श्रीराम का 'विजय रथ'
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डॉ. सुमन : महिला मुख्य केन्द्रीय प्रभारी, भारत स्वाभिमान व पतंजलि योगपीठ
संसार में प्रत्येक प्राणी विजय की कामना करता है। कोई भी पराजित नहीं होना चाहता। शरीर की दृष्टि से, विचार, वाणी, संवाद, धन, प्रतिष्ठा, वेशभूषा, घर, गाड़ी, संसाधन, सामाजिक प्रतिष्ठा प्रत्येक दृष्टि से व्यक्तिस्वयं को विजयी देखना चाहता है। सारे विश्व को जीतना चाहता है। लेकिन गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं कि जिसने अपने मन को, इन्द्रियों को, वासनाओं को, कामनाओं को, इच्छाओं को जीत लिया वास्तव में उसी ने जगत को जीता है। इतिहास में वे ही व्यक्तिमहान् कहलाये, जिन्होंने आन्तरिक या बाह्य जीवन में कोई बड़ी विजय हासिल की। वेद भी विजय की ही प्रेरणा देता है-
'अहंमिन्द्रो न पराजिग्ये।
अग्निरस्मि जन्मना जातवेदा, घृतं में चक्षुरमृतं म आसन।
अर्कस्त्रिधातू रजसो विमानोऽजस्रो घर्मो हविरस्मि नाम।।
कृतं मे दक्षिणे हस्ते जयो मे सव्य आहित:। विजय अर्थात् विशेष जय।
विजय प्राप्त करना कोई सरल काम नहीं होता। दीर्घकाल तक सतत, अथक, श्रद्धापूर्वक किया गया पुरुषार्थ ही इस विजय श्री के दर्शन करा पाता है। किसी कवि ने विजय का वर्णन करते हुए कहा है कि-
विजय और वसुधा ये दोनों बड़े बाप की बेटी हैं।
कापुरुषों की नहीं सदा ये बलवानों की चेटी हैं।।
वरण करोगे विजय? जगत में बनोगे क्या तुम धरणीधर?
तो सीखो, कैसे देते हैं, निज शोणित की अमजलि भर-भर।।
इस क्रम में रामायण का एक प्रसंग मुझे स्मरण आ रहा है। युद्धकाण्ड के सप्तपंचाशत (57) सर्ग में युद्ध भूमि में जब मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम और रावण आमने-सामने खड़े हैं। रावण के पास अत्यन्त सुन्दर व विशाल स्वर्ण-रथ है, बाण, धनुष, तलवार, भाले, कवच आदि-विविध अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित हैं और दूसरी तरफ श्रीराम वनवासी होने के कारण साधारण से वल्कल वस्त्रों व पैर में खङाऊ धारण किये हुए धरती माता पर बिना रथ व बिना सारथी के खड़े हैं। यह देखकर विभीषण मन में श्रीराम के प्रति अत्यधिक स्नेह, भक्तिहोने के कारण भयभीत हृदय होकर कहने लगे- हे नाथ! आपके पास न तो कोई अस्त्र-शस्त्र हैं, न रथ है, मुझे डर लग रहा है कि आप इस महाबलि रावण को कैसे पराजित कर पायेंगे।
रावण रथी विरथ रघुवीरा,
देख विभीषण भयहु अधीरा,
अधिक प्रीत मन भा सन्देहा,
बन्दी चरण कह सहित सनेहा,
नाथ न रथ नहिं तन पद त्राना।
केहि बिधि जितब वीर बलवाना।।
हे नाथ ! आपके पास न रथ है, न शरीर की रक्षा करने वाला कवच है और न जूते ही हैं, फिर आप उस बलवान् रावण को कैसे जीत सकेंगे?
यह सुनकर श्रीराम स्मितवदन, मुस्कुराते हुए कहने लगे, मेरे परम मित्र विभीषण! जिस रथ से विजय प्राप्त होती है वह रथ तो अलग ही प्रकार का होता है। उस विजय रथ की विशेषताएं तुम्हें मैं सुनाता हूँ, जो वास्तव में परम विजय श्री को प्राप्त कराने वाला है-
सुनहुं सखा कहे कृपानिधाना।
जेहि जय होय सो स्यन्दन नाना।
सौरज धीरज तेहि रथ चाका। सत्य सील दृढ़ ध्वजा पताका।।
बल बिबेक दम परहित घोरे। छमा कृपा समता रजु जोरे।।
ईस भजनु सारथी सुजाना। बिरति धर्म सन्तोष कृपाना।।
दान परसु बुधि सक्ति प्रचंडा। बर बिग्यान कठिन कोदंडा।।
अमल अचल मन त्रोन समाना। सम जम नियम सिलीमुख नाना।।
कवच अभेद विप्र गुरु पूजा। एहि सम विजय उपाय न दूजा।।
सखा धर्ममय अस रथ जाके। जीतन कहँ न कतहुँ रिपु ताकें।।
राम ने कहा- शौर्य और धैर्य उस रथ के पहिये हैं, सत्य और सदाचार उसकी दृढ़ ध्वजा या पताका हैं। बल, विवेक, दम अर्थात् इन्द्रिय निग्रह और परोपकार- ये चार उसके घोड़े हुए हैं।
ईश्वर-भजन ही उस रथ का चतुर सारथी है। वैराग्य ढाल है और सन्तोष तलावर है। दान फरसा है, बुद्धि प्रचण्ड शक्तिहै और श्रेष् विज्ञान ही कठिन धनुष है। निर्मल अर्थात् पाप-रहित और अचल व स्थिर मन तरकस के समान हैं। शम अर्थात् मन का वश में होना, अहिंसा आदि यम और शौच आदि नियम बहुत सारे बाण हैं।
ब्राह्मणों और गुरुओं का पूजन ही अभेद्य कवच है। इसके समान विजय का दूसरा उपाय नहीं है। हे सखे! ऐसा धर्ममय रथ जिसके पास हो संसार का कोई शत्रु उसे जीत नहीं सकता।
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