भारत की विजयशाली परम्परा

भारत की विजयशाली परम्परा

प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज

   आज से 5200 वर्ष पूर्व महाभारत युद्ध हुआ जिसका सम्पूर्ण इतिहास सुलभ है। उसके इतिहासकार श्री वेदव्यास उस समय जीवित थे और युद्ध का वर्णन उन्होंने आँखो देखी घटनाओं की तरह किया है। अत: यह समकालीन साक्ष्य होने से पूर्ण प्रामाणित अभिलेख है। महाभारत में भीष्म पर्व के अंतर्गत जम्बू खंड विनिर्माण पर्व में नौवें अध्याय में भारतवर्ष के लगभग ढाई सौ जनपदों का उल्लेख है। जिनमें गांधार, उत्सव संकेत, त्रिगर्त्त, चीन, उत्तर म्लेच्छ, अपर म्लेच्छ, हूण, पारसीक, बाह्लीक, पह्लव, यवन, दरद आदि जनपद शामिल हैं। भीष्म पर्व के 20वें अध्याय में दोनों पक्षों की सेनाओं का वर्णन हैं जिनमें से कौरव सेना के बाएं भाग में कृपाचार्य के नियंत्रण में शक, पह्लव (पहलवी), यवन आदि देशों के राजाओं और सैनिकों का वर्णन है। मनुस्मृति के अनुसार भारत की जो 12 क्षत्रिय जातियाँ यज्ञादि संस्कारों के अभाव में वृषल हो गईं, उनमें यवन, शक, दरद, बाह्लीक, पह्लव, किरात, पारद, द्रविण आदि शामिल हैं। इस प्रकार इतिहास ग्रंथों, धर्मशास्त्रों और पुराणों सभी के अनुसार यवन क्षेत्र भारतवर्ष का एक राज्य रहा है। भारत की जो सीमा गांधार और पारसीक प्रांत तक अभी हाल में थी, उसके पड़ोस में ही है यवन प्रांत। वस्तुत: यवन प्रांत यूरोप का हजारों वर्षों तक कभी भी अंग नहीं था। वह भारतवर्ष और जम्बूद्वीप का ही अंग था।
इसी प्रकार वाल्मीकि रामायण में भी बाह्लीक और यवनों आदि का वर्णन है। इस प्रकार ये भारतीय क्षेत्र ही है। अत: प्राचीन भारतीय क्षेत्र के भीतर आपस में होने वाले युद्धों को आक्रमण नहीं कहा जा सकता। वे तो आपसी युद्ध हैं,जोकि मुख्यत: वीरता की सिद्धि के लिये होते थे।
सिकंदर के भारत आने का कोई प्रमाण नहीं
यूरोपीय लोग पहला आक्रमण अलेक्जेंडर का बताते हैं परंतु स्वयं मकदूनिया के इतिहास में सिंकदर के भारत आक्रमण का कोई विवरण नहीं मिलता। मैगस्थनीज की इंडिका की मूल प्रति कहीं उपलब्ध नहीं है तथापि कई सौ वर्षों बाद उस क्षेत्र के लेखक का लिखा जो विवरण मिलता है उसमें भी भारत को अपराजेय ही कहा गया है। ईसा से 4000 वर्षों पूर्व से भारत पर कोई आक्रमण नहीं हुआ ऐसा उल्लेख इंडिका में मिलता है। परंतु इंडिका के उन तथ्यों को कभी भी सार्वजनिक विमर्श का अंग नहीं बनाया गया। 18वीं शताब्दी ईस्वी में पहली बार विलियम जोन्स ने अलेक्जेंडर को अद्वितीय योद्धा कहते हुये उसकी भारत पर विजय की बात कही गई, परंतु उसका कोई समकालीन साक्ष्य प्रस्तुत नहीं किया गया।
न गजना, न गोर: गप्पों का ओर न छोर
दूसरा आक्रमण गजना के महमूद और गोर के मुहम्मद का बताया जाता है, परंतु उनका भी कोई समकालीन साक्ष्य उपलब्ध नहीं है। वस्तुत: इलियट और डाउसन ने 19वीं शताब्दी ईस्वी में कंपनी के कर्मचारी के रूप में यह घोषणा करते हुये ये तथ्य रचे थे कि हमें कंपनी के कर्मचारियों में हिन्दुओं के सामने हीनता का जो अनुभव होता है, उसे दूर करने के लिये यह तथ्य प्रस्तुत करना आवश्यक है कि भारत पर मुसलमानों ने आक्रमण किया और शासन किया तथा अवर्णनीय अत्याचार किये। उन्होंने यह भी घोषणा की कि यद्यपि भारत के भीतर इसके साक्ष्य नहीं मिल रहे हैं परंतु हमें ये साक्ष्य स्वयं ही ढूढ़ने या रचने होंगे। इस प्रकार उन्होंने गजना के महमूद और घोर के मुहम्मद के किस्से रचे और उनके समय का एक भी साक्ष्य नहीं होने पर भी इसे इतिहास बता दिया। जबकि संसार में कहीं भी किसी घटना के समय का समकालीन साक्ष्य नहीं होने पर उसे प्रामाणित साक्ष्य के रूप में नहीं दावा किया जाता।
कंपनी कर्मचारियों की गप्पें
इलियट एंड डाउसन के विषय में जानना आवश्यक है। हेनरी इलियट ईस्ट इंडिया कंपनी के कर्मचारी थे जो बंगाल में कार्यरत थे। उन्हें सबसे बड़ी परेशानी यह हुई कि बंगाली हिन्दू आये दिन अपने राजाओं और रानियों की प्रशंसा करते हैं और कंपनी में काम करते हुये भी कंपनी के अंग्रेज कर्मचारियों का तिरस्कार करते रहते हैं, क्योंकि वे उन्हें किसी बहुत मामूली राज्य से आये हुये कर्मचारी मानते हैं। उन अंग्रेज कर्मचारियों ने इलियट से शिकायत की कि ये बंगाली हिन्दू दिन भर हमें अपने राजाओं और रानियों का गौरव सुना-सुनाकर हमें नीचा दिखाते हैं। इस पर इलियट ने सोचा कि हम ऐसी पुस्तक लिखें जिसमें बताया जाये कि हिन्दू तो मुसलमानों से पिटते रहे हैं और मुसलमानों ने उन पर बड़े अत्याचार किये हैं इसलिये वे हमारा साथ दें।
इलियट ने बंगाल के परिचित मुसलमानों से कहा और चारों तरफ  डुग्गी भी पिटवा दी कि मुसलमानी राज्य के विषय में जो कोई कुछ लाकर हमें देगा, उसे ईनाम दिया जायेगा। बहुत दिनों तक कोई कुछ नहीं लाया। तब दुबारा ईनाम की राशि बढ़ाकर डुग्गी पिटवाई। तब कई दिनों बाद एक मुसलमान मुंशी एक किताब लेकर आया। जांच से पता चला कि वह जालसाजी भरी पुस्तक थी और उसमें ऊंट-पटांग बातें ही लिखी हुई थीं। मुस्लिम राज्य के विषय में कोई जानकारी नहीं थी। तब इलियट ने तय किया कि वह ईरान अफगानिस्तान आदि में ढूढेंगा कि शायद कोई ऐसी किताब हो।
उसने यह भी लिखा है कि अगर हमें कुछ टुकड़े भी मिल जायें तो हम उनके आधार पर गौरवशाली मुस्लिम इतिहास की रचना कर लेंगे। कुछ वर्ष भटकने के बाद उसे 1186 ईस्वी की कोई एक फारसी भाषा में लिखी किताब मिली। जिसका शीर्षक था 'तर्जुमा-ए-यामिनीÓ। बहरहाल यह पुस्तक भारत में कहीं भी उपलब्ध नहीं थी। उसकी कोई प्रति भारत में किसी ने देखी भी नहीं। पादरी जे.के. रेनाल्ड्स द्वारा उसका अंग्रेजी अनुवाद लंदन से 1858 ईस्वी में प्रकाशित किया गया। वही उपलब्ध है। इसके बाद दिल्ली के करामात अली ने भी उसी तर्ज पर अर्थात रेनाल्ड्स के अनुवाद की तर्ज पर उसी नाम से यानी तर्जुमाये यामिनी के नाम से 20वीं शताब्दी ईस्वी में एक किताब लिखी। यह बात इलियट एंड डाउसन के आठ खंडों वाली पुस्तक के दूसरे खंड में दूसरे लेख में बताई गई है। इससे स्पष्ट है कि वस्तुत: तो कथित पहली पुस्तक भी महमूद गजनवी के मृत्यु के 150 वर्ष बाद की बताई जाती है और वह पुस्तक भी और कहीं नहीं मिली। बस इलियट को मिली जिसका अनुवाद 19वीं शताब्दी ईस्वी के उत्तरार्ध में पहली बार छपा।
प्रसिद्ध है तत्कालीन पादरियों की जालसाजी
पादरियों की उस समय जाली रचनायें रचने के लिये कुख्याति थी। वे इस जालसाजी को कोई पवित्र काम मानते थे, क्योंकि यह उनके लार्ड जीसस का प्रकाश फैलाने में सहायक बनती है। अत: सभी लक्षण इस बात के हैं कि वह एक जालसाजी भरी किताब है, परंतु जालसाजी के साथ ही उसका समय महमूद गजनवी के 150 वर्षों बाद का है। समकालीन नहीं है। अत: प्रामाणिक नहीं है। इसके साथ ही यह ऐतिहासिक तथ्य है कि गजना एक कस्बा ही था। वह कभी भी कोई बड़ा नगर नहीं बना। वहाँ न तो वैसी कोई सेना हो सकती थी, जैसा वर्णन किया जाता है। न ही वहाँ उतने लाखों लोगों को रखने और भोजन तथा शौच आदि के लिये कोई भी स्थान तथा संसाधन होने की संभावना है। ऊंटों पर जो माल लूटकर ले जाया बताया जाता है, उतना माल उन दुर्गम पहाड़ी रास्तों से ले जाना कदापि संभव नहीं है। कुछ लोगों ने तो कई मन वजनी दरवाजों और सोने की मूर्तियों आदि की बातें कहीं हैं। उतना मन बोझ लादकर कोई भी ऊंट ऊंचे पहाड़ों पर बार-बार चढ़ उतर नहीं सकता। वह मर जायेगा। अत: सब प्रकार से यह झूठी गप्प है, परन्तु इससे भी अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि गजनी महाराज जयपाल के राज्य का एक कस्बा था। अत: वह भारतवर्ष का ही अंग था। इसलिये गजनी को किसी विदेश की राजधानी की तरह प्रस्तुत करना हास्यास्पद झूठ है। गजनी तो पूरी तरह भारतीय ही था। जबकि गजनी के महमूद और गोरी (घूरी) के मुहम्मद, दोनों ही पूरी तरह भारतीय हैं। वे विधर्मी हैं विदेशी नहीं। इसलिये गप्पों और झूठ के द्वारा निरर्थक ग्लानि जगाना अंग्रेजों का प्रयोजन तो था परन्तु स्वतंत्र भारत में ऐसे झूठ और गप्पों का क्या प्रयोजन है?
अलबरूनी ने गोरी की कोई विजयगाथा नहीं लिखी है
इसी प्रकार मुहम्मद गोरी के विषय में कोई समकालीन साक्ष्य उपलब्ध नहीं हैं। जिस अलबरूनी को उनका स्रोत बताया जाता है, उन्होंने गोरी के विषय में एक भी शब्द नहीं लिखा है। क्योंकि वे अपने गुरू द्वारा भारत का ज्ञान समझकर और लिखकर लाने के लिये भेजे गये थे। बरूनी भारत का बहुत बड़ा भक्त है और भारतीय ज्ञान पर मुग्ध है। भारत के ज्ञान को ले जाकर अपने इलाके में फैलाने में वह अपने जीवन की धन्यता मानता है। सोमनाथ मंदिर का उसने जहाँ गुणगान किया है, उस स्थल पर उसका अनुवाद करते समय एडवर्ड सचाउ ने 20वीं शताब्दी ईस्वी में अचानक सोमनाथ मंदिर के विध्वंस का उल्लेख अपनी ओर से कर दिया है। यह अनुवादक की शरारत है। मूल लेखक अबू रेहान मुहम्मद इब्न अहमद अल बिरूनी ने कहीं भी एक शब्द सोमनाथ विध्वंस के विषय में नहीं लिखा है। यही नहीं उसने मुहम्मद गोरी की किसी भी विजय यात्रा या युद्ध आदि पर भी एक भी शब्द नहीं लिखा है और वह गोरी के साथ भारत आया भी नहीं था। अत: घूरी या गोरी की सारी कहानी फिरंगियों द्वारा 19वीं शताब्दी की उत्तरार्ध और 20वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में रची गई। इस प्रकार गजनी और गोरी की सारी कहानियां गप्पे हैं और इन्हें स्वतंत्र भारत में इतिहास के रूप में पढ़ाना अपराध है। गजनी और गोरी के ये किस्से ब्रिटिश भारतीय काल में किसी ने जांचने की जरूरत नहीं मानी क्योंकि इतिहास के नाम पर ऐसे झूठ की कल्पना भारतीय लोग कर रही नहीं सकते थे। यहाँ विद्या की अत्यंत प्राचीन और प्रशस्त परंपरा रही है। इसलिये भारतीयों को यह कल्पना ही नहीं हो पाती कि यूरोप में समस्त लेखन और समस्त इतिहास लेखन भी एजेंडा आधारित पॉलीटिकल प्रोपेगंडा होता है और 20वीं शताब्दी के अंत तक इस प्रकार के सरासर झूठ प्रोपेगंडा करने में यूरो-अमेरिकी लेखक कभी भी झिझकते नहीं थे। इधर कुछ वर्षों से वहाँ विद्या का मान बढ़ा है परन्तु अभी भी अपने देश या अपने रिलीजन के हित में झूठ बोलने में और प्रोपेगंडा करने में वे लोग एक पल को नहीं झिझकते। इसके प्रचुर साक्ष्य विद्यमान हैं।
एक मामूली आवारा छोकरा था कासिम
एक तीसरा बड़ा झूठ कासिम को लेकर है। कह दिया जाता है कि मुहम्मद इब्न अल कासिम ने 8वीं शताब्दी ईस्वी के आरंभ में सिंध को जीता। यह झूठ का इतना बड़ा पुलिन्दा है कि इसका उल्लेख करने वाले बुद्धि से बहुत दयनीय व्यक्ति दिखते हैं। 695 ईस्वी के आखिरी दिन अथवा 696 ईस्वी के पहले दिन इस छोकरे का जन्म बताया जाता है। 715 ईस्वी में वह मर गया। अर्थात् साढ़े 19 वर्ष की आयु में वह मर गया। अब बताया जाता है कि 17 वर्ष की आयु में ही उसने सिंध के वैभवशाली ब्राह्मण राज्य को लूट लिया था। उसका स्रोत जिस पुस्तक को बताया जाता है उसके लेखक अल बालाधरी बताये जाते हैं जो स्वयं 9वीं शताब्दी ईस्वी के उत्तरार्ध में हुये। अर्थात कासिम की मृत्यु के पौने 200 वर्ष बाद। फिर उन बालाधरी महोदय की भी पुस्तक अरबी में थी या फारसी में इस पर विवाद है। उसकी भी पांडुलिपि की अनेक प्रतियाँ इन फिरंगियों ने क्यों नहीं छापीं, यह पता नहीं। पहली बार उसका अनुवाद 1870 ईस्वी में लेइडन से छपा और 1905 ईस्वी में कैरो से छपा। बालाधारी की पुस्तक 'फतह अल बलदानमुख्यत: तुर्कों की विजय गाथा है जिसमें कुछ पक्तियाँ ंिसंध में किसी कासिम की लूट के बारे में हैं। अगर उसे प्रामाणिक भी मानें तो उसमें उसका मामूली जिक्र भर है। 17 साल के इस छोकरे को कोई भयंकर दैत्य बताकर महान ब्राह्मणशाही को समाप्त कर देने वाला प्रचंड मुस्लिम सेनापति बताने वाले कार्टून 20वीं शताब्दी ईस्वी में इंग्लैंड और भारत में ही हुये हैं। पहली ही नजर में यह हास्यास्पद लगता है। दूसरी ओर स्वयं इलियट और डाउसन ने तथा अन्य अनेक यूरोपीय इतिहासकारों ने यह लिखा है कि 15वीं शताब्दी ईस्वी के मध्य तक सिंध में हिन्दुओं का शासन था। इस पर सबकी सर्वसम्मति है। तब भी 8वीं शताब्दी ईस्वी में छोकरे कासिम की विजयगाथा का गुणगान करने वाले देशद्रोही भारत में भरे पड़े हैं।
यह तक भुला दिया जाता है कि खुरासान शताब्दियों से भारत का ही राज्य था। उसके शासक बाह्लीक क्षत्रिय थे। 10वीं शताब्दी ईस्वी में वे बौद्ध से मुसलमान बन गये। बाबर वगैरह सब इसी खुरासान के थे।
दिल्ली के जागीरदारों को भारत का शासक बताना पाप है
इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि दिल्ली की जागीर पर अगर कभी हिन्दू से मुसलमान बने किसी जागीरदार का कब्जा हो ही गया तो उसे भारतवर्ष का सम्राट कहना भयंकर असत्य है। वस्तुत: 1912 ईस्वी में पहली बार अंग्रेजों ने दिल्ली को राजधानी बनाने का निश्चय क्रांतिकारियों के डर से किया उसके पहले तक वे कोलकाता को ही अपनी राजधानी बनाये हुये थे और वस्तुत: 1932 ईस्वी में ही केवल ब्रिटिश भारतीय क्षेत्र की राजधानी दिल्ली बनी है। उसके पहले तक अयोध्या, हस्तिनापुर, पाटलीपुत्र, पुरूषपुर (पेशावर), कन्नौज, थानेश्वर, नासिक, उज्जयिनी आदि ही हजारों वर्षों से भारत की राजधानी रहे हैं। इन्द्रप्रस्थ एक अलग राज्य था उस समय भारत की राजधानी हस्तिनापुर थी। अत: दिल्ली जागीर के मुस्लिम जागीरदार को उनके चाटुकार दरबारी हिन्दोस्तान का बादशाह कहें यह स्वाभाविक है परन्तु उन्हें सम्पूर्ण भारत का इतिहास पढ़ाते समय भारत का शासक कहना अपराध हैं। पन्ना, चरखारी, हमीरपुर, बांदा, सिंगरौली, सीधी आदि के राजा भी अपने-अपने राज्य में भूपति और पृथ्वीपति ही कहलाते हैं, परंतु इतिहास की पुस्तकों में उन्हें समस्त पृथ्वी का शासक कहने वाले हंसी के पात्र होंगे। इतने ही हंसी के पात्र मुसलमानों को भारत के शासक कहने वाले लोग हैं।
सत्य बिल्कुल विपरीत है। सीरिया, तुर्की और समस्त पारसीक जनपद (जिसके अंग ईरान और ईराक हैं तथा कभी अरब भी जिसका अंग रहा है) 15वीं शताब्दी ईस्वी तक हिन्दू और बौद्ध प्रभाव में रहे हैं। तुर्की भाषा में पैगम्बर मुहम्मद साहब की प्रशंसा में जो पहला महाकाव्य लिखा गया वह 15वीं शताब्दी ईस्वी का है। उसके पहले तक वहाँ बौद्ध और हिन्दू दर्शन की कवितायं और ग्रंथ ही लिखे जाते रहे हैं। तुर्की की राजधान अकंारा से 95 मील पूर्व स्थित हत्तुशश में सिंहद्वार मिले हैं जो वहाँ हिन्दू राज्य के चिन्ह हैं। सीरिया में बौद्ध और पारसीक प्रभाव 18वीं शताब्दी ईस्वी तक था और उसे फ्रेंच लोगों ने मिटाया है। सीरिया में भारत के पणियों का शताब्दियों राज्य रहा है। दजला नदी के तट पर ईसापूर्व में भगदत्त नामक नगर था जो बाद में बगदाद कहलाया। वहाँ सूर्य, मित्र, वरूण और अग्नि देवताओं की पूजा होती थी, इसके साक्ष्य मिले हैं। सीरिया से कृति राष्ट्र तक भगवान शिव और सिंहवाहिनी जगदम्बा दुर्गा तथा स्कन्दस्वामी कार्तिकेय के चित्र भी मिल हैं और सिक्के भी मिले हैं। अत: काल्पनिक इतिहास नहीं पढ़ाया जाना चाहिये।
 

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