अर्बुद-आयुर्वेद विवेचन

अर्बुद-आयुर्वेद विवेचन

वैद्य धीरज कुमार त्यागी,

सहायक प्राध्यापक, पतंजलि आयुर्वेद कॉलेज एवं हॉस्पिटल, हरिद्वार

माधव निदान अनुसार:
गात्रप्रदेशे क्चचिदेव दोषा: संमूर्छिता मासमसृक् प्रदूष्य। वृतं स्थिरं मन्दरुजं महान्तमनल्पमूलं चिरवृद्धयपाकम्।। (18)
कुर्वन्ति मांसोच्छयमत्यगातं तद्र्बुदं शास्त्रविदो वदन्ति। वातेन पित्तेन कफेन चापि रक्तेन मांसेन भेदसा वा।। (19)
तञ्जायते तस्य लक्ष्णानि चापि ग्रन्थे: समाननि सदा भवन्ति।
अर्थात् शरीर के किसी भाग में बढ़े हुए दोष मांस तथा रक्त को दूषित करके गोल, निश्चल, अल्पपीड़ा वाले, बड़े गहरे, देर में बढऩे तथा पकने वाले मांसपिण्ड के सम्मान उन्नत कर देते हैं, विद्वान उसे ‘‘अर्बुद'' कहते हैं।
                                                                     अर्बुद
                        _____________________________________________________
                           ↓                  ↓                   ↓                  ↓                ↓                 
                      वातिक         पौतिक         श्लैष्मिक        रक्तज         मांसज          मेदोज
 
अर्बुद के लक्षण ग्रन्थि के समान होते हैं-
1. रक्तार्बुदं लक्षयति
दोष: प्रदुष्टो रुधिरं सिराश्व संकुच्य संपिण्डय ततस्त्वपाकम्।
सास्रावमुन्नह्यति मांसपिण्डं मासांकुरैराचितमाशवृद्धम्।। (20) ’’
करोत्यजस्त्रं रुधिप्रवृत्तिमसाध्यमेतद्रुधिरात्मकं तु।
रक्ततक्षयोपद्ववपीडित्वात् पाण्डुर्भवेदर्बुदपीडितस्तु।।’’(21)
अर्थात् दुष्ट हुआ दोष रक्त तथा सिराओं को संकुचित करके तथा दबाकर पाक रहित या अल्पपाकयुक्त मासांकुरों से व्याप्त, जल्दी बढऩे वाला, ईषत्, स्रावयुक्त, मांसपिण्ड को उन्नत कर देता हैं। इसमें निरन्तर रक्तस्राव होता है। इस रक्तज अर्बुद को असाध्य समझना चाहिए। रक्त अर्बुद से पीडि़त रोगी रक्तक्षय के उपद्वव से पीडि़त रहने के कारण पाण्डुवर्ग का हो जाता है।
2. मांसजन्यर्बुद
‘‘सुष्टिप्रहारादिभिर्दितेऽङ्गे मांसं प्रदुष्टं जनेयद्धि शोयम्। (22)
अवेदनं स्निग्धमनन्यवर्णमपाकमश्मोपममप्रचाल्यम्।।
प्रदुष्टमांसस्य नरस्य गाढमेतद्धवेन्मांसपरायणस्य।। (28)
मांसार्बुदं त्वेतदसाध्यमुक्तं -’’
अर्थात् मुष्टि आदि के प्रहार से पीडि़त अंग में दुष्ट हुआ मांस अल्पवेदना से युक्त, स्पर्श में चिकने, त्वचा के वर्ण का, पाकरहित पत्थर के समान कठोर तथा स्थिर सूजन के कारण जिसकी मांस धातु दुष्ट हो जाती है प्राय: उसमें यह मांसाबुद्धि उत्पन्न होता है। इसे असाध्य समझना चाहिए।
अर्बुद साध्यासाध्यता
‘‘ साध्येष्वपीमानि तु वर्जयेञ्च।
संप्रस्तुतं मर्मणि पच्च जातं स्रोत: सु वा यच्च भवेदचाल्यम्।।’’ (24)
अर्थात् साधारण प्रकार के साध्य अर्बुदों में स्रावयुक्त, मर्मस्थान के अर्बुद, नासिका महास्रोतादि स्रोतों में होने वाले तथा स्थिर अर्बुदों को साध्य ही समझना चाहिए।
अध्यर्बुद
‘‘ यज्जयतेऽन्यत् खलु पूर्वजाते श्रेयं तदध्यर्बुदमर्बुदज्ञै:
यद्द्वन्द्वजातं युगपत् क्रमाद्वा द्विरर्बुदं तच्च भवेदसाध्यम्।। ’’(25)
अर्थात् पहले अर्बुद के रहते ही या उसके छेदन के बाद भी उसी स्थल पर जो दूसरा अर्बुद उत्पन्न होता है, उसे विद्वान ‘‘अध्यर्बुद’’कहते हैं। एक ही या अन्य स्थान पर एक अर्बुद के साथ अथवा कुछ बाद में उत्पन्न होने वाला दूसरा अर्बुद द्विरर्बुद कहा जाता है। इसे असाध्य समझना चाहिए।
अर्बुद चिकित्सा
आचार्य चरक अनुसार:
‘‘ग्रन्थ्यर्बुदानां यतोऽविशेष: प्रदेशहेत्वाकृतिदोषदूष्यै:
ततश्चिकित्सेद् भिषगर्बुदानि विधानविद् ग्रन्थिचिकित्सितेन्।।’’
(.चि. - 12/28)
अर्थात् ग्रन्थिशोथ तथा अर्बुद ये दोनों ही रोग समान स्थान, समान कारण, समान लक्षण तथा समान दोष-दूष्य वाले होते हैं। इसलिए चिकित्सा प्रक्रिया के ज्ञाता वैद्य को ग्रन्थिरोग की चिकित्सा की ही तरह अर्बुदों की भी चिकित्सा करनी चाहिए।
ग्रन्थिशोथ चिकित्सा:
‘‘संशोधिते स्वेदितमश्काष्ठै: साङगुष्ठदण्डैर्विलयेदपक्वम्।
विपाटय चोदधृत्य भिषक् सकोशं शस्त्रेण दग्धवा व्रणवच्चिकित्सेत्।।
अदग्ध ईषत् परिशोषितश्च प्रयाति भूयोऽपि शनैर्विवृद्धिम्।
तस्मादशेष: कुशलै: समन्ताच्छेद्यो भवेद् वीक्ष्य शरीरदेशान्।।
शेषे कृते पाकवशेन शीर्यात तत: क्षतोत्थ: प्रसरेद् विसर्प:
उपद्रवं तं प्रविचार्य तज्ज्ञस्तैर्भेषजै: पूर्वतरैर्यथोक्तै:।।
निवारयेदादित एव यत्नाद् विद्यानवित् स्वस्वविधिं विधाय।
तत: क्रमेणास्य यथाविधानं व्रणं व्रणज्ञस्त्वरया चिकित्सेत्।।’’
(.चि.-12/82-85)
अर्थात् सर्वप्रथम वमन-विरेचन द्वारा संशोधन करके ग्रन्थि का स्वेदन करें। तदनन्तर यदि ग्रन्थि पकी हो, तो उसे किसी पत्थर के टुकड़े से या काठ से या अंगूठे से अथवा किसी दण्ड से दबा-दबाकर शरीर में ही विलीन कर खपा दें।
यदि ग्रन्थि पक गई हो तो उसे शस्त्र से चीरा लगाकर उसको मूल सहित निकालकर उस स्थान को जला दें तथा फिर व्रण के समान उसकी चिकित्सा करें। यदि ग्रन्थि को ठीक ढंग से जलाया जाए तथा उसका मूल छोड़ दिया जाए, तो वह धीरे-धीरे पुन: बढ़ जाती है। इसलिए कुशल शल्यविद चिकित्सक को को चाहिए कि ग्रन्थियुक्त शरीरवयव का अच्छी प्रकार निरीक्षण कर ग्रन्थि का समूल उच्छेदन कर दें। काटने में यदि ग्रन्थि का कुछ भी भाग अवशिष्ट रह जाता है तो वह पक कर गल जाती है तथा परिणामस्वरुप क्षतजन्य विसर्प बनकर फैलने लग जाती है।
शल्यज्ञ चिकित्सक उस उपद्रव का विचार कर पहले ही पूर्व में कथित औषधों द्वारा उपचार कर उपद्रव का निवारण करें तथा बाद में विसर्प के विभिन्न प्रकारों की चिकित्सा विधि से व्यवस्था कर विधि-विधान के अनुसार शीघ्रतापूर्वक व्रणज्ञ वैद्य उस व्रण की चिकित्सा करें।
आचार्य सुश्रुत अनुसार
 (1) वातज अर्बुद चिकित्सा
‘‘ककरिुकैर्वारुकनारिकेलप्रियालपञ्चाङ्गुलबीचूर्णे:
वातार्बुदं क्षीरघृताम्बुसिद्वद्धैरुष्णै: सर्तेलैरुपनाहायेत्तु।।
कुर्याच्च मुख्यान्युपनाहनानि सिदैश्च मांसैरथ बेसवारै:
स्वेदं विदध्यात् कुशलस्तु नाऽथा श्रृङ्गेण रक्तं बहुशो हरेच्च।।
वातध्ननिर्यूहपयोऽम्लभागै: सिद्धं शताख्यं त्रिवृतं पिबेद्वा।’’
(सु.चि.-1/29-31)
अर्थात् कूष्माण्ड, ककड़ी, नारियल, चिरौजी तथा एरण्ड बीज के चूर्ण तथ घी, दूध तथा जल से सिद्ध उष्ण तेल के द्वारा वातज अर्बुद का उपनाह करना चाहिए एवं मांस तथा वेशवार से सिद्ध उपनाहों का प्रयोग करना चाहिए।
कुशल चिकित्सक नाड़ी स्वेद करें तथा सींग के द़्वारा अनेक बार रक्त निकालें अथवा वातघ्न द्रव्यों के क्वाथ दूध तथा काञ्जी से सिद्ध-शतपाक त्रिवृत स्नेह पिलाएँ।
(2) पित्तज अर्बुद चिकित्सा
‘‘ स्वेदोपनाहा मृदुवस्तु कार्या: पित्तार्बुदे कायविरेचन च।
विघृष्य चोदुम्बरशाकगोजीपत्तैर्भृशं क्षौद्रयुतै: प्रलिम्पेत्।।
श्लक्ष्णीकृतै: सर्जरसप्रियङ्ग पत्तङ्गरोध्राञ्जनयष्टिकाहै:
विस्त्राव्य आरग्वघगोजिसोमा: श्यामा योज्या: कुशलेन लेपे।।
श्यामागिरिहाञ्जनकीरसेषु द्वाक्षारसे सप्तलिकारसे च।
घृतं पिबेत् क्लीतकासंप्रसिद्धं पित्तार्बुदी तज्जठरी जन्तु:।।’’
(सु.चि. -18-32-34)
अर्थात् मृद़ु स्वेद, उपनाह तथा विरेचन हितकर होता है। गूलर, वरुण तथा सिहोड़ के  पत्ते से अर्बुद को रगडक़र, राल, प्रियङ्गु, पतङ्गं, लोध्र, अञ्जन तथा मुलेठी के चिकने चूर्ण में मधु मिलाकर अनेक बार लेप लगाएँ। कुशल चिकित्सक अर्बुद से रक्त निकालकर अर्बुद ग्रस्त रोगी को अमलतास, गोजी, सोमलता तथा निशोथ के लेप का प्रयोग करें। निशोथ, गिरिहा, अञ्जनकी, मुनक्का तथा सहात्मिका के रस में क्लीतक कल्क के द्वारा सम्यक् सिद्ध घृत, पित्तज अर्बुद तथा पित्तोदर के रोगी को पिलाएँ।
3. कफज अर्बुद चिकित्सा
‘‘शुद्धस्य जन्तो: कफजेडर्बुदे तु रक्तेऽवसिक्ते तु ततोऽर्बुदं तत।
द्रव्याणि यान्यूध्र्वमघश्च दोषान् हरन्ति तै: कल्कघृतै: प्रदिह्यात्।।
कपोतपारावतविड्विमिश्रै: सकास्यनीलै: शक्रुलाङ्गलाख्यै:
मूत्रैस्तु काकादनिमूलमिश्रै: क्षारप्रदिग्धैरथ वा प्रदिह्यात्।।’’
(सु.चि.18/35-36)
अर्थात् शुद्ध हुए रोगी (वमन द्वारा) के अर्बुद से रक्त निकालकर उधर्व तथा अधोमार्ग से दोषों का हरण करने वाले द्रव्यों का कल्क बना उस पर लेप लगाएं। कपोत तथा पारावत की बीट, काँसे की कालिख, शुक्र, कालिहारी तथा काकादन की जड़ गोमूत्र में पीसकर लेप करें अथवा क्षारयुक्त गोमूत्र का लेप लगाएँ।
‘‘निष्पावपिण्याककुलत्थकल्कैमसिप्रगाढैर्दधिमस्तुयुक्तै:
लेपं विदध्यात् कृमयो यथाडत्त मूचर्छन्ति मुद्धन्तथ मक्षिकाक्ष।।
यदल्पमूलं त्रपुताम्रसीसपट्टै: समावेष्टय तदाथसैवी।।
क्षाराग्निशस्त्राण्यसकृद्विदध्यात् प्राणानहिंसन् भिषगप्रमत्त:
आस्फोतजातीकरवीरपत्रै: भार्गी विडङ्गपाठात्रिफलाविपक्वम्।
यदृच्छया चोपगतानि पाकं पाकक्रमेणोपचरेद्विधिज्ञ:।। ’’
(सु.चि.-18/37-40)
अर्थात् सेम, पिण्याक तथा कुलथी के कल्क में प्रचुर मांस दधि तथा मस्तु मिलाकर अर्बुद पर लेप करें। जिससे मक्खियाँ वहाँ आकर बैठें तथा कृमि उत्पन्न करें। जब कृमियों के खाने से अर्बुद का अल्प भाग अवशिष्ट रह जाए तब लेखन करके अग्निकर्म करें। अल्पमूल वाले अर्बुद को रांगा, ताम्र, सीसा या लौह की पट्टी से चारों ओर से बाँधकर, रोगी के प्राण की रक्षा करते हुए, सावधान चिकित्सक क्षार, अग्नि तथा शस्त्र-कर्म का अनेक बार प्रयोग करें। अपराजिता, चमेली तथा करवीर के पत्ते का क्वाथ व्रण को शुद्ध करने के लिए उपयोगी होता है। व्रण के शुद्ध होने पर भाङ्र्गी, विडंग, पाठा तथा त्रिफला के कल्क से सित्र तैल का प्रयोग करना चाहिए।
क्वत: पाक को प्राप्त होने वाले अर्बुद की चिकित्सा, क्रियाकुशल वैद्य पक्व व्रण चिकित्सा विधि की भॉति करें।
2. मेदो अर्बुद चिकित्सा
‘‘मेदोऽर्बुदं स्विन्नमथो विदार्थ विशोध्य सीव्यैद्रतरक्तमाशु।
ततो हरिद्रागृहधूमरोघ्र पत्तङ्गचूणै: समन: शिलालै:
व्रणं प्रतिग्राह्य मधुप्रगाढै: करञ्जतैलं विदधीत शुद्धे।
सशेषदोषाणि हि योडर्बुदानि करोति तस्याशु पुनर्भवन्ति।
तस्मादशेषाणि समुद्धरेत्तु हन्यु: सशेषाणि यथा हि वहि:।।’’
(सु.चि.-18/41-42)
अर्थात् स्वेदन किए गए मेदोज अर्बुद को चीरकर शुद्ध करें तथा रक्तस्राव बन्द होने पर शीघ्र सी दें। फिर हल्दी, गृहधूम, लोध्र, पतङ्ग, मैनशिल तथा हरताल के चूर्ण में पर्याप्त मधु मिलाकर व्रण पर लेप लगाएँ तथा व्रण के शुद्ध होने पर करञ्ज तैल का प्रयोग करें।
जिन अर्बुदों में दोष शेष रह जाते हैं उनकी उत्पत्ति पुन: शीघ्र हो जाती है इसलिए समूल रूप से उनका उच्छेद करना चाहिए। शेष बचे हुए दोषों को उसी प्रकार नष्ट करना चाहिए जिस प्रकार अग्नि सम्पूर्ण वस्तुओं को जला देती है।
विशेष: ऋतु अनुसार शोधन कर्म अवश्य लें, यह आपको विभिन्न व्याधियों से दूर रखेगा, वैद्य की सलाह से पंचकर्म एवं षट्कर्म द्वारा शरीर को निर्मल रखें।
 

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