प्राचीनतम संपूर्ण चिकित्सा विज्ञान-आयुर्वेद
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महामहोपाध्याय डॉ. महावीर,
प्रति-कुलपति, पतंजलि विश्वविद्यालय, हरिद्वार
वर्तमान समय में पाश्चात्य चिकित्सा प्रणाली ‘एलोपैथी’के व्यापक प्रचार, प्रसार और वैभव को देखकर भ्रम होने लगाता है कि यह संसार की प्राचीनतम सर्वोत्तम चिकित्सा पद्धति है। जबकि वास्तविकता यह है कि आयुर्वेद संसार का प्राचीनतम एवं संपूर्ण चिकित्सा विज्ञान है। वेदों से उत्पन्न एवं अनेक ऋषियों, आचार्यों एवं तपस्वियों की सुदीर्घ साधना तथा अनुसन्धान से परिपुष्ट आयुर्वैदिक चिकित्सा का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक एवं बहुआयामी है। सुश्रुत में आयुर्वेद की उत्पत्ति परमात्मा से मानी गयी है।
इह खल्वायुर्वेदमुपाङ्गमथर्ववेदस्यानुत्पाद्यैव प्रजा:
श्लोकशत सहस्रमध्यायसहस्रं च कृतवान् स्वयम्भू:। सु.सू. 1/10
सुश्रुत के इस वचन में कहा है कि आयुर्वेद, अथर्ववेद का उपांग है। उसे स्वयम्भू ने प्राणियों के उत्पन्न करने से पूर्व ही रचा है।
गोपथ ब्राह्मण में कहा है- ‘येऽथर्वाणस्तद् भेषजम्।’गोपथ ब्रा.पू. 3/4/ जो अथर्वा है, वह भेषज है। भेषज कहते हैं प्रतिकूल गति के प्रतिषेध या प्रतिकार को। ऐसा ही तात्पर्य अथर्वा का महर्षि यास्क ने भी अपने निरुक्त में निर्वचन करते हुए प्रदर्शित किया है- ‘‘थर्वतिश्चरतिकर्मा तत्प्रतिषेध:’’ निरूक्त 11/19
प्रतिषेध, प्रतिकार, प्रतिक्रिया ये पर्यायवाची शब्द हैं, इन्हीं को भेषज भी कहते हैं, जबकि प्रतिकूल गति के रोकने में प्रयुक्त किए हों। इससे शरीर के अन्दर हुई प्रतिकूल गतियों-व्याधियों और बाह्य जगत् की प्रतिकूल गतियों, शीतोष्ण, वर्षा के उपद्रवों एवं पृथ्वी, जलादि के दोषों चन्द्र, सूर्य, वायु आदि से हुए ऋतु विषमता आदि का प्रतिकार या भेषज ही अथर्वा है।
नाना प्रकार के रसायनों, भस्मों औषधियों की तरह शल्य चिकित्सा आदि का वर्णन वेद मन्त्रों और चरक, सुश्रुत आदि आयुर्वैदिक ग्रन्थों में हुआ है। उदाहरण रूप में स्वर्ण भस्म को ही ले लें। इसे रसायन, अमृततुल्य, शीतल, कान्तिदायक, शुक्रप्रद और क्षयहर माना जाता है। इसका वर्णन यजुर्वेद में उपलब्ध होता है-
आयुष्यं, वर्चस्यं, रायस्पोषमौद्भिदम्।
इदं हिरण्यं वच्र्चस्वदज्जैताया विशतादु माम्।। यजु. 34/5
अर्थात् यह सुवर्ण आयु के लिये हितकर है, कान्तिदायक है, शक्ति तथा पुष्टि का देने वाला है। रोगों से विजय प्राप्त करने के लिये यह सुवर्ण मुझे सदा प्राप्त हो। मैं सदा उसका सेवन करूं।
सुवर्ण का कितना सुन्दर वर्णन है। इससे यह भी प्रमाणित होता है, कि जितने प्राचीन चार वेद हैं उतना ही प्राचीन आयुर्वेद भी है।
भारतीय रसायनाचार्यों ने ही नहीं वरन् योरोप के वैज्ञानिकों ने भी स्वर्ण की ऐसी ही प्रशंसा की है।
यूरोप के प्रसिद्ध विद्वान् डॉ. डब्ल्यू.टी.फर. एम.डी. ने अपनी पुस्तक "Precious stones for curative weor" में स्वर्ण के औषधीय गुणों Raemedial uses के विषय में लिखा है- “Gold is an admirable remedy for constitutions broken down by the combined influence of syphilis and mercury.”
अर्थात् यह स्वर्ण क्षयपीडि़त रोगी के लिए अति प्रशंसनीय औषध है। यहीं तक नहीं, आगे चलकर वे लिखते हैं- मैंने स्वर्ण से बहुत से उन्माद के रोगियों को अति शीघ्र और पूर्णत: अच्छा किया है।
श्री हंसराज अग्रवाल- रसायन विद्या का वर्णन करते हुए लिखते हैं। कज्जली, पारा, लोहा, सोना आदि सभी औषध रूप में प्रयुक्त होते थे।’हमारी सभ्यता और विज्ञान’प्रथम संस्करण पृ. 115
किवंस कॉलेज के प्राध्यापक रॉयल (Royal) कहते हैं कि उनकी रासायनिक निपुणता भी कुछ कम न थी। ‘‘दि लैण्ड ऑफ दि वेदाज पर्यटक अलबेरूनी कहती हैं कि वे हिन्दू कीमिया की भांति एक अन्य विद्या भी जानते हैं, जिसे रसायन कहते हैं। इसका सिद्धान्त निराश रोगियों को पुन: स्वस्थ करना और वृद्धों को तरूण बनाना है। Albernui's India' Vol pp. 188
अर्थववेद में सूर्य किरण चिकित्सा, जल चिकित्सा, मृत्तिका चिकित्सा, अग्नि चिकित्सा आदि का सुन्दर वर्णन है। जल चिकित्सा परक यह मन्त्र पठनीय है- ‘अप्स्वन्तरमृतमप्सु भेषजम्’अथर्व. 1/4/4
अर्थात् जलों में अमृत है, जीवन देने वाली शक्ति है और जलों में भेषज भी है। अथर्ववेद में ‘शल्य चिकित्सा’का वर्णन इस प्रकार है-
या ते रूद्र इषुमास्यदंगेभ्यो हृदयाय च।
इदं तामद्य वयं विषूचीं विवृहामसि।। अथर्व. 6/90/1
शरीर के अन्दर किसी शस्त्र का टुकड़ा घुस जाने पर उसे शीघ्र से शीघ्र शल्यक्रिया से बाहर निकाल देना चाहिए, क्योंकि वह शरीर में, रूधिर में तथा मांस और हड्डी के अन्दर रहकर विष विकार- विष जैसे प्रभाव को फैलाकर जीवन घातक बन जाता है। अनेक पाश्चात्य विद्वानों ने भी हमारी शल्य चिकित्सा, सर्जरी और अस्थि विद्या की भूरि-भूरि प्रशंसा की है।
श्री बेबर लिखते हैं- आज भी पाश्चात्य विद्वान् भारतीय शल्य चिकित्सा से बहुत कुछ सीख सकते हैं। उन्होंने कटी हुई नाक के जोडऩे की विधि भारतीयों से सीखी थी (“Weber's Indian Literature” pp.26)
श्री मेक्डानल- भी इसी का समर्थन करते हैं- नाक का आपरेशन और कृत्रिम नाक बनाना अंग्रेजों ने भारतीयों से विगत शताब्दी में सीखा था। (“History of Sanskrit Literature" pp.247)
सर डब्ल्यू. हण्टर के कथनानुसार- हिन्दू नाक, कान आदि के चीर-फाड़ और उनकी कृत्रिम रचना में विशेष निपुण थे। जिसे कि योरोपियन सर्जनों ने उनसे लिया है। प्राचीन भारतीय अंगच्छेद करते थे और रुधिरस्राव को रोक सकते थे, पथरी निकालते थे, अन्त्रवृद्धि, भगन्दर, नाड़ी व्रण एवं अर्श को वे ठीक कर देते थे। वे गर्भ एवं स्त्रियों के रोगों के सूक्ष्म आपरेशन करते थे। (“Indian Gazetteer" India, pp.220)
डॉ. सील- बतलाते हैं कि यहां विद्यार्थियों को सिखाने के लिये शवों का आपरेशन होता था। इतिहासकार एल्फिन्सटन (‘‘ओझाजीकृत मध्यकालीन भारतीय संस्कृति’’पृष्ठ 102) की सम्मति है कि भारतीयों का शल्यशास्त्र उसी कमाल का है- जैसी कि उनकी औषधियां।
पादरी पीटर पर्सिकल लिखते हैं:- उन (हिन्दुओं) की प्राचीन पुस्तकों में 127 प्रकार के चीरफाड़ के अस्त्रों का वर्णन है। ("History of India” pp.147)
विदुषी मेनिंग बतलाती हैं:- प्राचीन आर्यों के अस्त्र इतने तीव्र थे कि लम्बाई में बाल को चीर कर दो भाग कर देते थे। ("The Land of the Vedas" pp.39)
‘सुश्रुत’में शल्य विद्या का बहुत वर्णन मिलता है। ("Ancient and Medaeval India" Vol II pp. 346)
‘भोज प्रबन्ध’ में लिखा है कि राजा के सिर में बहुत दर्द होता था। बहुत चिकित्सा कराने पर भी उसे आराम न हुआ। एक दिन उसके दरबार में दो वैद्य आए, जिन्होंने मस्तिष्क का आपरेशन किया और फिर संजीवनी से उनकी मूर्छा को दूर कर दिया। (ओझाजीकृत ‘‘मध्यकालीन भारतीय संस्कृत पृष्ठ 96)
इसी प्रकार गोडल के ठाकुर साहब द्वारा लिखित ‘‘मानस विज्ञान’’में लिखा है-जीवक महात्मा बुद्ध का निजी वैद्य था। उसने भी एक बार कुशलता से उनकी खोपड़ी का आपरेशन (Cranical Surgery) किया था। (साप्ताहिक ‘‘श्री वेंकटेश्वर समाचार’’बम्बई का ‘‘दीपमा, लिकांक’’वर्ष 45, शुक्रवार 21 वीं अक्टूबर, सन् 1949 ई0 संख्या 25, पृष्ठ 71)
महाभारत में भीष्म के शरशय्या पर लेटने पर दुर्योधन का शल्य निकालने वाले वैद्यों को लाने का उल्लेख है। (वही, पृष्ठ 71 14 वही, पृ0 71)
सुश्रुत ने यन्त्रों, जो चीरने के काम में आते हैं, की संख्या 101 मानी है, परन्तु वाग्भट्ट ने 115 मानकर आगे लिख दिया है कि कर्म अनिश्चित है, इसलिए यन्त्रसंख्या भी अनिश्चित है। वैद्य अपने आवश्यकतानुसार यन्त्र बना सकता है। शस्त्रों की संख्या भिन्न-भिन्न विद्वानों ने भिन्न-भिन्न मानी है। यन्त्रों का विस्तृत वर्णन भी उन ग्रन्थों में दिया है। अर्श, भगन्दर, योनिरोग, मूत्रदोष, आर्तव दोष, शुक्रदोष आदि के लिए भिन्न-भिन्न यन्त्र प्रयुक्त होते थे। व्रणबस्ति, बस्तियन्त्रं, शलाका यन्त्र, नखाकृति, गर्भशंकु जीवित शिशु को गर्भाशय से बाहर निकालने के लिये, सर्पमुख आदि सीने के लिये बहुत से यन्त्र है। व्रणों और उदरादि सम्बन्धी रोगों के लिये भिन्न-भिन्न प्रकार की पट्टी बांधने का भी वर्णन किया गया है। (सुश्रुत सं0 25/99)
कृमि-चिकित्सा
शरीर के अंगों में कृमियों का आक्रमण न हो, कदाचित् किसी अंग के कृमियों से आक्रान्त हो जाने पर उन्हें दूर करना एवं खान-पान आदि वस्तुओं में कृमियों के संसर्गज दोषों और उनसे हुए प्रभावों को हटाना कृमि-चिकित्सा है। इसका वर्णन अथर्ववेद काण्ड 5, सूक्त 23 और 29 में है।
संक्रामक रोग की चिकित्सा
किसी मलिन, गलित अंगों वाले और अंग भंग रोगी के सम्पर्क- सहवास तथा सहभोग से अनेक स्पृश्य रोग हो जाते हैं। उनकी चिकित्सा अथर्ववेद काण्ड 7, सूक्त 65 (67) में वही है।
श्यावदता कुनखिना वण्डेन यत् सहसिम।
अपामार्ग त्वया वयं सर्वं तदपमृज्महे।। (अर्थव. 7/65/3)
अर्थ- (अपामार्ग) हे अपामार्ग ! (वयम्) हम (शयावदता) काले गन्दे दांत वाले के साथ (कुनखिना) गले हुए नख वाले के साथ (वण्डेन) विकलाङ्गी गंजे आदि दूषित अंग वालों के साथ (यत्) जो (आसिम) बैठते उठते और खाते पीते हैं, (तत् सर्वम्) उन सब दोषों को (त्वया) तेरे द्वारा (अपमृज्महे) अपमार्जित करते हैं। काले गन्दे दांत वाले के साथ बैठने उठने, रहने खाने-पीने और श्वास में उसके वायु के अन्दर जाने से उसके दन्तपूय (पायोरिया) प्रभृति रोग अपने में ही हो सकते हैं। इन रोगों के दोषों से अपामार्ग (चिड़चिड़ा, पोगा) औषधि द्वारा रक्षा हो सकती है, ऐसा वेद का कथन है।
‘‘अपामार्ग सरस्तीक्ष्ण:..........’’ (भावप्रकाश नि0) प्रभृति आयुर्वेदिक निघण्टुओं में अपामार्ग को खाज, दद्रु, कुष्ठ, कृमि और विष-नाशक बतलाया है।
कुष्ठचिकित्सा
मांस, मेद के दोष में त्वचा में लालमिश्रित श्वेत, या केवल श्वेत चिन्ह, चकते, श्वेतकुष्ठ हो जाता है। इनकी चिकित्सा ‘अर्थववेद काण्ड 1, सूक्त 23 में है।
‘अर्थववेद’ काण्ड 1, सूक्त 24 में ‘केवल श्वेतकुष्ठ की चिकित्सा का वर्णन है। संग्राम में लगे शस्त्र के घावों की चिकित्सा का वर्णन अथर्ववेद काण्ड 2, सूक्त 27 में है।
पशु चिकित्सा
अथर्ववेद काण्ड 6, सूक्त 59 में समस्त पशुओं की चिकित्सा का वर्णन है। इतिहासज्ञ बेबर कहते हैं- ‘‘वैदिक काल में लोग पशु-शरीर-रचना से पूर्णतया परिचित थे। उन्होंने उनके प्रत्येक अंग के नामों तक का वर्णन किया है। (“Webers Indian Literature pp. 263-264)
दो प्राच्य विद्वान् भी इसका समर्थन करते हैं:- श्री हंसराज अग्रवाल एम.ए. तथा श्री मनोहर लाल गौड़ एम.ए.एम.ओ.एल., शास्त्री लिखते हैं:- ‘‘औषधियों का रोगों पर प्रभाव, औषधियों के अनेंकों नाम, बीमारियों के नाम अथर्ववेद में बहुतायात से मिलते हैं। ऋग्वेदादि में भी कहीं-कहीं आते हैं। आयुर्वेद में अर्वाचीन प्राचार्यों ने भी इस विज्ञान की उत्पत्ति अथर्ववेद से ही मानी है। (‘‘हमारी सभ्यता और विज्ञानकला’’पृ0 113)
डॉ. गौरीशंकर हीराचन्द ओझा डी.लिट्. ‘साहित्यवाचस्पति’ ने भी अपने व्याख्यान में कहा था- ‘‘अर्थववेद में रोगों के नाम और उनके लक्षण तक ही नहीं, अपितु मनुष्य के शरीर की हड्डियों तक की पूरी संख्या दी है।’’ (‘‘मध्यकालीन भारतीय संस्कृति’’ पृ0 95।)
वैदिक स्वाध्याय की परम्परा के शिथिल और नष्टप्राय हो जाने से भले ही किसी को यह कहने का अवसर मिले कि ‘अमुक’चिकित्सा प्रकार पाश्चात्य वायु में पले नवीन मस्तिष्कों की उपज है, पर वास्तव में ज्ञान और विज्ञान सभी का एकमात्र केन्द्र ‘वेद’को ही मानना पड़ेगा और वैदिक आयुर्वेद को ही ‘‘वैज्ञानिक-चिकित्साप्राणाली’’ का मूल स्रोत कहना होगा।
अथर्ववेद एवं आयुर्वेद के प्राचीन ग्रन्थों में प्रतिपादित इस विद्या के विस्मित कर देने वाले उदाहरण हमें रामायण, महाभारत, पुराण आदि में प्रचुर मात्र में प्राप्त होते हैं। लंका के युद्ध में मूच्र्छाग्रस्त श्री लक्ष्मण को नव जीवन प्रदान करने वाली, वीर हनुमान् द्वारा लाई गई- और सुषेण वैद्य द्वारा प्रयुक्त की गई संजीवनी नामक औषधि सिद्ध करती है कि वह आयुर्वेद विद्या का स्वर्णिम काल था। महाभारत के युद्ध में क्षत-विक्षत योद्धाओं की चिकित्सा इसी पद्धति से की जाती थी।
और केवल आयुर्वेद के नाम से प्रसिद्ध ग्रन्थ ही नहीं, अपितु महर्षि पतञ्जलि द्वारा प्रदत्त योग का ज्ञान। यम-नियमों के साथ-साथ आसन, प्राणायाम और ध्यान की प्रक्रिया, प्रत्येक मानव को शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक कष्टों से पूर्णत: मुक्त कराने का अमोघ मार्ग है। यह कभी निष्फल हो ही नहीं सकता। वस्तुत: भारतीय आचार्य प्रत्येक विषय के सूक्ष्माति सूक्ष्म रूप को अपनी ऋतम्भरा प्रज्ञा से ग्रहणकर, विश्वकल्याण के लिए उसका उपदेश करते थे। उनका एक ही उद्देश्य था मानवमात्र को आधि-व्याधि मुक्त बनाना। भारत में प्राण विद्या पर जो अनुसन्धान हुआ है वह दुनियां में कहीं नहीं। अग्नि-वायु-जल-पृथ्वी-आकाश इन पञ्च तत्त्वों से जुडक़र प्रकृति के सतत साहचर्य से और परमपिता परमात्मा द्वारा प्रदत्त वृक्ष, वनस्पति, गुल्म, लता, ताम्र, रजत, सुवर्ण, पारद आदि से पूर्ण स्वास्थ्य प्राप्त करना यही तो है- भारतीय चिकित्सा पद्धति। योग, प्राणायाम, प्रकृति के साथ-साथ यज्ञादि से उत्तम आरोग्य की प्राप्ति, यह भी हमारी धरोहर है।
एक वह स्वर्णिम काल था, जब हम प्रतिदिन प्रात: सायं योग, के साथ-साथ यज्ञ करते थे, प्रकृति माता की गोद में रहते थे। प्रात: उदित होते हुए सूर्य की किरणों से नवजीवन प्राप्त करते थे। सात्त्विक भोजन से शरीर भी शुद्ध और मन भी पावन होता था। हिंसा, आतंक, द्वेष, मनोमालिन्य आदि दोष हमें स्पर्श नहीं कर पाते थे। हमारी भूमिका विश्वगुरु की थी। मद्यपान, मांसाहार, धूम्रपान, मानवों की नहीं राक्षसों की प्रवृत्तियां थीं। किन्तु महाकवि कालिदास के अनुसार-
कस्यात्यन्तं सुखमुपनतं दु:खमेकान्ततो वा।
नीचैर्गच्छत्युपरि च दशा चक्रनेमिक्रमेण।।
अर्थात् किसके जीवन में सदा सुख या दु:ख रहता है। रथचक्र के समान मानव जीवन की दशा भी नीचे, उपर होती रहती है।
परतन्त्रता के अन्धकारपूर्ण कालखण्ड में हमारा ज्ञान, विज्ञान, स्वाभिमान, आत्मगौरव निस्तेज हो गया। हमारा चिकित्सा विज्ञान का अक्षय कोश, नालन्दा, तक्षशिला जैसे विश्व प्रसिद्ध विश्वविद्यालयों के पुस्तकालयों में विद्यमान था जिसे मानवता के शत्रुओं ने जलाकर भस्म कर दिया और उसके बाद हम प्रत्येक विषय में पश्चिम की ओर आशा भरी नजरों से निहारने लगे, यही स्थिति चिकित्सा विज्ञान की हुई।
जब हमारे पास लाखों वर्षों का सर्वथा दोष रहित, अद्भुत चिकित्सा विज्ञान है तो हम पुन: पराधीनता के बन्धन में क्यूं बन्धें। यदि सचमुच हमें विश्वगुरू बनना है। रोग, शोकमुक्त, दरिद्रता रहित, वैभवशाली, ज्ञानालोक से आलोकित आत्मनिर्भर भारत का निर्माण करना है तो अपने प्राचीन ज्ञान-विज्ञान, सभ्यता-संस्कृति, जीवन-पद्धति को स्वीकार करना ही होगा।
पूज्य स्वामी रामदेव जी एवं श्रद्धेय आचार्य बालकृष्ण जी इसी दिव्य-संकल्प एवं प्रचण्ड पुरुषार्थ के साथ योग और आयुर्वेद की पताका हिमालय के सर्वोच्च शिखर पर फहराते हुए विश्वमानव को रोग-शोक-सन्ताप-भय-दारिद्रय से मुक्त कराने के महान् कार्य में अहर्निश समर्पित हैं। किसी नीतिकार का वचन आप दोनों महापुरुषों के जीवन में चरितार्थ होता है-
निन्दन्तु नीति निपुणा: यदि वा स्त्तुवन्तु,
लक्ष्मी: समाविशतु गच्छतु वा यथेष्ठम्।
अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा,
न्याय्यात् पथ: प्रविचलन्ति पदं न धीरा:।।
अर्थात् नीति निपुण जन निन्दा करें या स्तुति, लक्ष्मी आये अथवा चली जाये। आज ही मृत्यु हो अथवा युगों बाद, धैर्यशाली महापुरुष श्रद्धापूर्वक स्वीकृत अपने श्रेष्ठ मार्ग से कभी विचलित नहीं होते।
यह एक युगान्तरकारी क्षण है। वैश्विक महामारी ने हमें झकझोर दिया है। ऐसे संकटकाल में ही आन्तरिक दिव्य गुणों का प्रकाशन होता है।
संसार का त्रिकाल सत्य है- ‘सत्यमेव जयते’सत्य विजयी होगा, भारत विश्वविजयी होगा, फिर से इस देश की धूली को संसार के लोग श्रद्धा से अपने माथे का चन्दन बनायेंगे। केवल विकल्प रहित संकल्प के साथ आत्यन्तिक पुरुषार्थ एवं आत्मगौरव की आवश्यकता है।
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