शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्

शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्

प्रो. महावीर जी,

प्रति-कुलपति, पतंजलि विश्वविद्यालय, हरिद्वार

मानव जीवन की सुखद, सफल यात्रा का मुख्य साधन है शरीर। अश्मा भवतु नस्तनू:’ हमारा यह शरीर पत्थर के समान सुदृढ हो जाये, सर्वेसन्तु निरामया:’ सभी मानव रोगरहित स्वस्थ जीवन को प्राप्त करें और अष्ट चक्रा नव द्वारा देवानाम् पूरयोध्याआठ चक्रो और नौ द्वारों वाला यह मानव शरीर मानो साक्षात् अयोध्या ही है तथा दुर्लभं मानुषं जन्ममानव तन को प्राप्त करना बहुत कठिन कर्म है इत्यादि वचनों से मानव शरीर की श्रेष्ठता सिद्ध होती है। साथ ही इसको सदैव रोग रहित रखना, जिससे कि इसके द्वारा हम सदैव उत्तमोत्तम कर्म करते रहें, यह भी परमावश्यक है। नीतिकार ने कहा है -
यावत्स्वस्थमिदं शरीरमरूजं यावज्जरा दूरतो,
यावच्चेन्द्रियशक्तिरप्रतिहता, यावत्क्षयो नायुष:
आत्मश्रेयसि तावदेव विदुषा कार्य: प्रयत्नो महान्,
संदीप्ते भवने तु कूपखननं प्रत्युद्यम: कीदृश:।।
अर्थात् जब तक यह शरीर निरोग है जब तक वृद्धावस्था दूर है, जब तक इन्द्रियाँ शक्तिहीन नहीं हुई हैं, जब तक आयु शेष है, तभी तक बुद्धिमान् मानव आत्मकल्याण के लिये अत्यन्त पुरूषार्थ करें। भवन में आग लगने के पश्चात् कुआँ खोदकर प्राप्त होने वाले जल से अग्नि को शान्त करने का प्रयत्न निरर्थक है। ठीक इसी तरह अपने जीवन को स्वस्थ, निरामय, प्रसन्न रखते हुए श्रेष्ठ कार्य करना ही बुद्धिमत्ता है। स्वस्थ जीवन के दो पक्ष हैं। पहला पक्ष है हम ऐसा जीवन जीयें कि किसी प्रकार का कोई शारीरिक, मानसिक रोग  आधि-व्याधि रूप में हमारे जीवन में प्रवेश ही करने पाये। योग दर्शन केहेयं दु:खमनागतम्का यही अभिप्राय है कि भविष्य में जिस कष्ट के आगमन की आशंका है, पहले ही हम ऐसा उपाय करें कि वह दु: आने ही पाये। श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है-
युक्ताहार विहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु, युक्तस्वप्नावबोधस्प योगो भवति दु:खहा।जिनका आहार एवं विहार सुव्यवस्थित है, जो अपने कर्मों का सम्पादन सम्यक् प्रकार से करते हैं जिनका शयन और जागरण समय पर होता है, ऐसे साधकों का योग समस्त दु:खों को नष्ट कर देता है।
मनुजी महाराज लिखते हैं-
ब्राह्मे मुहूर्ते बुध्येत धर्मार्थौचानुचिन्तयेत्काय: क्लेशान् तन्मूलान् वेदतत्त्वार्थ मेव च।।
जो व्यक्ति स्वस्थ, सुखी जीवन जीना चाहता है वह ब्रह्म मुहूर्त में शय्या परित्याग करे, फिर धर्म और अर्थ का चिन्तन करें - शारीरिक कष्टों के मूल कारणों को जानने का प्रयत्न करें, साथ ही वेद के अभिप्राय को समझने का प्रयास करें।
वैदिक जीवन पद्धति में दिनचर्या का बहुत महत्त्व है। प्रात:काल जागकरप्रातरग्निं प्रातरिन्द्रं हवामहे .....’ इत्यादि मन्त्रों के उच्चारण से मन की पावनता। रात्रि में शय्या पर पहुँचने से पूर्वयज्जाग्रतो दूरमुदैति.....’ आदि मन्त्रों का भावविभोर होकर गान करने से शिव संकल्पों का जागरण। प्रात: सायं दोनों सन्धिकालों में आसन लगाकर सन्ध्यावन्दन, देवयज्ञ आदि से शरीर के साथ घर के अणु-अणु का शोधन कर लेने से तन और मन सर्वथा निरोग रहते हैं।
भारतीय संकल्पना केवल शारीरिक रोगों को रोग नहीं मानती, अपितु शरीर, चित्त और वाणी के दोषों को भी दु: देने वाले रोग मानती है। इसीलिए इन तीनों दोषों को दूर करने के श्रेष्ठ उपाय निर्दिष्ट करने वाले पतंजलि की वन्दना करते हुए कहा गया-
योगेन चित्तस्य पदेन वाचां
मलं शरीरस्य वैद्यकेन।
योऽपाकरोत्तं प्रवरं मुनीनां
पतंजलिं प्रांजलिरानतोऽस्मि।।
माना जाता है कि महर्षि पतंजलि ने योग के द्वारा चित्त के, व्याकरण शास्त्र से वाणी के और आयुर्वेद ग्रन्थों की रचना कर शारीरिक विकारों को दूर किया अर्थात् पूर्ण स्वस्थ व्यक्ति वह है जो शरीर, मन और वाणी के दोषों से मुक्त है।
स्वास्थ प्राप्ति के लिए आहार विहार और नियमित दिनचर्या से भी अधिक महत्त्व का आलम्बन है- योग विद्या। योगमय जीवन जीते हुए आसन और प्राणायाम आदि के द्वारा आगत, अनागत रोगों का भस्मीकरण। सन् 2020 मानव जाति के लिए अत्यन्त भयावह रूप लेकर आया। कोविड-19 के आक्रमण से सम्पूर्ण विश्व संत्रस्त हो गया। ऐसे भीषणकाल में योगर्षि परम पूज्य स्वामीजी ने महर्षि पतंजलि आदि ऋषियों द्वारा प्रतिपादित योग-प्राणायाम से प्राण-हरण करने वाले इस संक्रमण रोग से संसार को बहुत कुछ भयमुक्त कर दिया। करोड़ों स्त्री-पुरूषों ने नियमित प्राणायाम एवं आयुर्वेद के अनुसार निर्मित पतंजलि की कोरोनिल, श्वासारि आदि औषधियों के सेवन से मृत्यु पर विजय प्राप्त कर ली। अनेक असाध्य रोगों को पराजित कर सुखी और स्वस्थ जीवन का राजमार्ग असंख्य जनों को प्राप्त हुआ। भगवती श्रुति कहती है- ‘अरिष्टा: स्याम तन्वा: सुवीरा: हम अपने शरीरों को निरोग करते हुए उत्तम पुत्र-पौत्रादि को प्राप्त करें। वेद माता मृत्यु को पराजित करने का सन्देश प्रदान करते हुए कहती है-
मृत्यो: पदं योपयन्तो यदैत द्राघीय आयु: प्रतरं दधाना:
आप्यायमाना: प्रजया धनेन शुद्धा: पूता: भवत यज्ञीयास:
इस प्रकार का आनन्द परिपूर्ण जीवन योग और प्राणायाम से प्राप्त होता है। हमारा प्राचीन समृद्ध साहित्य प्राण और प्राणायाम की महिमा से भरा पड़ा है।
अथर्ववेद के ऋषि प्राण के विषय में कहते हैं-
प्राणाय नमो यस्य सर्वमिदं वशे।
यो भूत: सर्वेश्वरो यस्मिन् सर्वं प्रतिष्ठितम्। -अथर्व 11.4.1
हे प्राण! तू जगदाधार है, तुझे हमारा नमस्कार है। तू ही सब लोक लोकान्तरों का प्रकाशक है। तू ही समस्त सृष्टि का आधार है।
प्राणमाहुर्मातरिष्वानं वातो प्राण उच्यते।
प्राणो भूतं भव्यं्च प्राणे सर्वं प्रतिष्ठितम्।। - अथर्व 11.4.15
प्राण जीवन दाता है। समस्त आकाश में वायुरूपेण व्यापक है। भूत, वर्तमान और भविष्यतम् तीनों काल उसमें ही स्थित हैं।
प्राण जीवन का मूल आधार है और शरीर में इसके रहते ही भोग और अपवर्ग का सम्पादन सम्भव है। स्थूल इन्द्रियों के समस्त व्यापार प्राणों पर ही अवलम्बित हैं। सुषुप्ति की अवस्था में इन्द्रियों के सब व्यापार विलीन हो जाने की स्थिति में भी प्राण अपना कार्य करता रहता है। वह सतत् जागरूक रहता हुआ अहर्निश अपने जीवन प्रदान रूप व्यापार में संलग्न रहता है। शरीर की सब चेष्टाएं प्राण के आधार पर ही हुआ करती हैं। शरीर में प्राण के बिना अकेला जीवात्मा कुछ नहीं कर सकता। भूख, प्यास जैसी शारीरिक क्रियाएं भी प्राण के कारण ही होती है।
ऐसे शक्तिशाली, जीवन प्रदाता प्राणों को नियन्त्रित कर आनन्दमय, उल्लासमय, ऊर्जामय, शतायुष्क श्रेष्ठ जीवन प्राप्त करने के लिये प्राणयाम का वरदान ऋषियों और योगियों ने हमें प्रदान किया। वत्र्तमान काल में परम पूज्य स्वामीजी इस विद्या का प्रकाश सम्पूर्ण विश्व में फैला रहे हैं -
मनु जी ने कहा था -
दह्यन्ते ध्मायमानानां धातूनां हि यथा मला:
तथेन्द्रियाणां दह्यन्ते दोषा: प्राणस्य निग्रहात्।। - मनुस्मृति 6/71
जैसे अग्नि में तपाने से सुवर्णादि धातुओं का मल नष्ट होकर शुद्ध होते हैं, वैसे प्राणायाम करके मन आदि के दोष क्षीण होकर निर्मल हो जाते हैं। योग दर्शन के इस सूत्र को सदा स्मरण रखना चाहिए-
योगाङ्गानुष्ठानादशुद्धिक्षये ज्ञानदीप्तिराविवेक ख्याते:।। -योगसूत्र 2/28
जब मनुष्य प्राणायाम करता है तब प्रतिक्षण उत्तरोत्तर काल में अशुद्धि का नाश और ज्ञान का प्रकाश होता जाता है। जब तक मुक्ति हो तब तक उसके आत्मा का ज्ञान बराबर बढ़ता जाता है।
पूज्य स्वामीजी ने उन असाध्य कहे जाने वाले अथवा आनुवंशिक रोगों को भी अनुलोम-विलोम, कपालभाति, भ्रामरी, शीतली आदि प्राणायामों द्वारा मूल से समाप्त कर संसार के बड़े-बड़े आधुनिक चिकित्सा शास्त्रियों को विस्मित कर दिखाया है।
प्राण शक्ति को प्राप्त करने के अनेक माध्यम हैं, जिन्हें बुद्धिमान् जन इन विभिन्न स्रोतों से प्राप्त कर सकते हैं।
1. सौर प्राणशक्ति- सूर्य देवता से यह प्राण शक्ति प्राप्त होती है। इसके लिये प्रतिदिन सूर्य प्राणायाम, सूर्य नमस्कार, सूर्य उपासना, सूर्य योग, सूर्य चक्रवेधन करना चाहिये।
2. वायु प्राण शक्ति के लिये सरिता के तटपर खुले उद्यान में, स्वच्छ स्थान में, स्वच्छ हवा में प्रतिदिन प्रात: भ्रमण, पूर्व की ओर मुख करके सन्ध्योपासना और प्राणायाम करना चाहिए।
3. भूमि से प्राण शक्ति की प्राप्ति के लिये निर्दोष पवित्र भूमि पर प्रात: नंगे पैर टहलना। भूमि पर कुशासन आदि पर बैठकर ईश्वर का ध्यान करना। क्योंकि मानव जितना भूमि के समीप रहेगा उतनी-उतनी उसकी प्राणशक्ति में वृद्धि होती जायेगी। इसीलिए भूमि को माता कहकर मानवन्दना की गयी है -
माता भूमि: पुत्रोऽहं पृथिव्या:’
इनके निरन्तर अभ्यास से समस्त आधियों, व्याधियों पर विजय प्राप्त की जा सकती है। योग और आयुर्वेद हमारे प्राचीन ऋषियों की साधना, तपस्या, अनुसन्धान और वैज्ञानिक, आध्यात्मिक चिन्तन का अनुपम उपहार है। योग एक जीवन दर्शन है, योग आत्मानुशासन है। दार्शनिकों ने हमारे इस देह की पंचकोशों के रूप में सुन्दर व्याख्या की है। और इनके अत्यन्त सुन्दर, सात्त्विक, दिव्य रूप के निर्माण के लिए भी अनेक उपाय निर्दिष्ट किये हैं। इन्हें इस रूप में संक्षेप में देखा जा सकता है -
1. अन्नमय कोश - स्थूल शरीर - युक्ताहार विहार।
2. मनोमय कोश - मन - ध्यान।
3. प्राणमय कोश - प्राण - प्राणायाम।
4. विज्ञानमय कोश - बुद्धि - गायत्रीर्यादि का जप, उद्गीथ, ओंकारोपासना।
5. आनन्दमय कोश - आत्मा - समाधि।
यह एक ऐसा निभ्र्रान्त, अतिसुन्दर, अतिपवित्र मार्ग है जिस पर चलकर रोग रहित श्रेष्ठ जीवन प्राप्त किया जा सकता है।
इसके अतिरिक्त विधाता ने तुलसी, गिलोय, सोमलता आदि असंख्य जड़ी, बूटियों, लताओं, औषधीय पादपों का उपहार संसार को दिया है, जिनका उचित प्रयोग करके जीवन हर प्रकार से सुखमय हो सकता है।
मानव जितना-जितना प्रकृति माता के समीप रहेगा उतना-उतना ही आनन्दमय जीवन प्राप्त करेगा, इसमें कोई सन्देह नहीं है।
 

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