देशोद्धारक महर्षि दयानन्द सरस्वती
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महामहोपाध्याय प्रो. महावीर जी
प्रति-कुलपति, पतंजलि विश्वविद्यालय
जब भारत के आकाश में संकट की घनघोर घटा छायी हुई थी। देश परतन्त्रता पाश में जकड़ा हुआ कराह रहा था। वेद भास्कर के प्रकाश को अज्ञान, पाखण्ड रूपी राहू ने ग्रस रखा था। दीन, दलित, और नारी जाति की दयनीय दशा देखकर पत्थर भी द्रवित हो सकते थे। दरिद्रता, अभाव, अन्याय और अत्याचार रूपी राक्षस अट्टाहास कर रहे थे। ऐसे समय में सौराष्ट्र राज्य की टंकारा नगरी में स्वनाम धन्य श्री करसनजी तिवारी के घर में एक विलक्षण बालक का जन्म हुआ। नाम रखा गया मूलशंकर। मानो यही बालक आगे चलकर शंकर के मूलरूप को जानकर, समूची दुनिया को उसका सत्यस्वरूप बताकर देशवासियों को कल्याण पथ पर चलने की प्रेरणा देगा। समाज में व्याप्त समस्त कुरीतियों और समस्याओं के उन्मूलन के लिए ही मूलशंकर का अवतरण हुआ था। महाशिवरात्रि के दिन शिवालय में रात्रि का दृश्य देखकर प्रबल वैराग्य हुआ। निकल पड़े सच्चे शिव की खोज में। जंगल-जंगल, पर्वत-पर्वत भटकते रहे। स्वामी पूर्णानन्द से संन्यास की दीक्षा ली। मथुरा में ब्रह्मर्षि विरजानन्द की कुटिया में गुरुचरणों में बैठकर वेद एवं आर्ष ग्रन्थों का गहन अध्ययन किया। साधना की, देश की दुरव्यवस्था को देखकर निकल पड़े, देशोद्धारक के लिए, सोये देश को जगाने के लिए, पराधीन भारत को स्वतन्त्र कराने के लिए, लुप्त होती जा रही प्राचीन आर्ष शिक्षा पद्धति और गुरुकुलीय परम्परा को पुनरुज्जीवित करने के लिए।
महर्षि के अपने जीवन का एक-एक क्षण और रक्त का एक-एक कण राष्ट्र हित में और मानवता के कल्याण में समर्पित रहा है। ऋषिवर द्वारा किये गये महान् कार्यों का एक स्वर्णिम इतिहास है। आज स्वतन्त्र भारत में जो सकारात्मक परिवर्तन दृष्टिगोचर होता है, देश में जागृति के जो चिह्न दिखाई देते हैं, देश की स्वतन्त्रता के 75 वर्ष पूर्ण होने पर अमृत महोत्सव के रूप में राष्ट्र को शक्तिशाली, वैभवशाली बनाने का राष्ट्रनायकों का और देशवासियों का संकल्प, नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के रूप में भारतीय ज्ञान परम्परा को आगे बढ़ाने का प्रयास, अछूतोद्धार, नारी शिक्षा आदि जो उत्तमोत्तम कार्य होते हुए दिखाई दे रहे हैं, ये सब जगद्गुरु महर्षि दयानन्द सरस्वती की महती कृपा का ही फल है।
स्मरण आते हैं वे क्षण जब गुरु विरजानन्द अपने इस प्रिय शिष्य को आनन्द के एकान्त क्षणों में कहा करते थे-
''दयानन्द। आज तक मैंने बहुत से विद्यार्थियों को पढ़ाया परन्तु जो आनन्द तुम्हें पढ़ाने में आता है, वह कभी नहीं आया।’’
अपनी कुटिया से विदाई के समय उस महान् आचार्य ने अपने प्रिय शिष्य से कहा था-
'वत्स! देश में दीन-हीन जन अनेक-विधि दु:ख पा रहे हैं, जाओ! उनका उद्धार करो। मत-मतान्तरों के कारण जो कुरीतियां उत्पन्न हो गई हैं इनका निवारण करो! आर्य जनता की बिगड़ी हुई दशा को सुधारो। आर्य सन्तान का उपकार करो। ऋषि शैली का प्रचार कर वैदिक ग्रन्थों के पठन-पाठन की प्रवृत्ति को जगाओ।
प्रिय पुत्र! अन्य किसी भी सांसारिक वस्तु की मुझे चाह नहीं है।
स्वामी दयानन्द ने अपना समग्र जीवन गुरुवर की आज्ञा पालन में न्यौछावर कर दिया।
ऋषिवर के राष्ट्र कल्याण के लिए किये गये महान् कार्यों की एक सुदीर्घ श्रृंखला है। कतिपय कार्यों का उल्लेख कर अपनी लेखनी को पवित्र करना चाहूंगा-
चरित्र-निर्माता दयानन्द
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जालन्धर की बात है, सरदार विक्रम सिंह ने स्वामी जी से ब्रह्मचर्य का बल पूछा। उस समय तो स्वामी जी ने कुछ अधिक न कहा, परन्तु एक दिन जबकि वे घोड़ों की बग्घी में बैठकर चलने लगे तो स्वामी जी ने तुरन्त पीछे से बग्घी का पहिया पकड़ लिया, बग्घी आगे न बढ़ सकी। कोचवान ने घोड़ों पर चाबुक पर चाबुक जमाए पर घोड़े एक पग भी न बढ़ सके। सरदार महोदय ने पीछे देखा तो स्वामी जी पहिया पकड़े हुए थे। पहिया छोड़ते हुए स्वामी जी ने कहा- ब्रह्मचर्य के बल का एक दृष्टान्त तो आपको मिल गया।
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जब अन्तिम बार काशी गये तो एक दिन सैर से लौटते हुए एक बैलगाड़ी को कीचड़ में धंसे हुए देखा। हांकने वाला सोटे पर सोटे बरसा रहा था किन्तु बैल हिलने में भी न आते थे। महर्षि जी बड़े दु:खी हुए। स्वयं कीचड़ में उतरे। बैल छुड़वा दिये और स्वयं गाड़ी को खींचकर बाहर कर दिया। जो काम बैलों की दोहरी शक्ति न कर सकी, वह एक अकेले ब्रह्मचारी की भुजाओं ने सहज में कर दिया।
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महाराणा उदयरपुर ने स्वामी जी को कहा, आप एक-लिघौ के मन्दिर के महन्त बन जायें, यह राज्य भी उसके आधीन है। स्वामी जी ने झट उत्तर दिया, आप मुझसे सर्वशक्तिमान् परमेश्वर की आज्ञा को भङ्ग कराना चाहते हैं? मन्दिर तो क्या आपके इस राज्य से मैं एक दौड़ में पार हो सकता हूँ किन्तु विश्वविराट् परमेश्वर की आज्ञा का उल्लंघन करके, सत्य का प्रचार छोड़कर किस कोने में जाऊँगा? मैं कदापि सत्य से नहीं हट सकता।
समाज सुधारक दयानन्द
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अनूप शहर में श्री सबयद मुहम्मद मैजिस्टे्रट स्वामी जी के पास उनके विषदाता को बेड़ियों में बाँधकर लाए तो स्वामी जी ने तुरन्त यह कहकर छुड़वा दिया कि मैं बँधवाने नहीं आया, मैं तो छुड़वाने आया हूँ।
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आबू पर्वत पर डाक्टर लक्ष्मण दास स्वामी जी की घोर रोगावस्था को देख अपने उच्चाधिकारी से छुट्टी न मिलने पर नौकरी से त्याग-पत्र लिखकर देने लगे तो श्रद्धेय स्वामी जी ने लेकर उसे फाड़ दिया कि- मेरे कारण आपको हानि हो, ऐसा मुझे अभीष्ट नहीं।
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अमींचन्द नाम के व्यक्ति एक तहसीलदार थे जो कविताकार व संगीतज्ञ थे किन्तु थे बड़े दुराचारी। एक बार उसकी कविता सुनकर महर्षि जी ने कहा कि- अमींचन्द! तुम हो तो हीरे किन्तु कीचड़ में पड़े हो। स्वामी जी के इस हित वचन ने जादू का असर किया। भक्त अमींचन्द जी ने सब व्यसन छोड़कर सच्चे आर्य बनकर आर्यसमाज की महान सेवा की। उनके मधुर गीतों को सुनकर सब झूम उठते हैं।
वैदिक धर्मोद्धारक दयानन्द
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एक निर्धन ने पूछा- महाराज धनी तो दान-पुण्य आदि उपकार कर सकता है परन्तु मैं निर्धन क्या करूँ? तो स्वामी जी ने उत्तर दिया तुम अपने हृदय से पर-उपकार करो और अनिष्ट चिन्तन के भाव को निकाल दो, ऐसा करना संसार का उपकार है।
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ऋग, यजु:, साम, अथर्व नाम से प्रसिद्ध जो ईश्वररोक्तसत्य विद्या धर्मयुक्त वेद चतुष्टय (संहितामात्र मन्त्र भाग) है, वह निर्भ्रान्त नित्य स्वत: प्रमाण है। इसके प्रमाण होने में किसी अन्य ग्रन्थ की अपेक्षा नहीं। अन्य ऋषिकृत ग्रन्थ परत: प्रमाण वेदानुकूल होने पर महर्षि वेद के विरोध में अप्रमाण मानते थे।
राष्ट्रपितामह दयानन्द
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हिन्दी भाषा को स्वामी जी ने आर्य भाषा नाम दिया, गुजराती होते हुए और संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान् होते हुए भी आर्य भाषा में अपने ग्रन्थ लिखे और आर्य प्रकाश पत्र निकाला। आर्यों को आर्य भाषा सीखना अनिवार्य ठहराया। आर्य भाषा के प्रचार में महर्षि जी का स्थान सर्वोपरि है। सौ वर्ष पूर्व हरिद्वार में स्वामी जी ने कहा, इस देश वाले यदि आर्य भाषा न सीख सकेंगे तो उनसे और क्या आशा? भारत की राष्ट्र भाषा होने योग्य यही भाषा है, यह स्थान इसी को दिया जावे।
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एक बार कोई स्त्री अपने मृत बच्चे को नदी में प्रवाहित कर कफन भी उतार कर ले चली तो स्वामी जी ने ऐसा देख कारण पूछा, माता यह ऐसा क्यों? उस देवी ने उत्तर दिया कि महाराज! मैं इतनी दरिद्र हूँ कि इसके फूँकने का ईंधन और ऊपर का कफन नहीं लगा सकती। स्वामी जी जैसे धीर, गम्भीर, योगीजन की आँखों से आँसू बह निकले, हाय रे! मेरे देश! क्या तेरे अन्दर कभी दूध-घी की नदियाँ बहा करती थीं? आज एक देवी अपने मृत बच्चे पर वस्त्र का टुकड़ा (कफन) भी न दे सके?
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यूं तो ऋषिवर के अमर ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश का प्रत्येक समुल्लास एवं उसका प्रत्येक वाक्य जीवन को प्रकाश से भर देने वाला है। पुनरपि कुछ उपदेश अत्यन्त हृदयस्पर्शी हैं। जैसे-
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''अब अभाग्योदय से आर्यों के आलस्य, प्रमाद, परस्पर के विरोध से अन्य देशों के राज्य करने की तो कथा ही क्या कहनी किन्तु आर्यावर्त्त में भी आर्यों का अखण्ड, स्वतन्त्र, स्वाधीन, निर्भय राज्य इस समय नहीं है। जो कुछ है सो भी विदेशियों के पादाक्रान्त हो रहा है। दुर्दिन जब आता है तब देशवासियों को अनेक प्रकार का दु:ख भोगना पड़ता है।‘’
सत्यार्थ प्रकाश अष्टम समुल्लास
कोई कितना ही करे परन्तु जो स्वदेशी राज्य होता है वह सर्वोपरि उत्तम होता है अथवा मत-मतान्तर के आग्रह रहित, अपने और पराये का पक्षपात शून्य, प्रजा पर पिता के समान कृपा, न्याय और दया के साथ विदेशियों का राज्य भी पूर्ण सुखदायक नहीं है।
सत्यार्थ प्रकाश अष्टम समुल्लास
'जो विद्या नहीं पढा है, वह जैसा काष्ठ का हाथी, चमड़े का मृग होता है, वैसा अविद्वान् मनुष्य जगत् में नाममात्र मनुष्य कहाता है।‘
सत्यार्थ प्रकाश दशम समुल्लास
'जब से विदेशी मांसाहारी इस देश में आकर गो आदि पशुओं के मारने वाले महामायी राज्याधिकारी हुए है, तबसे क्रमश: आर्यों के दु:ख की बढ़ती होती जाती है।
सत्यार्थ प्रकाश दशम समुल्लास
महर्षि दयानन्द का आधुनिक भारत के निर्माताओं में प्रमुख स्थान है।
ऋषिवर के सम्बन्ध में कतिपय महापुरुषों के भाव पठनीय हैं-
भारत रत्न डॉ. राजेन्द्र प्रसाद- स्वामी दयानन्द राष्ट्रवादी और स्वराज्य के पथ-प्रदर्शक थे। वे प्रकाण्ड पण्डित, यशस्वी नेता और निर्भीक समाज सुधारक थे। उनकी सबसे बड़ी विशेषता दूरदर्शिता थी। यह देखकर आश्चर्य होता है कि विदेशी शासन के विरोध में सक्रिय संघर्ष के समय महात्मा गाँधी ने जिन बातों पर अधिक बल दिया और उन्हें रचनात्मक कार्य की संज्ञा दी, प्राय: वे सभी काम 50 वर्ष पूर्व स्वामी दयानन्द के कार्यक्रम में सम्मिलित थे।
लौह पुरुष सरदार बल्लभभाई पटेल- स्वामी दयानन्द जी त्रिकालदर्शी थे। वे गुजरात में उत्पन्न हुए, उनकी मातृभाषा गुजराती थी और वे संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान् थे। महर्षि ने भारत माता की जो महान् सेवा की एवं आर्य जाति पर जो उपकार किये उनको देखते हुए एक मत होकर कहा जा सकता है कि यदि वे सत्यार्थ प्रकाश जैसी अमर कृतियाँ अपनी मातृभाषा गुजराती अथवा शिक्षित भाषा संस्कृत में लिखते तो जनता बड़े प्रेम से इन भाषाओं को सीखती और श्रद्धा से स्वाध्याय करती परन्तु दूरदर्शी महर्षि ने लगभग 90 वर्ष पूर्व ही राष्ट्र को एक सूत्र में बाँधने के लिये आर्यभाषा (हिन्दी) को राष्ट्रभाषा के पद पर गौरवान्वित किया।
माननीय श्री अनन्त शयनम् अयंगर (लोकसभा के प्रथम अध्यक्ष)- यदि महात्मा गाँधी राष्ट्रपिता थे तो स्वामी दयानन्द राष्ट्रपितामह थे। स्वामी दयानन्द ने ही सर्वप्रथम स्वराज्य प्राप्ति और हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने का आन्दोलन आरम्भ किया था। राष्ट्रीय एकता, जिसका कि आजकल हम बहुत शोर मचा रहे हैं, स्वामी जी की ही विचारधारा का परिणाम है।
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी- महर्षि दयानन्द हिन्दुस्तान के आधुनिक ऋषियों में, सुधारकों में और श्रेष्ठ पुरुषों में एक थे। उनके जीवन का प्रभाव हिन्दुस्तान पर बहुत अधिक पड़ा।
भारत केसरी लाला लाजपत राय- महर्षि दयानन्द मेरे गुरु हैं मैंने संसार में केवल उन्हीं को गुरु माना है। वह मेरे धर्म के पिता हैं और आर्य समाज मेरी धर्म की माता है, इन दोनों की गोद में, मैं पला। मुझे इस बात का गर्व है कि गुरु ने मुझे स्वतन्त्रतापूर्वक विचार करना, बोलना और कर्त्तव्य पालन करना सिखाया तथा मेरी माता ने मुझे एक संस्था में बद्ध होकर नियम तथा अनुशासन का पाठ पढ़ाया।
ऐसे महामानव थे भारतोद्धारक महर्षि दयानन्द सरस्वती। आइये! हम सब अपना जीवन सुधार कर संपूर्ण देश और विश्व को श्रेष्ठ बनाने के उनके उद्घ्रोष 'कृण्वन्तो विश्वमार्यम’ को साकार करने के लिये अपना जीवन समर्पित कर दें।
लेखक
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