भगवान् गुरु के द्वारा प्रदत्त अमोघ आश्वासन
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श्रद्धेय गुरुदेव आचार्य प्रद्युम्न जी महाराज
भगवान् आगे आश्वासन देते हुए कहते हैं जो व्यक्ति साम्यबुद्धि से युक्त है वह अन्त:करण की शुद्धि व ज्ञानप्राप्ति के द्वारा इस लोक में पाप और पुण्य दोनों से ही अलिप्त रहता है। अत: तू समत्वबुद्धिरूप योग का आश्रय ले क्योंकि समत्वबुद्धियोग ही कर्म के विषय में सबसे बड़ी कुशलता (चतुराई) है। इसी के प्रभाव से कर्म बन्धन-स्वभाव वाले होने पर भी व्यक्ति को बांध नहीं पाते। (गीता २.५०)
समत्व बुद्धि से युक्त जो मनीषीजन कर्मफल का त्याग करते हैं वे जन्मरूप बन्धन से मुक्त होकर दु:खविरहित (सर्वोपद्रवरहित = रोग-शोक से रहित) पद को प्राप्त कर लेते हैं। जब तेरी बुद्धि मोहरूपी दलदल को पार कर जाएगी तब तू शास्त्र के उन सब वचनों के प्रति जो तूने सुने हैं या सुनने शेष हैं, उदासीनता (निर्वेदम्) को प्राप्त हो जाएगा क्योंकि तब तुझे और अधिक सुनने की इच्छा नहीं होगी। (गीता २.५१,५२)
नाना प्रकार की परस्पर विरोधी बातें सुनने से अथवा नाना प्रकार के कर्मकाण्डों के ज्ञापक वेदवाक्यों से विचलित हुई तेरी बुद्धि जब समाधिवृत्ति में द्वन्द्वरहित, स्थिर व निश्चल होगी, तब तू साम्यबुद्धि को प्राप्त करेगा। (गीता २.५३)
भगवान् कहते हैं- जो व्यक्ति अपने संकल्प बल का प्रयोग करके विषयों से अपने आपको अलग कर लेता है उस व्यक्ति के विषय तो छूट जाते हैं किन्तु विषयों का रस नहीं छूटता। यदि किसी को अपने परम आत्म स्वरूप का दर्शन हो जाए, अनुभव हो जाए तो वह विषयों का रस भी छूट जाता है। (गीता २.५९)
अपने अधीन किए हुए अन्त:करण वाला साधक अपने वश में की हुई राग-द्वेष से रहित इन्द्रियों द्वारा विषयों में विचरता हुआ अन्त:करण की निर्मलता को प्राप्त होता है। (गीता २.६४)
अन्त:करण के निर्मल होने पर साधक के सभी दु:खों का अभाव हो जाता है, मन प्रसन्न रहने लगता है। प्रसन्न चित्त व्यक्ति की बुद्धि शीघ्र ही सब ओर से हटकर परम आत्मा में भलीभाँति स्थिर हो जाती है। (गीता २.६५)
जो व्यक्ति सब कामनाओं को त्याग कर, ममतारहित अहंकार रहित और स्पृहारहित हुआ विचरता है, व्यवहार करता है निश्चित ही उसे शान्ति प्राप्त हो जाती है। (गीता २.७१)
हे पार्थ! यही ब्राह्मी स्थिति (ब्रह्म में अवस्थान) है, इस स्थिति को प्राप्त करके व्यक्ति किसी प्रकार के मोह से प्रभावित नहीं होता अर्थात् मोह में नहीं फँसता और अन्तकाल (देह त्याग के समय) में भी इसी स्थिति में रहकर ब्रह्मनिर्वाण अर्थात् मुक्ति को पाता है। (गीता २.७२)
तुम इस यज्ञ से देवताओं को तृप्त करो और देवता तुम्हें तृप्त करते रहें। इस प्रकार एक दूसरे को पुष्ट-सन्तुष्ट करते हुए परम कल्याण को प्राप्त हो जाओगे। (गीता ३.११)
हे अर्जुन! मुझ अन्तर्यामी परम आत्मा में लगे हुए चित्त द्वारा सब कर्मों को मेरे प्रति समर्पित करके किसी भी लौकिक इच्छा से रहित, ममतारहित और दु:ख सन्ताप रहित एवं निश्चित होकर युद्ध कर। जो श्रद्धावान् पुरुष मेरे द्वारा बताई गई बातों में दोषों को नहीं ढूंढते और मेरे द्वारा स्वीकृत मत का अनुष्ठान करते हैं, वे भी कर्मों के द्वारा छोड़ दिए जाते हैं अर्थात़् कर्म उन्हें बाँधते नहीं हैं। (गीता ३.३०, ३१)
हे अर्जुन! जो व्यक्ति इस प्रकार मुझ योगेश्वर के दिव्य जन्म और दिव्य कर्मों के महत्त्व एवं रहस्य को जानता है, वह मृत्यु के पश्चात् पुनर्जन्म को प्राप्त नहीं होता, बल्कि मुझ को ही प्राप्त हो जाता है।
अर्थात् जैसे मैंने स्वेच्छा से इस मानव शरीर में अपनी प्रकृति को अपने वश में कर ऊपर से नीचे अवरोहण किया यह मेरा दिव्य जन्म कहलाया और उसी अपनी दैवी चेतना में रहते हुए जो मेरे द्वारा कर्म किए जा रहे हैं, वे मेरे दिव्य कर्म कहे जाते हैं। उसी प्रकार इस रहस्य को जानने वाले किसी भी साधक का साधना के द्वारा अपनी निम्र प्रकृति से दिव्य प्रकृति में अपराप्रकृति से चिन्मय स्वरूप पराप्रकृति में आरोहण दिव्य जन्म होगा और अपनी उस दिव्य प्रकृति में रहते हुए जो वह कर्म करेगा वह उसका दिव्य कर्म होगा। इस रहस्य को जानकर जो जीने लगता है वह मुक्त हो जाता है। पुन: उसे शरीर धारण नहीं करना पड़ता। (गीता ४.९)
जिनके राग, भय, क्रोध चले गये हैं, ऐसे व्यक्ति केवल मुझसे ओत-प्रोत और मेरे ही आश्रित रहने वाले बहुत से पुरुष तत्त्वज्ञान रूप तप से पवित्र होकर मेरे स्वरूप को प्राप्त हो गये है। (गीता ४.१०)
हे अर्जुन! जो जिस फल की अपेक्षा से मेरा आश्रय लेते हैं, मैं उनको उनकी फलाकाङ्क्षा के अनुसार स्वीकार करते हुए भजता हँू उन्हें फल प्रदान करता हूँ। जो मोक्ष चाहते हैं उन्हें मोक्ष देता हँू और जो लौकिक फल चाहते हैं उन्हें लौकिक फल। (गीता ४.११)
कर्म मुझको लीपते नहीं हैं अर्थात्- वे मुझे शुभाशुभ फल संसर्गरूप मल से दूषित नहीं करते। भाव यह है कि कोई भी कर्म मुझे बाँधते नहीं क्योंकि मेरी किसी कर्मफल के विषय में कोई इच्छा नहीं है। किसी भी प्रकार की कामना के बीच में आने से कर्म बन्धक बनते हैं। जो मुझे इस रूप में जानता है और मेरी तरह ही आचरण करता है, उसके कर्म भी बन्धन कारक नहीं होते। (गीता ४.१४)
कर्म व अकर्म में बड़े-बड़े लोग मोहित हो जाते हैं। भगवान् कहते है कि मैं तुम्हें कर्म का वह तत्त्व बताऊँगा कि जिसको जानकर तुम अशुभ से मुक्त हो जाओगे। जो कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म देखता है, वही सब मनुष्यों में ज्ञानी और वही योगयुक्त है। वही वस्तुत: सम्पूर्ण रूप से कर्मों को करने वाला है। अर्थात् कर्म करते हुए भी हम अकर्म की स्थिति में रह सकते हैं, यदि कत्र्तापन का अभिमान व फल की आशा बीच में न आयें, यदि मन-बुद्धि-शरीर-इन्द्रियों के साक्षी बन कर कर्म कर सकें, अपने अन्दर पूरे शान्त स्थिर रहते हुए कर्म कर सकें। दूसरी ओर यदि शरीर-मन-बुद्धि-इन्द्रियों के साथ आत्मा का तादात्म्य बना हुआ है तो प्रकटत: कुछ भी न करते हुए भी कर्म होते ही रहते हैं, क्योंकि जैसे 'करनेÓ में कर्तृत्व का योग रहता है वैसे ही 'न करने में भी कर्तृत्व बना रह सकता है। इस विषय में अष्टावक्र गीता में बहुत ही सुन्दर कहा है-
निवृत्तिरपि मूढस्य प्रवृत्तिरुपजायते। प्रवृत्तिरपि धीरस्य निवृत्तिफलभागिनी।।
अर्थात् मूर्खों की निवृत्ति (हठ या मोक्ष से कर्मविमुखता = अकर्म) भी वास्तव में कर्म में प्रवृत्ति है तथा पण्डित विद्वान् लोगों की प्रवृत्ति (कर्म) भी निवृत्ति (अकर्म) रूप में परिणत हो जाती है। (गीता ४,१६,१७,१८)
ज्ञानी पुरूष उसी को विद्वान् या पण्डित कहते हैं, जिसके सभी समारम्भ (कर्म) कामना व सङ्कल्प से रहित होते हैं और जिसके कर्म ज्ञानाग्रि में भस्म होकर अकर्म बन जाते हैं अर्थात् फल देने की क्षमता खो देते हैं। (गीता ४.१९)
कर्म एवं उसके फल की आसक्ति छोड़कर जो नित्यतृप्त है अर्थात् सदा अपने में विद्यमान आत्मानन्द से पूर्णतया तृप्त है अतएव निराश्रय रहता है, किसी अन्य बाह्य आश्रय की अपेक्षा नहीं रखता है, वह व्यक्ति कर्मों में अच्छी प्रकार संलग्न होते हुए भी कुछ नहीं करता है, वह सदा अकत्र्ता ही बना रहता है। (गीता ४.२०)
जो फल की इच्छा से रहित है, संयतचित्त व संयत शरीर वाला है, सब प्रकार के परिग्रह अर्थात् भोग सामग्री व तद्विषयक आसक्ति एवं अभिमान को त्यागकर केवल शारीर कर्म अर्थात् जीवन निर्वाह मात्र के लिए आवश्यक कर्म करता हुआ भी कर्मकृत बन्धन रूप पाप (कर्मजन्य दु:ख) को प्राप्त नहीं होता। (गीता ४.२१)
यदृच्छा (सहजता) से जो प्राप्त हो जाएं, उसमें ही सन्तुष्ट, हर्ष-शोक, लाभ-हानि, जय-पराजय, निन्दा-प्रशंसा आदि द्वन्द्वों से मुक्त, कर्म की सिद्धि-असिद्धि को समान मानने वाला ईष्र्यारहित पुरुष कर्म करके भी उनके सुख-दु:ख रूप फलों से लिप्त नहीं होता। (गीता ४.२२)
आगे भगवान् एक बहुत बड़ा आश्वासन देते हुए कहते है कि आसक्ति से रहित ज्ञान में जिसका चित्त (बुद्धि) स्थित हो गया है, ऐसा मुक्त पुरुष यज्ञ (लोक संग्रह) के लिए ही अपने कर्तव्य को करता है। उसके सभी कर्म विलीन हो जाते हैं, अकर्म बन जाते हैं। (गीता ४.२३)
ब्रह्म ही जिसका सर्वस्व है- अर्पण करने का साधन स्रुवा आदि भी ब्रह्म, हवि भी ब्रह्म, यज्ञमान भी ब्रह्म, अग्नि भी ब्रह्म और आहुति देना रूप क्रिया भी ब्रह्म है। इस प्रकार ब्रह्माग्नि में मानो ब्रह्म ने ही हवन किया। उस ब्रह्म कर्म में स्थित रहने वाले योगी द्वारा प्राप्त किया जाने वाला (फल) भी ब्रह्म ही है। जिसने अपने अहं को ब्रह्म में लीन कर दिया, समझना चाहिए वह ब्रह्म ही हो गया। (गीता ४.२४)
द्रव्यमय यज्ञों से ज्ञानयज्ञ श्रेष्ठ होता है, क्योंकि हे पार्थ! समस्त कर्म अन्तत: ज्ञान में परिसमाप्त होते है अर्थात् ज्ञानोत्पत्ति के साधन बनते हैं। वह ज्ञान तत्वदर्शी ज्ञानी पुरुषों से सीखना चाहिए। जिस ज्ञान को पाकर हे अर्जुन! तू इस प्रकार के मोहपाश में फिर नहीं फंसेगा। जिस ज्ञान की युक्ति से तू समस्त प्राणियों को अपने में और फिर मुझ में देखेगा। (गीता ४.३३,३४,३५)
यदि तू सब प्राणियों में सबसे बड़ा पापी भी क्यों न हो तो भी उस ज्ञान रूपी नौका से तू सब पापों से तर जायेगा अर्थात् पाप करने में अब तेरी कोई रुचि नहीं रहेगी, तू साधु स्वभाव वाला हो जायेगा। जिस प्रकार प्रज्वलित अग्नि सब प्रकार के ईंधन को भस्म कर डालती है, उसी प्रकार हे अर्जुन! ज्ञान रूपी अग्नि सभी प्रकार के कर्मो (उनके शुभाशुभ संस्कारों व उनके परिणाम) को जला डालती है। इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाली कोई दूसरी चीज नहीं है। उस ज्ञान को निरन्तर साधना करते हुए योग में सिद्धि को प्राप्त हुआ व्यक्ति कालान्तर में अपने अन्दर ही प्राप्त कर लेता है। (गीता ४.३६,३७,३८)
जो श्रद्धावान् पुरुष इन्द्रिय संयम द्वारा उस ज्ञान के पीछे लगा रहता है, उसे ज्ञान मिल जाता है। ज्ञान मिलने पर उसे तत्काल शान्ति मिलती है। हे धनञ्जय ! उस आत्मज्ञानी पुरुष को कर्म नहीं बाँधते, जिसने योग के द्वारा अपने समस्त कर्मों का त्याग कर दिया है। अर्थात् जिसने समस्त कर्म एवं कर्मफल ईश्वर को अर्पित कर दिये हैं अथवा त्याग के द्वारा जिसने अपने आपको सब चीजों से असङ्ग कर लिया हैं और ज्ञान से अपने सभी संशयों को नष्ट कर दिया है। (गीता ४.३९,४१)
भगवान् ने एक के बाद एक आश्वासनों की झड़ी लगा रखी है। भगवान् कहते हैं- जो व्यक्ति किसी से द्वेष नहीं करता, न किसी प्रकार की इच्छा रखता है, उस व्यक्ति को कर्म करते रहने पर भी नित्य संन्यासी समझना चाहिए। हे महाबाहो! जो सुख-दु:ख, लाभ-हानि, जय-पराजय, राग-द्वेष अदि द्वन्द्वों से रहित हो गया, वह अनायास ही कर्म बंधन से मुक्त हो जाता है। (गीता ५.३)
हे महाबाहो! नासमझ लोग संाख्ययोग और कर्मयोग को भिन्न-भिन्न बताते हैं, पर विद्वान् लोग ऐसे नहीं करते। किसी भी एक मार्ग पर सम्यक्तया आरूढ़ व्यक्ति दोनों के फल को प्राप्त कर लेता है। कर्मों का संन्यास करने वाले जहाँ पहुँचते हैं कर्मयोगी भी वहाँ पहुँचते हैं, किन्तु बिना कर्मयोग के संन्यास (कर्म से उपरामता) को प्राप्त कर पाना बहुत ही कठिन काम है। हाँ जो मुनि कर्मयोग से युक्त हो गया है, वह तो शीघ्र ही ब्रह्म को प्राप्त कर लेता है। (गीता ५.४,६)
जो कर्मयोग से युक्त है, जिसका अन्त:करण शुद्ध है, जो जितेन्द्रिय है, सब भूतों का आत्मा ही जिसका आत्मा बन गया है, ऐसा कर्मयोग युक्त साधक कर्म करता हुआ भी लिप्त नहीं होता। (गीता ५.७)
जो व्यक्ति फलासक्ति छोड़कर कर्मों को ब्रह्मार्पण करते हुए उनका अनुष्ठान करता है, आसक्ति विरहित होकर करता है, वह पापों से उसी प्रकार लिप्त नहीं होता जैसे पानी में उत्पन्न होने वाले कमल को पानी नहीं लगता। पानी में रहते हुए भी कमल के पत्ते पानी से अलिप्त रहते हैं। (गीता ५.१०)
जो व्यक्ति योगयुक्त हो गया, वह कर्मफल त्यागकर स्थाई एवं पूर्ण शान्ति को प्राप्त करता है। सभी कर्मों की फलासक्ति को मन से त्यागकर जितेन्द्रिय पुरुष नव द्वारों वाले इस शरीर रूपी नगर में (सब कुछ करते हुए भी) कुछ भी न करते-कराते हुए आनन्द से रहता है। (गीता ५.१३)
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