युगीन आंदोलन को समझने के लिए चाहिए दिव्य दृष्टि
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गीता परमात्मा की वाणी है। संसार परमात्मा की अनुशासन व्यवस्था। जब तक लोक मानस, समाज, राष्ट्र परमात्मा के अनुशासन में जीता है, गीता भी प्रवाहित रहती है। अनुशासन टूटते ही प्रवाह अवरुद्ध होता है। तब 'गीता’ चीत्कार करती है, गीता की उस चीत्कार को जो सुन समझ और अनुभव कर लेता है, वही युग सृजेता, युग पुरुष, क्रांति पुरुष, महामानव, योगेश्वर आदि के रूप में प्रतिष्ठित होता है। घोर अंधकार के युग में परमात्मा की उस अविरल शाश्वत वाणी को आत्मसात करने में समर्थ भी वही होता है, जो परम अनुशासित, नियोजन एवं सृजन में जिसकी गति हो। महाभारत काल में योगेश्वर कृष्ण, स्वतंत्रता आन्दोलन काल में लोकमान्य तिलक, गांधी आदि इसी स्तर के युगदूत थे, जिन्होंने गीता की प्रेरणा को युगीन पृष्ठभूमि में आत्मसात किया और नवनिर्माण हुआ। इसीलिए श्रीमद्भगवद्गीता सदा से युग ग्रंथ रहा है। पतंजलि के योगसूत्र की तरह ही चिर शाश्वत 'युगीन धर्म निर्वाह की प्रेरणा’ इसकी प्रतिबद्धता। गीता की उसी आवाज को आज युगऋषि परम पूज्य स्वामी रामदेवजी महाराज आत्मसात करके युगधर्म निर्वाह कर रहे हैं, जो प्रस्तुत हैं:- ...सम्पादक
मदनुग्रहाय परमं गुह्यïमध्यात्मसञ्ज्ञितम्।
यत्त्वयोक्तंवचस्तेन मोहोयं विगतो मम।। १।।
भवाप्ययौ हि भूतानां श्रुतौ विस्तरशो मया।
त्वत्त: कमलपत्राक्ष माहात्म्यमपि चाव्ययम्ï।। २।।
महाभारत जैसे युगीन आंदोलन का सहयात्री था अर्जुन, संपूर्ण दारोमदार उसी पर था, लेकिन वह भी योगेश्वर के संकल्प मूल्य को नहीं आँक रहा था। इसके लिए स्वयं योगेश्वर को हजारों पहल करनी पड़ीं। तब वह कहने लायक हुआ कि 'हे कृष्ण मुझ पर अनुग्रह करने के लिए तुमने अध्यात्मसंज्ञक जो परम गुप्त रहस्यरूप वचन बोलें हैं, उसे सुनकर मेरा यह सारा मोह जाता रहा।’
हे कमलपत्राक्ष (हे कमल के पत्र के समान बड़ी आँखों वाले) मैंने सम्पूर्ण चराचर (भूतों) की उत्पत्ति और उनका अन्त (लय) तथा तुम्हारा अक्षय (कभी नष्ट न होने वाला) माहात्म्य भी विस्तारसहित तुमसे सुन लिया।
एवमेतद्यथात्थ त्वमात्मानं परमेश्वर।
द्रष्टुमिच्छामि ते रूपमैश्वरं पुरुषोत्तम।। ३।।
मन्यसे यदि तच्छक्यं मया द्रष्टुमिति प्रभो।
योगेश्वर ततो मे त्वं दर्शयात्मानमव्ययम्।। ४।।
अब हे परमेश्वर! तुम अपने स्वरूप का जिस विस्तार के साथ जैसा वर्णन कर रहे हो, हे पुरुषोत्तम! मैं तुम्हारे उस प्रकार के ईश्वरीय स्वरूप का प्रत्यक्ष दर्शन करना चाहता हूँ।
हे प्रभो! यदि तुम समझते हो कि उस प्रकार का रूप मैं देख सकता हूँ अर्थात्ï उस स्वरूप को देखने के लिये मैं योग्य हूँ, तो हे योगेश्वर! तुम अपने अव्यय स्वरूप का दर्शन मुझे कराओ।
तब योगेश्वर द्वारा योगबल से अनेक रूपों के ज्ञान का अर्जुन को बोध कराया गया, अर्जुन ने उसे अध्यात्म कहा है और वह फिर अव्यक्त से व्यक्तभूतों की उत्पत्ति और विभूति- वर्णन सुनकर उस परमात्म सत्ता का प्रत्यक्ष प्रमाण प्राप्त करता है, तब जाकर योगेश्वर और उसके आंदोलन पर विश्वास बढ़ता है और उस दिशा में कदम बढ़ाता है।
-श्रीभगवानुवाच-
पश्य मे पार्थ रूपाणि शतशोथ सहस्रश:।
नानाविधानि दिव्यानि नानावर्णाकृतीनि च।। ५।।
पश्यादित्यान्वसून्रुद्रानश्विनौ मरुतस्तथा।
बहून्यदृष्टïपूर्वाणि पश्याश्चर्याणि भारत।। ६।।
श्री कृष्ण ने कहा:- हे पार्थ! मेरे अनेक प्रकार के, अनेक रंगों के और अनेक आकारों के इन सैंकड़ों हजारों दिव्य-स्वरूपों को देखो।
ये देखो बारह आदित्य, आठ वसु, ग्यारह रुद्र, अश्विनीकुमार (देवों के वैद्य जो युगल भ्राता थे, जिनका नाम था- नासत्य और दस्र) और उनन्चास मरुद्गण। हे भारत! ये अनेक आश्चर्य भी देखो जो कभी पहले न देखे होंगे।
इहैकस्थं जगत्कृत्स्नं पश्याद्य सचराचरम्।
मम देहे गुडाकेश यच्चान्यद्ïद्रष्टुमिच्छसि।। ७।।
न तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा।
दिव्यं ददामि ते चक्षु: पश्य मे योगमैश्वरम्।। ८।।
हे गुडाकेश! आज एक ही जगह पर सब चराचर जगत् को मेरे इस विश्व रूप में देख लो और भी जो कुछ तुझे देखने की लालसा हो वह भी तू मेरी इस देह में देख ले।
परन्तु तू अपने इस मानवीय चक्षु से मेरे इस उपर्युक्त स्वरूप को नहीं देख सकता। अत: मैं तुझे दिव्य दृष्टि देता हूँ, इससे मेरे इस ईश्वरीय योग अर्थात्ï योग-सामर्थ्य को देख और इस युग आंदोलन का कर्ता बन।
पूज्य स्वामी जी एवं श्रद्धेय आचार्यश्री के संकल्प से उपजे इस आंदोलन का दिव्य दर्शन किये बिना इस आंदोलन से जुड़े असंख्य अर्जुनों को लक्ष्य तो दिखता है, उसे वे भेद भी रहे हैं पर बोध तो तभी होगा जब दिव्य दृष्टि प्राप्त होगी।
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