शिक्षा के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता- भारतीय शिक्षा बोर्ड के माध्यम से

शिक्षा के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता- भारतीय शिक्षा बोर्ड के माध्यम से

एन. पी. सिंह  

आई..एस. (सेवानिवृत्त), भारतीय शिक्षा बोर्ड, पतंजलि योगपीठ

किसी भी राष्ट्र का सशक्त अभ्युदय तभी हो सकता हैं जब सभी क्षेत्रों में आत्मनिर्भर हो। उसका अपनी विकास-यात्रा एवं सांस्कृतिक सामर्थ्य में विश्वास हो और सामाजिक ताने-बाने में उस राष्ट्र की सनातनता से पोषित नाभिकीय मूल्य-बोध की सुगन्ध हो
सामान्य रूप से सर्वानुभूत तथ्य है कि पर-निर्भरता सबसे बड़ा दु: और आत्मनिर्भरता शाश्वत आनन्द का स्रोत हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् हमारा देश इस दिशा में अग्रसरित हुआ कि भारतीय संविधान के मूलभूत उदेश्यों के अनुरूप आत्म निर्भरता की ओर बढ़े। हम खाद्यान्न के क्षेत्र के आत्मनिर्भर तो हो गए परंतु तकनीक के क्षेत्र में अधिकांशत: निरन्तर आयातित ज्ञान पर ही आश्रित रहे हैं। कतिपय इस देश में पैदा हुए और शिक्षा प्राप्त किये वैज्ञानिकों ने कुछेक उपलब्धियाँ अवश्य दिलाई परन्तु शोध अन्वेशण, नवोन्मेश एवं तकनीकी-क्रांति की दिशा में हम आश्रित ही बने रहे हैं। देश की अनेक प्रतिभाओं ने कुछेक नवीन अनुसंधान किए भी तो या वे विदेशी संस्थाओं के साए में सम्पन्न हुए अथवा उन्हें अपेक्षित मान्यता नहीं मिल सकी। औद्योगिक क्रांति, संचार-सुविधाओं यहाँ तक कि रक्षा उपक्रमों से सम्बन्धित तकनीक भी हमारी आयात पर निर्भर रही हैं।
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जब हम इनके पीछे निहित कारणों का अनुशीलन एवं विश्लेषण करते हैं तो स्पष्टत: इसके पीछे शिक्षा प्रणाली में बाह्य उन्मुखीकरण एवं आयातित पद्धतियों पर निर्भरता सबसे बड़ा कारण अनुभूत होता है। विश्व इतिहास साक्षी है कि कोई भी राष्ट्र सशक्त एवं विकसित तभी हो सका है जब उसकी शिक्षा-पद्धति वहाँ की भाषा, संस्कृति एवं अतीत के प्रति युक्ति-युक्त सम्मान से आप्लावित रही है। जिस देश एवं समाज ने अपनी सांस्कृतिक जड़ों से दूरी बनाई वह उत्तरोत्तर पराश्रित एवं परजीवी समाज के रुप में विकसित होने के लिए अभिशप्त है। हमारा देश भौगोलिक, सामाजिक, ऐतिहासिक, चिन्तनात्मक एवं सांस्कृतिक विविधतापूर्ण संसाधनों से समृद्ध है परन्तु शिक्षा प्रणाली स्व-संस्कृति आधरित होने से मानव-शिल्प-प्रक्रिया में अपेक्षित आत्मविश्वास का भाव पैदा करने में समर्थ हो सकी। कोई भी राष्ट्र अपनी सांस्कृतिक विकास-यात्रा के स्मृति-भ्रंश से सही दिशा में विकास नहीं कर सकता है। जिस समाज में अपने अतीत की समूची चिन्तन परम्पराओं एवं सामाजिक विविधताओं, बदलावों के स्वस्थ मूल्यांकन की क्षमता नहीं होती, वर्तमान की परिस्थितियों का बोध नहीं होता है एवं भविष्य की संभावना के गर्भ से उभरती चुनौतियों के प्रति जागरुकता नहीं होती, वह समाज समग्र स्थायी एवं सम्पोषकीय विकास के लक्ष्य तक नहीं पहुँच सकता है

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इस सत्य का साक्षात्कार करते हुए परमपूज्य स्वामी रामदेव जी महाराज एवं आचार्य बालकृष्ण जी महाराज ने यह संकल्प लिया कि भारत सरकार के सहयोग तथा देश के मनीषियों की प्रतिभा से शक्ति संचयन कर एक ऐसी शिक्षा प्रणाली विकसित की जाए कि वह इस देश की संस्कृति के गर्भ से उद्भूत हो और इसमें समस्त अधुनातन ज्ञान-विज्ञान की उपलब्धियों को समाविष्ट करने की क्षमता हो। इससे शिक्षित युवा एक मौलिक व्यक्तित्व का धनी आत्मनिर्भर बन सके। पतंजलि योगपीठ के सौजन्य से गठित भारतीय शिक्षा बोर्ड एक ऐसी स्वस्थ एवं दूरदर्शी परिकल्पना है जिससे भारत में शिक्षित युवा-पीढ़ी वैश्विक नागरिक होने के गुणों से सम्पन्न हो परन्तु उसका दृष्टिकोण भारतीय हो। उसकी चिन्तना के केन्द्र में भव्यता होकर दिव्यता का सौन्दर्य हो।
किसी भी राष्ट्र को पराधीन करने के लिए उसके भू-भाग पर बलपूर्वक कब्जा करके अर्थात् राजनीतिक दासता में लाया जाता है परन्तु उसको दूरगामी स्थायित्व देने के लिए आवश्यक है उसका आर्थिक रुप से गुलाम बना देना और सबसे धारदार हथियार है संस्कृति को हीन घोषित करना। उसकी परम्परायें, मान्यतायें, विचार-धारायें, भाषा, लिपि को अपरिपक्व असभ्य एवं असंस्कृत होने के भाव को सोच का अभिन्न हिस्सा बना देना संस्कृति पर सांघातिक प्रहार का सबसे प्रभावी माध्यम है शिक्षा-प्रणाली। शिक्षा-पद्धति के माध्यम से बहुत ही सुगमता से शिशु के प्रारम्भिक काल में ही इस प्रकार के भाव उसके अवचेतन का अंग बन जाता है। वैज्ञानिक शोधों के आधार पर यह प्रमाणित तथ्य है कि कोई भी शिशु बारह वर्ष की उम्र तक कम आवृति की तरंग-ऊर्जा है जिसमें किसी भी बाह्य संघात की ग्राह्यता की क्षमता अधिक होती है। उसके अवचेतन मस्तिक का अधिकांश निर्माण लगभग इसी काल तक हो जाता है और अठारह वर्ष की उम्र तक उसका अवचेतन-मानस लगभग पूर्ण गठित हो जाता है। इससे स्पष्ट है कि सीनियर सेकेण्डरी स्तर तक की शिक्षा-प्रणाली किसी भी सांस्कृतिक प्रवाह एवं दृष्टिकोण-निर्माण के लिए सबसे प्रभावी एवं सशक्त उपकरण है। ब्रिटिश उपनिवेशवाद के दौरान भारतीय सांस्कृतिक विरासत को निरन्तर हीन भावना से देखने का सुनियोजित प्रयास किया गया क्योंकि राजनैतिक प्रशासकीय एवं आर्थिक उपनिवेशवाद को सुदृढ़ करने एवं स्थायित्व देने के लिए सांस्कृतिक उपनिवेश की स्थापना आवश्यक रणनीति है। इस सांस्कृतिक उपनिवेशवाद के लिए अन्य अनेक द्वेषपूर्ण बौद्धिक प्रचार एवं संस्कृति पर प्रहार के साथ शिक्षा के माध्यम से पूरी पीढ़ी को अपनी सांस्कृतिक जड़ों से विमुख कर उसके प्रति अनास्था का भाव विकसित करते हुए साम्राज्यवादी  ताकतों की परम्पराओं की उत्कृष्टता का भाव विकसित करने का कार्य किया गया। इसको संस्थागत स्वरूप प्रदान किया मैकाले ने वर्ष 1835 में इण्डियन एजुकेशन एक्ट बनाकर। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् भी हम भारतीय उससे मुक्त नहीं हो सके बल्कि परिवर्तित या परिवद्धित रुप में उस पद्धति का पोषण करना ही श्रेयस्कर समझने की भूल करते गए। एक बड़ी चुनौती राष्ट्र के समक्ष है कि कैसे उस दुष्चक्र के चक्रव्यूह से हम नई पीढ़ी के युवा-मानस को मुक्ति दिलाए और उनके अंदर विकास के मार्ग पर अग्रसर होने के दृढ़ संकल्प के साथ ही समूची भारतीय सांस्कृति यात्रा एवं समृद्ध विरासतों के प्रति सम्मानपूर्ण गौरव का भाव विकसित करें। स्वतंत्रता-प्राप्ति के संघर्षों के दौरान हमारी भारतीय मनीषा सभी क्षेत्रों में स्वदेशी एवं आत्मनिर्भरता के लिए प्रयत्नशील रही है। इसकी अभिव्यक्ति हमें सम्माननीय तिलक, अरविन्दो, गांधी, टैगोर, स्वामी विवेकानन्द, महर्षि दयानन्द एवं डॉ. अम्बेडकर के कार्यों, विचारों एवं समग्र चिन्तन में मुखरता से मिलती है। राजनैतिक स्वावलम्बन के साथ ही आर्थिक सामाजिक स्वावलम्बन की दिशा में अनेक प्रयत्न दिखाई पड़ते हैं। गांधी का घर-घर तक चरखा को स्थापित करने का प्रयास भी उसी दिशा का एक सफल कदम रहा है।

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इस दिशा में इक्कीसवी सदी में संपूर्णता के साथ स्वदेशी आंदोलन को मूर्त रुप देने का सबसे उल्लेखनीय कार्य किया है पूज्य स्वामी रामदेव जी महाराज एवं श्रद्धेय आचार्य बालकृष्ण जी महाराज ने। ऋषिद्वय द्वारा योग एवं आयुर्वेद के माध्यम से स्वस्थ भारत के निर्माण की दिशा में अप्रतिम प्रयास तो किया ही गया, साथ ही आवश्यक वस्तुओं के उत्पादन में स्वदेशी की नई सशक्त लहर पैदा करने का अभूतपूर्व कार्य किया गया जिससे अनेक युवा उद्यमियों में प्रेरणा ली और स्वदेशी उत्पादों के माध्यम से रोजगार की संभावनाएं पैदा हुई। अनेक विदेशी कंपनियों के षोषण से उपभोक्ताओं को राहत मिली। लोगों के दिन-प्रतिदिन के जीवन-चर्या में यम नियम की स्थापना हुई। साथ ही बाह्य रसाययनिक उर्वरकों के स्थान पर जैविक खेती के माध्यम से भी कृषकों के आर्थिक, स्वास्थ्य तथा आमजन के पोषणयुक्त खाद्यानों के माध्यम से शारीरिक स्वास्थ्य रक्षण का भी कार्य किया गया।
अब पूज्य स्वामी जी ने संकल्प लिया है कि राष्ट्र की नई पीढ़ी को ऐसी शिक्षा प्रणाली से जोड़ा जाए कि वे समस्त आधुनिक ज्ञान-विज्ञान में निष्णात हो और साथ ही अपनी समृद्ध सांस्कृतिक एवं बौद्धिक विरासत का भी पूर्ण ज्ञान हो। भारत का प्रत्येक युवा इस अवधारणा के साथ शिक्षित हो कि उसका भारतीय दृष्टिकोण सम्पन्न वैश्विक नागरिक के रूप में रुपान्तरण हो। वह भारत की समूची ज्ञान परम्परा एवं आधुनिक विज्ञान की ऊष्मा से ऊर्जावान व्यक्तित्व हो इसी उद्देश्य को लेकर भारतीय शिक्षा बोर्ड का गठन महर्षि सान्दीपनि राष्ट्रीय वेद विद्या प्रतिष्ठान एवं भारत सरकार के सहयोग सेपतंजलि योगपीठके माध्यम से पूज्य स्वामी द्वारा किया गया है।
भारत सरकार द्वारा देश को आत्मनिर्भर बनाने का प्रयास किया जा रहा है। यह आत्मनिर्भरता तभी सम्भव है जब शिक्षा के माध्यम से हमआत्मनिर्भर दिव्य व्यक्तित्वके रूप में बच्चों का विकास कर सकें। नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति में भी इस उद्देश्य के प्रति प्रतिबद्धता का भाव परिलक्षित होता है। भारतीय शिक्षा बोर्ड का संकल्प है कि हम राष्ट्र को विचारों से आत्मनिर्भर मानव-संपदा से सशक्त करें क्योंकि विचार ही कार्य के रूप में रुपान्तरित होते हैं। वैचारिक आत्मनिर्भरता ही राष्ट्र को एक आर्थिक, तकनीकि, रक्षा एवं सामाजिक सांस्कृति सभी क्षेत्रों में सशक्त समृद्धआत्मनिर्भर भारतकी अवधारणा को साकार कर सकती है।
 
 

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