आत्म मूल्यांकन

आत्म मूल्यांकन

आचार्य बालकृष्ण

स्वयं का स्वयं से मूल्यांकन, स्वयं की स्वयं से स्पर्धा हमारे व्यक्तित्व के विकास की मूलभूत आवश्यकता है। आत्ममूल्यांकन एवं आत्म स्पर्धा के लिए हमें प्रतिदिन कम से कम 10-20 मिनट का समय अलग से निकालना चाहिए। यद्यपि जीवन तो एक-एक पल में घटित हो रहा है और हर एक पल की सजगता ही हमारे जीवन को संवारती है। विचार, संवेदना एवं पुरुषार्थ के हर स्तर पर हम हर पल अपना मूल्यांकन कर सकें तथा पहले से अगला क्षण बेहतर हो यह तो सर्वश्रेष्ठ अवस्था है। परन्तु ऐसा न भी कर पाएं तो प्रतिदिन की क्लोजिंग पर दिन भर क्या लाभ या हानि हुई है, इसकी सजगता बनने से जीवन में एक स्वाभाविक सह-गुणात्मक दिव्य रूपान्तरण सहज रूप से शनै:-शनै: घटित होने लगता है। आत्म मूल्यांकन या आत्म स्पर्धा से जुड़े कुछ मूलभूत तथ्यों की ओर हम आपका ध्यान आकर्षित करना चाहते हैं-
1. अंत:प्रेरणा का जागरण:
प्रभात में उठते ही यह चिन्तन करें कि मैं ईश्वर की सन्तान हूँ। अपने पूर्वज ऋषि-ऋषिकाओं एवं वीर-वीराङ्गनाओं का आदर्श अपने सन्मुख रखकर सदा यह विचार संकल्प मन में रहे कि मेरा जीवन कैसा हो? तो अंत: से स्वत: प्रेरणा जगेगी कि अपने पूर्वजों (ऋषियों) जैसा हो। साथ ही संकल्प उठेगा कि मैं अपने मूल माता-पिता, भगवान् एवं अपने पूर्वजों व भारत माता का नाम कलंकित नहीं होने दूंगा। अपितु इस जीवन से भगवान्, अपने पूर्वजों एवं भारत माता का यश-गौरव बढ़ाऊँगा।
2. बुरी आदतों से मुक्ति भाव का जागरण:
कृतघ्रता, अधर्माचरण एवं अपने मन, वचन, कर्म से किसी प्राणिमात्र अथवा जड़-चेतन का अहित करना आदि ये पाप हैं, वहीं वाणी, व्यवहार व आचरण के स्तर पर कुछ भी ऐसा करना जिससे कि किसी भी छोटे या बड़े व्यक्ति का ध्यान किसी भी गलत बात की ओर जाए यह बहुत बड़ा पाप है। माता, पिता, गुरुजनों तथा समाज के अग्रणी लोगों को इस पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। यदि एक बार भी हम जीवन में बड़ी भूल न करें तो यह जीवन का परम सौभाग्य है और यदि भूलकर संभल जाएं तो भी हमारा उद्धार हो सकता है। परन्तु यदि हम बार-बार भूल करते हैं तो इससे हमारा आत्मविश्वास जवाब देने लगता है और हम आत्मघाती मार्ग की ओर आगे बढऩे लगते हैं। अत: आत्ममूल्यांकन हमें बुरी आदत रूपी पाप से मुक्ति का भाव जगाता है।
3. आत्म गौरव का बोध:
प्रत्येक मनुष्य को भगवान् ने अनन्त ज्ञान, असीम संवेदना एवं अखण्ड प्रचण्ड पुरुषार्थ करने की ऊर्जा दी हुई है। मनुष्य धरती पर भगवान् की सब प्रकार से सर्वश्रेष्ठ रचना है तथा मनुष्य पर सृष्टि में सबसे अधिक उत्तरदायित्व हैं। साथ ही सभी मनुष्यों में श्रेष्ठता के साथ सर्वश्रेष्ठ होने की भी क्षमता है। अपनी इस दिव्यता, निजता, आत्मसत्ता, आत्म स्वरूप एवं आत्म गौरव का बोध हमें सदैव रहना चाहिए।
4. कर्तृत्व में अकर्तृत्व, श्रम में विश्राम का अभ्यास:
अपनी विराटता के बोध के साथ-साथ हमें यह बोध भी निरन्तर बना रहे कि यह सब कुछ करने या होने का सामर्थ्य सब भगवान् का दिया हुआ है, मैं निमित्त मात्र हूँ तथा अपने स्वरूप, निजता, दिव्यता या पूर्णता में रहकर या पूर्ण सम एवं विश्राम में रहकर हम श्रम करने का स्वभाव या अभ्यास बनाएं।
5. योग व अध्यात्म हमारा स्वभाव बन जाए :
स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते। गीता ८/३ अर्थात योग, ज्ञानयोग, कर्मयोग, भक्तियोग, अष्टाङ्गयोग या राजयोग यही हमारा मूल स्वभाव है। अज्ञान, अश्रद्धा, अकर्मण्यता, हिंसा, झूठ, बईमानी, चोरी एवं अनाचारादि ये हमारा मूल स्वभाव नहीं है। आत्म मूल्यांकन से यह भी भाव  जगता है।

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