उदर व पित्तज रोग निवारक आयुर्वेदिक घटक गूलर

उदर व पित्तज रोग निवारक आयुर्वेदिक घटक गूलर


   अथर्ववेद के अनुसार गूलर पुष्टिदायक द्रव्यों में सर्वश्रेष्ठ है। कहा गया है कि गूलर फल के चूर्ण तथा विदारी कन्द के कल्क का घी मिश्रित दूध के साथ सेवन करने से 'वृद्धोऽपि तरुणायतेअर्थात् बूढ़ा भी तरुण के समान हो जाता है। हेमदुग्धक, जन्तुफल, सदाफल आदि नामों से  प्रसिद्ध गूलर के वृक्ष कृषिजन्य या वन्यज दोनों अवस्थाओं में 2000 मी. की ऊंचाई तक सर्वत्र सुलभ हैं। जंगलों एवं नदी-नालों के किनारे इसके वृक्ष अपेक्षाकृत अधिक पाए जाते हैं। इस वृक्ष में किसी भी स्थान पर चीरा देने से श्वेत आक्षीर (दूध) निकलता है, जो थोड़ी देर रखने पर पीला हो जाता है, इसलिए इसे हेमदुग्धक और फलों में अनेक कीट होने से जन्तुफल तथा बारहमासी फल देने के कारण सदाफल कहते हैं। चरक संहिता में आसवयोनि की गणना में उदुम्बर फल का उल्लेख मिलता है। ब्राह्मरसायन निर्माणार्थ उदुम्बर पत्र का विधान है। अर्श-विसर्प में परिसेचन एवं प्रदेहार्थ अन्य द्रव्यों के साथ उदुम्बर का उल्लेख मिलता है। गर्भपात न हो, इस हेतु सुश्रुत ने उदुम्बर-शृंग को दुग्ध के साथ सेवन करने का विधान बतलाया है। व्रणबन्धनार्थ उदुम्बर त्वक् और अर्बुद पर उदुम्बर पत्र घिसने का विधान है। इसके अतिरिक्त सुश्रुत के न्यग्रोधादि-गणों में तथा गर्भरक्षण, व्रण, बन्धन आदि प्रयोगों में इसका उल्लेख है।
बाह्यस्वरूप
यह लगभग 18 मी तक ऊँचा मध्यमाकार, आक्षीरी, अनियमित शीर्ष युक्त, बहुवर्षायु, शाखाप्रशाखायुक्त, सदाहरित वृक्ष है। इसका तना लम्बा एवं मोटा तथा कुछ टेढ़ा होता है। इसकी शाखाएं पाश्र्वों में न फैलकर प्राय: सीधी ऊपर की ओर बढ़ती हैं, छाल रक्ताभ-धूसर से गुलाबी-भूरे वर्ण की तथा चिकनी होती है। इसके पत्र वट पत्र सदृश, एकान्तर, 8-19 सेमी लम्बे, 3.2-8.5 सेमी चौड़े, अण्डाकार, तीन सिराओं से युक्त, गहरे हरे रंग के, अरोमिल तथा चमकीले होते हैं। इसके फल अंजीर के समान दिखाई देते हैं। अपक्वावस्था में हल्के हरितवर्ण के और पकने पर लाल हो जाते हैं। पक्व फल चमकदार होते है तथा काटने पर इसमें जन्तु निकलते हैं। वास्तव में फल ही पुष्पाधार है। इसी में नर और मादा पुष्प ऊपर-नीचे स्थित होते हैं। इसका पुष्पकाल दिसम्बर से जनवरी तथा फलकाल मार्च से जून तक होता है।
आयुर्वेदीय गुण-कर्म एवं प्रभाव
  • गूलर की छाल एवं कच्चे फल अग्निसादक, स्तम्भक, मूत्र संग्रहणीय, प्रमेहनाशक एवं दाह-प्रशामक होते हैं। बाह्य-प्रयोग में छाल एवं पत्र-क्वाथ शोथहर, वेदना स्थापन, वण्र्य एवं व्रणरोपण हैं। पक्व फल श्लेष्म नि:सारक, मन: प्रसादकर, शीतल, रक्त संग्राही, किन्तु कृमिकारक, रक्तपित्त, मूच्र्छा तथा दाहनाशक है। निर्यास (दूध) शीतल, स्तम्भक, रक्तसंग्राही, पौष्टिक एवं शोथहर है। गूलर, बड़, पीपल ये सब व्रण के लिए हितकारी, संग्राही, भग्न का संधान करने वाले, रक्तपित्तनाशक, दाह तथा योनि रोगों को दूर करने वाले होते हैं।
  • गूलर का आक्षीर वाजीकर, पूयरोधी, स्तम्भक, मधुर, शोथहर, प्रशामक, अल्परक्तचापकारक, हृदय-अवसादक, परजीवाणुरोधी, अल्प रक्तशर्करा कारक, शोथहर, यकृत्-संरक्षक तथा अतिसार रोधी होता है।
  • इसके पत्रों से प्राप्त ग्लाईकोसाईड में अल्प रक्तचाप तथा हृदय-अवसादक प्रभाव दृष्टिगत होता है तथा चूहों पर इसका कोई अतिरिक्त प्रभाव दृष्टिगत नहीं होता है।
  • इसके काण्ड त्वक् से प्राप्त मद्यसार में एमीबा के प्रति परजीवाणुरोधी प्रभाव दृष्टिगत होता है।
औषधीय प्रयोग
कर्णशोथ
  • कर्णमूल शोथ पर या पित्तज शोथ पर इसके गोंद का लेप लाभकारी है।
मुख रोग
  • ूलर की छाल से बने 250 मिली काढ़े में 3 ग्राम कत्था व 1 ग्राम फिटकरी मिला कर कुल्ला करने से मुख रोगों में लाभ होता है।
कण्ठ रोग
  • ंडमाला: इसके पत्तों के ऊपर के दानों को दही में पीसकर (शक्कर मिलाकर) नित्य एक बार मधु के साथ पिलाने से गंडमाला में लाभ होता है।
उदर रोग
  • भस्मक रोग: वट की अंतर छाल को गाय के दूध में पीसकर पिलाने से छोटे बच्चों का भस्मक रोग (अत्यधिक भूख लगना) मिटता है।
  • अतिसार: 4-5 बूंद गूलर दूध (आक्षीर) को बताशे में डालकर दिन में तीन बार सेवन करने से अतिसार में लाभ होता है।
  • गूलर मूल चूर्ण को गूलरफल के साथ सेवन करने से आंव व अतिसार में लाभ होता है।
  • 3 ग्राम गूलर  पत्र चूर्ण व 2 काली मिर्च को थोड़े चावल के धोवन के साथ महीन पीसकर, काला नमक और छाछ मिलाकर  छानकर प्रात: सायं सेवन करने से अतिसार तथा ग्रहणी में लाभ होता है।
  • उदरशूल: गूलर का फल खाने से पेट का दर्द और अफारा मिटता है।
गुदा रोग
  • भगन्दर: गूलर आक्षीर (दूध) में रूई का फाहा भिगोकर नासूर और भगन्दर के अंदर रखने और उसको प्रतिदिन बदलते रहने से नासूर और भगन्दर अच्छा हो जाता है।
  • अर्श: गूलर आक्षीर की 10-20 बूंदों को जल में मिलाकर पिलाने से  खूनी बवासीर और रक्तविकार मिटता है। इसके दूध का लेप मस्सों पर भी करना चाहिए। पथ्य में प्रचुर घी का सेवन करें।
  • गूलर के 10-15 ग्राम कोमल पत्र को महीन पीसकर 250 ग्राम गोदुग्ध के दही के साथ थोड़ा सेंधानमक मिलाकर प्रात: सायं सेवन करने से भी लाभ मिलता है।
वृक्कवस्ति रोग
  • मूत्ररोग: गूलर के 8-10 बूंद दूध को दो बताशों में भरकर रोज खिलाने से मूत्ररोग मिटते हैं।
  • मूत्रकृच्छ्र: नित्य प्रात: 2-2 पके फल रोगी को सेवन कराएं।
  • प्रमेह: पित्त प्रमेह पर फलों के केवल सूखे छिलकों को (बीजरहित) महीन पीसकर समभाग मिश्री मिलाकर, 6-6 ग्राम सुबह-शाम गाय के दूध के साथ प्रयोग करें।
प्रजननसंस्थान रोग
  • श्वेत प्रदर: 5-10 ग्राम गूलर रस को मिश्री के साथ मिलाकर प्रात: सायं पिलाने से श्वेत प्रदर मिटता है।
  • रक्तप्रदर: 10-15 ग्राम ताजा छाल को कूटकर 250 मिली पानी में पकाएं। शेष पानी को छान कर यथेच्छ मिश्री व डेढ़ ग्राम श्वेत जीरा चूर्ण मिलाकर सुबह शाम पिलाएं तथा भोजन में  इसके कच्चे फलों का रायता बनाकर खिलाएं।
  • गर्भस्थापना के बाद गर्भ के स्थिर हो जाने पर गूलर के कच्चे फलों से पकाए हुए गाय के दूध से भोजन देना चाहिए, जिससे गर्भ की वृद्धि होकर गर्भपात होने की संभावना भी समाप्त हो जाती है।
  • पूयमेह: गूलर के कच्चे फलों के महीन चूर्ण में समभाग खांड मिलाकर 2 से 10 ग्राम तक, कच्चे दूध में या मिश्री मिली हुई लस्सी के साथ सेवन करने से सूजाक की प्रथम अवस्था में विशेष लाभ होता है।
  • 50 ग्राम गूलरफल चूर्ण के क्वाथ में 3 ग्राम कत्था व 1 ग्राम कपूर मिलाकर गुनगुने क्वाथ से मूत्रेन्द्रिय को धोते रहने से अंदर के जख्म भरकर मवाद आना बंद हो जाता है।
शाखा रोग
  • अवबाहुक: गूलर के आक्षीर से भावित केवांच मूल चूर्ण में समभाग जिङ्गिनि स्वरस तथा हींग मिलाकर 1-2 बूंद नाक में डालने से अवबाहुक (कंधे का दर्द) रोग में लाभ होता है।
त्वचा रोग
  • चेचक: गूलर  के पत्तों पर जो फफोले या श्यामवर्ण के दाने होते हैं, उन्हें पत्तों से निकालकर गोदुग्ध में पीस-छानकर, मधु मिलाकर प्रात: सायं पिलाने से चेचक में लाभ होता है।
  • व्रण: गूलर के दूध (आक्षीर) में बावची के बीज भिगोकर, पीसकर 1-2 चम्मच की मात्रा में नियमित लेप करने से सभी प्रकार की फुंसियाँ और घाव मिट जाते हैं।
  • उदुम्बर (गूलर) छाल को गोमूत्र से पीसकर, घी में भूनकर, गुनगुना रहने पर नासूर पर लेप कर, बांधने से गंभीर तथा अदृश्य नासूर में लाभ होता है।
  • गूलर के दुग्ध को घाव पर लगाने से घाव जल्दी भरता है।
  • गूलर की काण्ड त्वक् का क्वाथ बनाकर घाव को धोने से घाव जल्दी भर जाता है।
  • गूलर के काण्डत्वक् भस्म को घृत के साथ मिलाकर लगाने से बिवाई, मुँहासे, रोंओं की सूजन तथा प्रमेह के कारण उत्पन्न हुई फुंसियों का शमन होता है।
सर्वशरीर रोग
  • रक्तपित्त: शरीर के किसी अंग से खून बहता हो और सूजन हो तो ऐसे रोगों में गूलर एक उत्तम औषधि है। नाक से खून बहना, पेशाब के साथ रक्त आना, मासिकधर्म अधिक होना, गर्भपात आदि रोगों में इसके 2-3 पके फलों को शक्कर या खांड के साथ दिन में तीन बार देने से तुरन्त आराम हो जाता है।
  • गूलर के सूखे कच्चे फलों के चूर्ण में बराबर मात्रा में मिश्री मिलाकर 5 से 10 ग्राम तक की मात्रा में ताजे जल के साथ प्रात: सायं 21 दिन तक सेवन करने से रक्तप्रदर, अधिक रक्तस्राव, गर्भपात, रक्तप्रमेह, रक्तातिसार या ऊध्र्वग रक्तपित्त में पूर्ण लाभ होता है।
  • गूलर के 5 ग्राम सूखे हरे फलों के चूर्ण को पानी में पीसकर मिश्री के साथ पिलाने से भी रक्तपित्त में लाभ होता है।
  • 5-10 मिली पक्व गूलर फल स्वरस को मधु के साथ सेवन करने से रक्तपित्त का शमन होता है।
  • 5 मिली गूलर के पत्तों के रस में शहद मिलाकर पिलाने से रक्तपित्त मिटता है। इससे रक्तातिसार में भी तुरन्त लाभ होता है।
  • कमलगट्टे और गूलर के फलों के 5 ग्राम चूर्ण को दूध के साथ दिन में तीन बार देने से उल्टी के साथ रक्त आना बन्द हो जाता है।
  • 20-30 ग्राम गूलर के तने की छाल को पानी में पीसकर तालु पर लगाने से नकसीर बंद हो जाती है।
  • 30 ग्राम गूलर मूल को कूटकर या सूखी हुई जड़ के छिलके का क्वाथ बनाकर  नियमित रूप से तीन मास तक प्रात: सायं पिलाने से गर्भपात नहीं होता है।
  • 5 मिली गूलर पत्र स्वरस में समभाग मिश्री मिलाकर प्रात: सायं सेवन करें। कुछ समय तक सेवन करने से ऊध्र्वग रक्तपित्त में निश्चित लाभ होगा।
  • पित्त ज्वर: गूलर की ताजे मूल के 5-10 मिली रस में या जड़ की छाल के 20-30 मिली हिम (10 गुणा पानी में भिगोकर तीन घंटे बाद छानकर) में शक्कर मिलाकर प्रात: सायं पीने से पिपासा-युक्त ज्वर की शांति होती है।
  • 1 ग्राम गूलर के गोंद तथा 3 ग्राम शक्कर को मिलाकर सेवन करने से पित्त ज्वर जन्य दाह का शमन होता है।
  • पित्त विकार-गूलर के पत्तों को पीसकर शहद के साथ चाटने से पित्त विकार शांत होते हैं।
  • सूजन: गूलर की छाल को पीसकर लेप करने से भिलावे (भेला) के धुएं से उत्पन्न हुई सूजन उतर जाती है।
  • दौर्बल्य: गूलर के शुष्क फल चूर्ण का (10-20 ग्राम) सेवन करने से सामान्य दौर्बल्य का शमन होता है।
रसायन वाजीकरण
  • गूलर फल चूर्ण तथा विदारी कन्द चूर्ण को समभाग (4-6 ग्राम) लेकर मिश्री और घी मिले हुए दूध के साथ प्रात: सायं सेवन करने से पौरुष-शक्ति की वृद्धि होती है। स्त्रियां यदि सेवन करें तो समस्त स्त्री रोग दूर होकर लावण्य बढ़ता है।
प्रयोज्यांग
  • पत्र, छा, फल, काण्डत्वक्, मूल, आक्षीर तथा मूल छाल। 

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