 19 घण्टे सुबह 9 बजे सायं 3 बजे भोजन करके 18 घण्टे तथा सुबह 9 बजे तथा 4 बजे खाने से 17 घण्टे का अन्तरालीय उपवास रोगों की चिकित्सा एवं स्वास्थ्य में अप्रत्याशित लाभ प्रदान करता है। (1) 19, 18 तथा 17 घण्टे के उपवास के दौरान शरीर का मेटाबॉलिज्म, केटाबॉलिज्म, एनाबॉलिज्म पाचन अवशोषण एवं सात्म्य प्रक्रिया में सुधार होता ह। शरीर में हुए टूट-फूट को स्वत: मरम्मत एवं निर्माण करने वाली प्रक्रिया तेज एवं सुव्यवस्थित होती है। (2) शरीर की जीवनी शक्ति रोग प्रतिरोधक क्षमता जाग्रत हो जाती है। (3) शरीर की स्वचालित स्वस्थ होने की शक्ति, उपचार करने की ऊर्जा, सभी प्रक्रियाओं की स्वनियंत्रित नियोजित एवं नियमित करने वाली ताकत तथा स्फूर्त आरोही-अवरोही नियंत्रक क्षमताको अच्छी तरह से काम करने की शुभ अवसर मिल जाता है। (4) आई.एफ. से कोशिकाओ पर शुगर का दबाव तथा इन्सुलिन दबाव व इन्सुलिन लोड़ कम होने से शरीर अच्छी तरह काम करता है। बार-बार अधिक भोजन के बाद ग्लूकोज एवं इंसुलिन लोड बढऩे से शरीर की कोशिकाएं निष्प्राण एवं मूर्च्छित होने लगती है। (5) आई.एफ. से इंसुलिन की संवेदनशील शक्ति लौट आती, फुर्सत में वह पूर्ण दक्षत से काम करने लगता है। जिससे रक्त में शुगर का लेवल कम होने लगता है। (6) आई.एफ. से इंसुलिन की संवेदनशीलता (sensitivity) तो बढ़ जाती है साथ ही हमारी कोशिकाओं की इंसुलिन की ग्रहणशीलता (resiptibility) बढऩे से शरीर को ऊर्जा भी भरपूर मिलता है। (7) पैंक्रियास इंसुलिन का उत्पादन भी कम करता है। (8) बीटा सेल्स इंसुलिन तथा गामा सेल्स ग्लूकेगान का स्राव भी नियंत्रित होता है। ये दोनों हार्मोन मिलकर ग्लूकोज के लेवल को सही 90-120 मिलीग्राम प्रति 100 मिली. तक बनाये जाते है। (9) इंसुलिन उत्पादक बीटा कोशिकाओं का पुनदर्भवन प्रारम्भ हो जाता है। प्रति 100 मिली. मधुमेही में पैक्रियास को अतिरिक्त ओवरटाईम काम करना पड़ता है, क्योंकि ऐसे रोगियों को डाक्टर हमेशा ।
कुछ न कुछ खाते रहने की सलाह देते है जिससे इंसुलिन उत्पादक बीटा कोशिकाएं थक जाती हैं निष्प्राण हो जाती है, इंसुलिन निकलना बंद हो जाता है या कम निकलता है अथवा निकलता तो है किन्तु इंसुलिन की संवेदनशीलता नष्ट हो जाती है, वह नपुंसक हो जाता है। प्रभावहीन इंसुलिन के कारण रक्त  ग्लूकोज का उपयोग कोशिकाओं एवं उत्तक नहीं कर पाते। परिणाम स्वरुप रक्तशर्करा बढ़ा हुआ रहता है।
जर्जिया स्टेट यूनि. (अटलंटा यू.एस.ए.) के सेन्टर फॉर मॉलेक्युलर ट्रान्सलेशलन मेडिसिन के डाइरेक्टर डॉ. मिंग हुई जोऊ की रिसर्च रिपोर्ट 'molecular cell' जर्नल में प्रकाशित हुआ है, जिसके अनुसार उपवास के दौरान ‘बीटा हॉइड्रोक्सी ब्यूटीरेट(BOHB) पैदा करता है, जिससे शरीर की ऊर्जा मिलती है। B-OHB से अन्य कई रोग निवारक दीर्घायु जैव रासायनिक चेन रिएक्शन प्रारम्भ हो जाता है। B-OHB आर.एन.ए. बाइंडिंग प्रोटीन हेटरोजेनस न्यूक्लियर रिबोन्यूक्लियोप्रोटीन A1 सेज जुडक़र स्टेम सेल्स ट्रान्स क्रिप्सलन फैक्टर जिस ऑक्टेमर बाइंडिंग ट्रान्सक्रिप्शनल फैक्टर-4 OCT4 कहते है की सक्रियता को बढ़ा देता है। OCT4 की परिपूर्ण अभिव्यक्ति तथा सक्रियता बढऩे से बुढ़ापा पैदा करने वाला कारक ‘सेनोसेन्ससे जुझने एवं उसे खत्म करने वाला की-फैक्टर (कुंजी-कारक) लैमिन B1 की वृद्धि करता है। फलत: रक्तवाहिनियाँ एंव लिम्फवाहिनियाँ लचीला, मजबूत तथा सदा जवान बनी रहती है। कहावत है - 'you are as young as your arteries are.
इसी प्रकार एक अन्य रिसर्च रिपोर्ट जर्नल साइंस में ग्लेडस्टोन के सेन्टर फॉर एच.आई.वी. एण्ड एजिंग के डारेक्टर डॉ. वर्डिन की प्रकाशित हुई, जिसके अनुसार (B-OHB) हिस्टोन डी एसिटाइलेसेस (HDACS)  एन्जाइम की सक्रियता को बाधित कर देता है, फलत: डी.एन.ए. को क्षतिग्रस्त करने वाला ऑक्सीडेटिवस्टे्रस से रक्षा होती है, साथ ही (HDACs) के एन्जाइम के बाधित होने से उम्र बढ़ाने वाला (FOXO3A) तथा (MT2) जीन सक्रिय होकर पूर्णता के साथ अभिव्यक्त (EXPESS) होने लगते है, जिससे बुढ़ापा जन्य रोगों से मुक्ति मिलती है तथा उम्र बढ़ जाती है।
इतना ही नहीं यूनिवर्सिटी ऑफ विसकॉन्सिन के रिक्की कॉलमेन तथा रिचर्ड विनड्रक्रव की रिसर्च रिपोर्ट विख्यात जर्नल ‘साइन्समें प्रकाशित हुआ है, जिसके अनुसार उपवास करने से डाइबिटीज, कैंसर, हार्ट अटैक, ब्रेन स्ट्रोक, हाई ब्लड प्रेशर होने की संभावना समाप्त हो जाती है। आहार में मात्र 30 प्रतिशत कटौती कर देने मात्र से इन रोगों से मुक्ति मिल जाती है।
20 साल तक प्राइमेट परिवार के बंदर, एप्स, मनुष्यों पर 30 प्रतिशत कैलोरी कम करने मात्र से इन्होंने औसतन 27 वर्ष अधिकतम 40 वर्ष तक ज्यादा आनन्द लिया, जहाँ सामान्य औसत मृत्युदर 37 प्रतिशत थी, वहीं 30 प्रतिशत कम आहार लेने वालों में मात्र 13 प्रतिशत ही थी। कम आहार लेने वाले मनुष्य की औसत आयु 140 से 150 वर्ष तक हो जाती है। वेद के अनुसार आम मनुष्य की औसत आयु जीवम् शरद: शतम् यानि 100 साल मानी जाती है। वहीं विनड्रक्रव तथा उनके सहयोगियों ने डी.एन.ए. एरो माइक्रोचिप्स तकनीक द्वारा जीन एक्सप्रेस प्रोफाइल उपवास के पूर्व एवं पश्चात तुलनात्मक अध्ययन कर इस नतीजे पर पहुंचे है कि शरीर जीनेटिव आणिवक स्तर पर भी कमा का स्वास्थ्य सकारात्मक असर होता है। डॉ. विनड्रक्रव की विख्यात पुस्तक है- the prevention of ageing and diseases by dietry invention'. उपवास से व्यक्ति रोग से मुक्त तो होता ही सदैव जोश एवं जवानी से भरपूर 100 साल तक पृथ्वी का आनन्द लेता है।
डॉ. वाल्टर लोगों की रिसर्च रिपोर्ट ‘साइंस ट्रान्सलेशनल मेडिसिनमें प्रकाशित हुआ है जिसके अनुसार महीने में 72 घण्टे के उपवास का प्रभाव बेस्ट कैंसर, स्किन कैंसर, मेलोनोम त्वचा वर्णक कोशिकाओं का कैंसर, ग्लियोमा तथा नवटिशूज का कैंसर  न्यूरोब्लोस्टोमा तथा न्यूरोफाब्रोसार्कोमा में कमाल का प्रभाव होता है। कैंसर की गांठे सिकुडऩे लगती है। रिसर्च के अनुसार उपवास से शरीर को नया बनाने वाले कायाकल्प के वह स्वीच ऑन हो जाता है। जो रक्त स्टेम कोशिकाओं की वृद्धि करता है। खास करके नित्य नूतन श्वेत कोशिकाओं को पैदा करने हेतु प्रेरित करता है। प्रतिरक्षा प्रणाली सशक्त एवं सतत् रोगाणुओं के प्रति सक्रिय रहती हैं। पी.के.ए. एन्जाइम को बाधित करता है, जिससे लाइपोलाइसिस, ग्लाइको लाइसिस, ग्लाइकोजेनोलाइसिस प्रक्रिया बढ़ाती है।
टेक्सास यूनिवर्सिटी के साउथ वेस्टर्न मेडिकल सेन्टर के चेंग, चेंगझांग के नेतृत्व में हुए रिसर्च के अनुसार बच्चों की एक्यूट्लिम्फोप्ब्लास्टिक लयूकेमिया (ALL) तथा वयस्कों के एक्यूट माइएलॉयड ल्यूकेमिया (AML) में एक दिन भोजन एक दिन उपवास का चक्र (बरसी तप) सात सप्ताह नक करने से कैंसर कोशिकाएं नष्ट होने लगती हैं। छह सप्ताह में उनकी वृद्धि एंव विकास रूक जाता है। इसी प्रकार के बरसी तप का प्रयोग जॉन हॉपकिन्स स्कूल ऑफ मेडिसिन के डॉ. मैटसन ने डिमेंशिया एल्जीमर्स, पार्कि न्सन, हंग्टिंगटन, कोरिमा, मधुमेह, हृदय रोग, कॉलेस्ट्राल वृद्धि तथा ऑक्सीडेटिवस्टे्स आदि से बचाव एवं उपचार में किया है।
जर्मनी की गोट्टिनजेन यूनिवर्सिटी के साइट्कि हॉस्पिटील के न्यूरो बॉयोलॉजिकल लेबोरेट्री के प्रो. गेरल्ड हूथर ने अपने अनुसंधान में पाया कि उपवास से दिमाग पर न्यूरोबॉयोलॉजिकल प्रभाव के चलते अवेयरनेस चेन्जिंग इफेक्ट होता है, जिससे व्यचित में सीखने की शक्ति बुद्धिमत्ता की क्षमता, तार्किक कुशलता, एकाग्रता, विश्लेषणात्मक क्षमता, वैचारिक स्पष्टता योजना निर्माण लेने की क्षमता, संश्लेषणात्मक शक्ति, इट्यूशन क्षमता, कल्पनात्मक शक्ति, संगीत, कला एवं विज्ञान समझ की क्षमता में वृद्धि होती है।
एम. आई.टी. अमेरिका के बायोलॉजिस्ट लियोनॉर्ड गॉरेन्ट के रिसर्च के अनुसार कम कैलोरी वाले आहार खाने से उम्र बढ़ाने वाले SIRT-1 तथा टाटा इन्स्टीट्यूट ऑफ फण्डामेंटल रिसर्च के शोधकर्ताओं के अनुसार उपवास तथा कम कैलोरी वाला आहार से बुढ़ापा एवं बुढ़ापा जन्य बीमारियों से मुक्त रखने वाला तथा दीर्घायु का जीन SIRT-1 सक्रिय होकर अभिव्यक्त होने लगता है। जिससे उम्र शतायु से भी ज्यादा 150 साल तक होने की संभावना बढ़ जाती है।
जर्नल ऑफ  अमेरिकन मेडिकल एसोसियन (JAMA) के इन्टरनल मेडिसिन में लुईसियाना स्थित पेनिग्टन बॉयो मेडिकल रिसर्च सेन्टर तथा लुई सियाना स्टेट यूनिवर्सिटी में हुए रिसर्च के अनुसार उपवास से अनिद्राग्रस्त लोगों की नींद पैटर्न तथा उसकी गहराई बढ़ गई। भूख की गुणवत्ता, जीवन की गति एवं गुणवत्ता, सांस एवं हृदय गति, हड्डियों के जोड़ों की क्षमता तथा अन्य मांसपेशियों की क्षमता के डी.एन.ए. क्षतिग्रस्त होने का दर, क्येटेशन एवं डिजेनरेशन की प्रक्रिया बाधित हुई, क्षतिग्रस्त कोशिकाओं की मरम्मत एवं रिजेनरेशन का कार्य सम्बर्द्धित हुआ है कि क्षमता शानदार ढग़ से नियंत्रित होती है। कोशिकाओं की प्रक्रिया रूक जाती है। शरीर का तापमान तथा इन्सुलिन लेवल नियंत्रित होता हैं।
इन सभी शोध अध्ययनों का परिणाम के फलस्वरूप योग में प्राय: रोगी स्वास्थ्य साधकों को 60 घण्टे का पूर्ण उपवास कभी-कभी 7 से 50 दिन तक का उपवास सिर्फ और सिर्फ पानी पर कराया जाता है और इसका रिजल्ट हर प्रकार के रोगी के निवारण में अत्यन्त उत्साहवर्द्धक रहा है। रसाहार, द्र्राक्षा कल्प, तरबूज कल्प आदि चलना रहता है।
उपवास हमारे फलाहार आदि हमारे हिन्दु संस्कृति एवं संस्कार से जुड़ा है। धर्म के साथ स्वास्थ्य विज्ञान को जोडक़र हमारे मनीषियों ने स्वस्थ दीर्घ जीवन का मंत्र दिया था। वैसे उपवास हर धर्म एवं सम्प्रदाय जनजाति एवं जन समूह में मान्य है लेकिन उपवास के नाम पर विकृतियाँ ज्यादा है। योग ग्राम वैज्ञानिक ढंग से उपवास से पूर्व कर्म, उपवास काल एवं उपवास तोडऩे की वैज्ञानिक प्रक्रिया अपनाया जाती है।
जापान की ओकीनोवा इन्स्टीट्यूट ऑफ साइन्स एण्ड टेक्नोलॉजी, ग्रेजुएट यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों की एक नवीन शोध-पत्र ‘साइंटिफिक रिपोर्टजर्नल में प्रकाशित हुआ है जिसके अनुसार 58 घण्टे के उपवास के दौरान शरीर स्टारवेशन मोड़ पर पहुँच जाता है और इस से 44 प्रकार के आयु सम्वर्द्धक एवं रोग निवारक संबंधित मेटाबोलाइट्स का सृजन होता है। जिसमें मुख्य रूप से ब्रांच चेन एमिनों एसिड्स ल्यूमिन, आइसोल्यूसिन, वैलिन तथा आप्थैलमिक एसिड का लेवल बढ़ जाता है। उम्र बढऩे के साथ इन मेटाबोलाइट्स का स्तर गिरने लगता है। ये सभी मांसपेशियों की क्षमता को बढ़ाते है। एण्टी ऑक्सीडेन्ट की सक्रियता में वृद्धि करते है। मांसपेशियों के संश्लेषण, निर्माण, सशक्त, सुडौल बनाते है। मेटाबॉलिक स्टेस के दौरान बेहतर काम करते है। मस्तिष्क में एरोमेटिक प्रोटीन ट्प्टिोफेन, टायरोसिन तथा फिनाइल एलानिन पहुँचकर आनन्दमयी न्यूरोटन्स मीटर्स सेरोटोनिन, डोपामिन तथा नारएपिनेफ्रिन के स्राव को बढ़ाते है। यह रेटिनल डिजेनरेशन, ग्लूकोमा तथा रेटिनलपिगमेन्टोसा से रक्षा करते हैए आप्थैलमिक एसिड ऑपथैलमैट टइपेप्टाइड होने से ग्लूटेथिओन का निर्माण करते है। इतना ही नहीं उपवास काल में शरीर में वीटा हाइड्रोवसी ब्यूटीरेट कारनीटाइन तथा ब्राचचेन एमिनो एसिड से वैकल्पिक ऊर्जा प्राप्त होने लगती है। साइट्रिक एसिड साइकिल द्वारा केमिकल एनर्जी बॉण्ड के रूप में जमा कार्बोज, प्रोटीन तथा फैट से ऊर्जा प्राप्त होती है। उपवास के दौरान प्यूरिन तथा पायरिडिन के मेटाबॉलिज्म में वृद्धि होती है, जिससे जीन एक्सप्रेशन तथा प्रोटीन संश्लेषण में वृद्धि होती है। सिग्नल ट्रान्सडक्शन, हॉरिजॉन्टल जीन ट्रान्सफर, रिपोग्रमिंग आदि सकारात्मक प्रभाव होने से पैतृक जेनेटिक रोगों में भी लाभ मिलता है।
उपवास काल में काल में प्यूरिन तथा पायरिडिन के मेटाबोलाइट्स शरीर में अर्गेथियोनिन तथा कारनोसाइन नामक एण्टी ऑक्सीडेन्ट के निर्माण एवं उत्पादन की प्रक्रिया को बढ़ा देते है। ये दोनों एण्टी टॉक्सीडेन्ट तथा एण्टी ऑक्सीडेन्ट होते है मेटाबॉलिज्म के दौरान उत्पन्न विष बुढापा तथा रोग पैदा करने वाले, आरोग्यए जोश एवं जवानी को नष्ट करने वाले ऑक्सीडेशन तथा ऑक्सीडेटिव स्टेस  से रक्षा करते है।
उपवास के दौरान शरीर मेटाबॉलिक पाथवेज पेन्टोस फॉस्फेट पाथवेज सक्रिय हो जाता है। इसे फॉस्फेट ग्लूकोनेट पायवेज तथा हेक्सोज मोनो फॉस्फेट शन्ट (Shunt) है जो ग्लाइको लाइसिस के समानान्तर पाथवेज है।

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