इम्युनिटी तथा ऑटोइम्यून डिज़ीज

इम्युनिटी तथा ऑटोइम्यून डिज़ीज

डॉ. नागेन्द्र 'नीरज’ 
निर्देशक व चिकित्सा प्रभारी - योग-ग्राम, पतंजलि योगपीठ, हरिद्वार

इम्यूनिटी : शरीर की सुरक्षा के लिए प्रकृति ने अदभूत व्यवस्था की है। गर्भ में शिशु के सृजन के साथ ही स्वस्थ रहने के लिए इम्यून सिस्टम की नींव पड़ जाती है। शरीर का इम्यून बचपन से ही रोगाणुओं, बैक्टीरिया, वायरस, फंगस आदि पैथोजेन्स द्वारा उत्पन्न टॉक्सिन्स जीव विष से सतत लड़ते हुए, उन्हें नष्ट करता रहता है। कभी स्वस्थ रहते हुए तो कभी बीमार होकर शरीर की इम्यून सिस्टम एक विशाल नेटवर्क के अंतर्गत कार्य करते हुए सतत् विकासशील रहता है। इसमें सफेद रक्त कोशिकाएं, एण्टीबॉडीज, लिम्फैटिक सिस्टम, प्लीहा, थायमस, अस्थि, मज्जा, म्यूकस मेम्ब्रेन, टांसिल्स, लिवर तथा आतें आदि मिलकर एक जटिल नेटवर्क तैयार करते हैं। एक बार कोई किसी जर्म से रोग ग्रस्त हो जाता है तो पुन: उस रोग व रोगाणु से लड़ने के लिए शरीर में एण्टीबॉडीज तैयार हो जाती हैं। जैसे प्लेग, चेचक, मिजल्स आदि से लड़ने के लिए सामूहिक इम्यूनिटी जिससे हर्ड (Herd) इम्यूनिटी विकसित हो जाता है।
गलत आहार-विहार, विचार तथा जीवनशैली से इम्यूनिटी कमजोर होती है। सम्यक आहार विटामिन-सी, डी, बी, , जिंक, कॉपर, मैग्नेशियम युक्त आहार, ताजे फल, हरी सब्जियाँ, दूध, दही, छाछ, घी, अंकुरित अन्न इत्यादि। आहार में खमीर उठी इडली, खम्मन, खाण्डवी, अपे, ढ़ोकला आदि, व्यायाम, योगासन, प्राणायाम, ध्यान से इम्यूनिटी का विकास होता है। बार-बार जुकाम, ज्वर, खांसी, संक्रमण, थकान, खून संबंधी रोग, आटो इम्यून डिज़ीज, त्वचा तथा पेट का इन्फेक्शन तथा इन्फ्लामेशन, जंक-फूड, प्रोसेस्ड, फास्ट-फुड, कन्फेक्शनरी-फूड, रेड मीट, तले हुए आहार, टीन्ड एवं पैकेट वाला आहार इम्यूनिटी को कमजोर बनाते हैं।
किसी प्रकार के रोगाणु पैथोजेन्स शरीर पर हावी होने पर प्रतिक्रिया प्रत्युतर एवं रेस्पॉन्स में शरीर का इम्यून सिस्टम के जांबांज सैनिक उनसे लड़ते-जुझते हुए उन्हें समाप्त कर देते हैं। यह लड़ाई अनेक स्तर पर होती है। शरीर की प्रतिरक्षा के लिए प्रकृति ने इम्यूनिटी का विशाल जटिल अद्वितीय नेटवर्क तैयार किया हुआ है। संक्षिप्त रूप से समझें एवं जाने। हमारे शरीर में मुख्य दो प्रकार की इम्यूनिटी होती हैं। (1) इनेट या नेटिव इम्यूनिटी तथा (2) एडोप्टिव इम्यूनिटी होती है।
1.     इनेट या नेटिव इम्यूनिटी
  जिस जाति जनजाति समाज तथा समूह में किसी रोगाणु से वर्षों पूर्व ग्रस्त रहे उस जाति समूह में उस रोगाणु के प्रति इम्यूनिटी यानि रोग प्रतिरोधक क्षमता विकसित हो जाती है। इसे नेटिव या इनेट इम्यूनिटी कहते हैं।
2.     एडोप्टिव इम्यूनिटी के अंतर्गत
                (क) मैटरनल पैसिव 'यूमोरल इम्यूनिटीÓ तथा
                (ख) मैटरनल सेल मेडियेटेड इम्यूनिटी आती है।
ये दोनों प्रकार की इम्यूनिटी की नीव गर्भावस्था के दौरान प्रकृति डालती है।
(क) मैटरनल पैसिव 'यूमोरल इम्यूनिटी
गर्भ के तीसरे माह में प्लासेन्टल सेल के साथ नियोनेटल स्नष्टक्रहृ रेस्पटर्स के सहारे मैटरनल एण्टी बॉडीज FCRN गर्भस्थ शिशु में पहँचता है। दूसरा एण्टीबॉडी IgG प्रसवोपरान्त माँ के प्रथम दूध-पान के साथ शिशु के शरीर में पहुँचता है। गर्भस्थ शिशु के पाँचवें महीने में IgM तथा IgD दोनों साथ अभिव्यक्त होते हैं। एलर्जिक रोगों में IgE तेजी से बनता है। ये नैसर्गिक एण्टीबॉडीज है। जो रक्त में प्राय: न्यून मात्रा में होते है। संक्रमण के प्रत्युतर में उनसे लड़ने-जुझने, मरने-मारने के लिए इनकी संख्या में वृद्धि होती है, जो जन्म से जीवन प्रर्यन्त रोगाणुओं से लड़ते हुए हमारी रोग प्रतिरोधक शक्ति का सम्वर्द्धन करते हैं तथा हमें स्वस्थ रखते हैं। 
आर्टिफिशियल इम्यूनिटी पैदा करने के लिए मोनोक्लोनल एण्टी बाडीज का इन्ट्रावेन्स तथा इन्ट्रामस्कुलर इन्जेक्शन दिया जाता है जैसा कि कोविड-19 तथा उसके विभिन्न वेरिएन्ट में दिया गया। आर्टिफिशियल ट्रान्सफर सेन्सिटाइज्ड द्वारा एक्टिवेटेड टी-सेल्स किसी व्यक्ति से लेकर दूसरे में स्थानान्तरित किया जाता है। इसका विरल प्रयोग होता है। इस के लिए मैचिंग यानि हिस्टोकाम्पेटिबल एवं म्युटयूअल टॉलरेन्स होना जरूरी है।
(ख) मैटरनल सेल मेडिएटेड इम्यूनिटी
इस प्रकार की इम्यूनिटी माता-पिता के अंडाणु-शुक्राणु के मिलने से सृजित भ्रूण के विकास के प्रथम सप्ताह में ही भ्रूणीय अण्डपीत कोश (Embryonic Egg Yolk Sac) में पहला इम्युनिटी हिमोपोएटिक स्टेम सेल्स विकसित हो जाता है। समयान्तराल पर यह लिवर स्प्लीन (प्लीहा) होते हुए अस्थि मज्जा (बोन-मैरो) में पहुँचता है। अस्थि-मज्जा में ही बी. तथा टी. लिम्फोसाइट की नींव पड़ती है फिर ये थायमस में क्लोनाइज होते हैं। यही पर बी. लिम्फोसाइट अपनी क्षमता के अनुसार प्लास्मा कोशिका तथा दूसरी स्मृति मेमोरी बी. कोशिका रूप में प्रशिक्षित होते हैं।
प्लाज़्मा कोशिकायें रोगाणुओं को मारने के लिए रक्त तथा लिम्फ प्रवाह में एण्टीबॉडीज तैयार कर भेजती रहती हैं। ये शत्रु रोगाणुओं को नष्ट करने के लिए प्रति सेकण्ड दो हजार के हिसाब से करोड़ों की संख्या में प्रतिरक्षक प्रोटीन एण्टीबॉडीज का निर्माण करती हैं। टी-लिम्फोसाइट्स को भी उनकी क्षमता के अनुसार किलर साइटोटॉक्सिक टी-सेल्स, हेल्पर टी-सेल्स, रेग्युलटरी टी-सेल्स, मेमोरी टी-सेल्स के रूप चयनित करके ट्रेनिंग दी जाती है। इनके अलग-अलग प्रशिक्षित सहायक सैनिक एसिनोफिल, न्यूट्रोफिल, वेसोफिल, मैक्रोफेजेस, डेन्ड्रिटिक सेल्स, मास्ट सेल्स, साइटोकाइन्स, किमोकाइन्स, प्रोपरडिन, ब्रैडिकाइनिन आदि होते हैं।
ये सभी जीवन के प्रार्दुभाव से लेकर मृत्युपर्यन्त रोग एवं रोगाणुओं के अनुसार पैदा होकर उनसे लड़ते-जुझते हुए तथा हमारी रोग उन्मूलन एवं स्वास्थ्य सम्वर्द्धन करते हुए सदैव स्वस्थ रखते हैं। मेमोरी बी. तथा मेमोरी टी. लिम्फोसाइट, उन रोगाणुओं को हमेशा याद रखते हैं जिन्होंने कभी रोगग्रस्त किया था। पुन: उनके आक्रमण करने पर उन्हें पहचान कर मार डालते हैं। हेल्पर टी-सेल्स साइटोटॉक्सि टी-सेल्स को रोगाणुओं को मारने में सहायता करते हैं। रेग्युलेटरी टी-सेल्स रोगाणुओं से लड़ाई समाप्त हो जाने के बाद विभिन्न कोर एवं बटालियन के जाबांज, जुझारू इम्यूनिटी सैनिकों साइटोकाइन्स, कीमोकाइन्स, किलर, मेमोरी आदि सुरक्षा कमाण्डो को अपनी-अपनी बाड़ों में लौट जाने तथा आक्रमण एवं लड़ाई को समाप्त करने शांति बहाल करने एवं अमन, चैन, आरोग्य को पुन: स्थापित करने में पूरी तत्परता एवं समर्पण के साथ संलग्न हो जाते हैं। यह स्थिति स्वास्थ्य की होती है। 
हर्ड (Herb) इम्यूनिटी:
जब किसी सामुहिक समुदाय समाज या जाति के (Community)  की एक विशाल संख्या लोगों के आवश्यक प्रतिशत में किसी खास इन्फेक्शन के प्रति उस कम्युनिटी में इम्यूनिटी पैदा हो जाती है तो उसे हर्ड (Herd) इम्यूनिटी कहते हैं। इसे सामुहिक जनसंख्या की आबादी (Population) इम्यूनिटी भी कहा जाता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुुसार वैक्सीनेशन के द्वारा भी हर्ड (Herd) इम्युनिटी प्राप्त की जा सकती है। 
ऑटोइम्यून डिजीज:
विश्व में मान्यता प्राप्त 80 प्रकार से भी अधिक ऑटोइम्यून डिजीज का पता चला है। आटोइम्यून डिजीज भोजन में मिलाये जाने वाले प्रिजरवेटिव कलरेंट एडिटीव्स कृषि में प्रयुक्त पेस्टीसाइडस एवं केमिकल रसायन, मिथाइल मरकरी, कैडमियम, आर्सेनिक, लेड, लिथियम तथा मरकरी युक्त दवाइयाँ, सामाजिक, आर्थिक स्थिति खराब, अल्ट्रावायलेट रेडिएशन, अमेरिकन तथा यूरोपियन कॉकेशियन गोरे लोगों में प्राथमिक जीनेटिक रिस्क फैक्टर, प्रदूषण, स्टेटिन, बी.पी., कॉलेस्टरॉल आदि की दवाइयाँ एण्टीबायोटिक्स आदि, पर्यावरणीय जीन अन्तर प्रतिक्रिया के कारण जीनेटिक उत्परिवर्तन तथा शरीर में विटामिन-ए, डी, बी-12, बी-6, बी-9, ओमेगा-3 फैटी एसिड तत्त्वों की कमी, मानसिक तनाव, फास्ट फूड, सिंथेटिक फूड, प्रोसेस्ड एवं कन्फेकशनरी फूड्स, व्यायाम की कमी के कारण होता है।
एक ताजे सर्वेक्षण के अनुसार विश्व में सर्वाधिक एस.एल.ई. तथा जोगरण सिण्ड्रोम के रोगी ब्रिटेन तथा अमेरिका में है। ऑटोइम्यून डिजीज का कारण स्वच्छता एवं खान-पान के प्रति ज्यादा साफ-सफाई का जुनून पागलपन की हद तक पहुँचने के चलते विकसित देशों में शरीर में रोगकारक पैथोजेनिक तथा मित्र बैक्टीरिया प्रोबायोटिक्स यानि बुरे तथा अच्छे बैक्टीरिया के एक्सपोज नहीं होने से हमारे शरीर में रोग से लड़ने वाली इम्युन सिस्टम का भलिभांति विकास नहीं होता जिसके कारण पश्चिमी विकसित देश ऑटोइम्यून रोग के चंगुल में विकासशील देशों की वनिस्पत सर्वाधिक ज्यादा फंसा हुआ है। धीरे-धीरे अब भारत में भी इस रोग ने पैर फैलाना प्रारम्भ कर दिया है।
अब तक विश्व में मान्यता प्राप्त 80 प्रकार से भी अधिक ऑटोइम्यून डिजीज का पता चला है। उनमें प्रमुख निम्न हैं-
1. सिस्टेमिक ल्यूपस एरिथेमेटोसस (SLE) रोग:
ल्यूपस संयोजी उत्तक (Conective Tissue) का प्रदाहात्मक (Inflammatory) रोग है जिसमें त्वचा से लेकर शरीर का एक-एक संस्थान जैसे श्वसन संस्थान, फेफड़े, हृदय एवं रक्त-वाहिनियाँ, गुर्दे, यकृत, मस्तिष्क यानि एक-एक अंग भयंकर रूप से दुष्प्रभावित होते हैं।
SLE के प्रकार : ये प्राय: चार प्रकार के होते हैं-
क)     ल्यूपस डर्मेटाइटिस (रक्तपित्तिका चर्मरोग)
ख)     संस्थानिक रक्तपित्त का त्वग रोग (Systemic Lupus Erythamatosus)
ग)     औषधियों के दुष्प्रभावजन्य सिस्टेमिक ल्यूपस एरिथोमेटोसस (ड्रग इन्ड्यूस्ड SLE)
घ)     जन्मजात ल्यूपस (Neo Natal-Lupus)
सर्वप्रथम त्वचा पर विशेष प्रकार के तितली आकार जैसी पपड़ी वाली दानेदार उबड़-खाबड़ रक्तपित्तिका धारियां पड़ जाती हैं। कभी-कभी छपाकी जैसी दानेवाली पित्तिका (Butterfly Rash) नाक, चेहरे, गाल पर दिखाई देती है। अत्यधिक उग्र थकान, जोड़ों में दर्द, सूजन, जलन एवं लालिमा, बाल-झड़ना, रक्तहीनता, रक्त के थक्का बनने की प्रवृत्ति, ठण्ड के प्रभाव से अंगुलिया सफेद, नीली पड़ जाती हैं, सूज जाती हैं, झुन-झुनी एवं सिहरन महसूस होती है। इसे 'रेनॉउड फेनामेननकहते हैं। पाचन संस्थान, फेफड़े, हृदय एवं रक्त-वाहिनियाँ भयंकर रूप से दुष्प्रभावित होते हैं। रक्त का जमना एवं रक्त-स्राव दोनों ही लक्षण दिख सकते हैं। छाती में दर्द, एन्जाइना, दिल का दौरा, मूत्र मार्ग का संक्रमण, यीस्ट एवं सालमोनेला संक्रमण भी होता है। नाक, मुंह, होठों के म्यूकस मेम्ब्रेन का अल्सर या घाव, बालों का पतला होना, बालों का झड़ना, प्रकाश के प्रति संवेदनशीलता, हाथ, पैर, घुटना, कलाई, अंगुलियों, पीठ, कान या किसी छोटे-मोटे जोड़ों में दर्द, सूजन, लालिमा, जलन, अनियमित हृदय एवं नाड़ी, धड़कन, हृदय आवरण, फुफ्फुस आवरण दाह (Pericarditis Pleuritis) नेफ्राइटिस आदि किडनी के अनेक रोग लक्षण दिखते हैं। अस्थि कोशिकाएं एवं उत्तक नष्ट होने लगते हैं। कैल्शियम, विटामिन-डी की कमी के चलते ओस्टियोपेनिया तथा ऑस्टियोपोरोसिस, गर्भावस्था के समय जटिलताएं बढ़ जाती हैं। प्रीएक्लेम्पसिया, समय पूर्व प्रसव, कम वजन का शिशु पैदा होना, कभी-कभी गर्भ स्राव या गर्भपात आदि कई लक्षण अन्य रोगों में भी दिखते हैं। इसका निदान कर पाना टेढ़ी खीर होता है।
2. इन्फ्लामेटरी बॉवेल डिजीज (IBD)
जब इम्यून सिस्टम ऑतों के बाह्य लाइनिंग पर प्रहार करके डायरिया, पेट में मरोड़े, दर्द, गुदा द्वार से ब्लिडिंग, ज्वर, वजन की कमी पैदा करता है। आइ.बी.डी. के अंतर्गत मुख्यत: दो रोग हैं- अल्सेरेटिव कोलाइटिस तथा क्रोहन्स रोग।
3. मल्टीपल स्क्लेरोसिस (एम.एस.)
जब इम्यून सिस्टम के विद्रोही सैनिक तंत्रिकाओं के सुरक्षा काच मायलिन पर धावा बोलकर उन्हें क्षतिग्रस्त कर देते हैं। परिणाम स्वरूप सारे शरीर में दर्द, कमजोरी, मांसपेशियों में ऐंठन, अंधापन आदि रोग पैदा करते हैं। इसके लिए एण्टी सप्रेसिव इम्यूनसिस्टम वाली विभिन्न प्रकार की दवाइयां दी जाती हैं।
स्टेल स्टेमसेल वोल्यूम 25 इसू 4 पी. पेज 473-465 ई.8 में प्रकाशित रिसर्च रिपोर्ट के अनुसार उम्र बढ़ने के साथ सेन्ट्रल नर्वस सिस्टम के खास प्रकार के न्यूरोग्लिया सेल्स ऐस्ट्रोसाइट्स सेल्स ओलिगोडेन्ड्रोसाइट्स प्रीकर्सोर सेल की अच्छी तरह काम नहीं करने से रिमाइलिनेशन खत्म होने लगता है। दिमाग तथा मेरूदण्ड के नर्वफाइबर तंत्रिकाओं के चारों तरफ एक खास प्रकार की माइलिन शीथ का लेयर होता है। यह इन्सुलेटर की तरह कार्य करता है। नर्वफाइबर तंत्रिका को सुरक्षा प्रदान करता है जिससे इलेक्ट्रिकल सिग्नल का संचार अच्छी तरह कुशलता के साथ होने से शरीर के विभिन्न अंगों के मध्य जैव विद्युतीय चुम्बकीय आवेग ऊर्जा का संचार अच्छी तरह होने से वे अत्यन्त कुशलता एवं पूर्ण क्षमता से काम करते हैं। ओलिगोडेन्ड्रोसाइट्स प्रीकर्सोर सेल्स की निष्क्रियता एवं नष्ट होने से उनमें इन्फ्लामेशन प्रारम्भ हो जाता है। तंत्रिकाओं में जगह-जगह नन्हें-नन्हें पैचेज प्लेक्स लेशन धब्बे क्षत चीर दिखता है। परिणाम स्वरूप मल्टिप्ल स्क्लेरोसिस (एम.एस.) होता है। इसका निदान एम.आर.आइ. जाँच से होता है।
ए.डी.एफ. के प्रभाव से तंत्रिका मायलिन सम्बन्धित दो जीन द्वञ्जह्रक्र तथा ररूक्क्य विशेष रूप से सुप्रभावित होने से क्षतिग्रस्त मायलिन की मरम्मत तथा उनका विकास सम्वर्द्धन एवं संरक्षण अच्छी तरह होता है। इससे एम.एस. तथा अन्य तंत्रिका संबंधित रोगों में भी अद्भुत लाभ मिलता है।
यूकेरियोटस में सेलुलर मेटाबॉलिज्म के केन्द्रीय नियामकों में प्रमुख ए.एम.पी.के. है, जो इन्ट्रासेलुलर ए.टी.पी. कम होने पर सक्रिय होता है। यह आटोफेगी एवं सेल ध्रुवीयता सहित सेलुलर प्रक्रियाओं से जुड़ा हुआ है। पूर्ण उपवास एवं क्रमिक उपवास तथा लम्बे समय तक व्यायाम आदि तनाव से ए.एम.पी.के. सक्रिय होता है।
ए.एम.पी.के. आवश्यकता के अनुसार यानि एक्टिवेटेड मोनोफ़ॉस्फेट काइनेस सेलुलुर ऊर्जा संवेदक के रूप में कार्य करता है। यह सेल के विकास, प्रसार, कैटाबोलिक-पाथवेज के स्विच को ऑन-ऑफ करके हामोस्टैसिस को सही रखता है। इतना ही नहीं जिद्दी, संग्रहित पेट की व्हाइट चर्बी को बेहतर ढंग से कम करता है। ए.डी.एफ. या अल्टरनेट-डे फास्टिंग से निष्क्रिय जीन द्वञ्जह्रक्र अर्थात् मैमेलियन टार्गेट ऑफ रेपमाइसिन की सक्रियता एवं एक्सप्रेशन बढ़ने से ऑलिगोडेन्ड्रोसाइटस प्रीकर्सोर तथा एपिडीमल नामक न्यूरोग्लिया सेल्स के उत्पादन एवं पुनजर्नन क्रिया बढ़ने से मायलिन का इन्फ्लामेशन स्केरिंग एवं स्क्लेरोसिस दूर होता है। क्षतिग्रस्त मायलिन को पुनर्जीवन मिलता है। इस रिसर्च के अनुसार अल्टरनेट-डे फास्टिंग के प्रभाव से ्ररूक्क्य तथा द्वञ्जह्रक्र जीन के एक्स्प्रेशन के प्रभाव से तंत्रिकाओं के मायलिन का संरक्षण एवं कोशिकाओं के ग्रोथ, रिप्रोग्रामिंग मेटाबॉलिज्म, आटोफेगी तथा सेल पोलेरिटी का सही ठंग से नियमन नियंत्रण एवं नियोजन होता है।
4. रयूमेटायड आर्थराइटिस
इम्यून सिस्टम कुछ ऐसे खतरनाक एण्टीबॉडीज पैदा करती है जो हड्डियों तथा उनके जोड़ों के लिगामेन्टस, टेण्डन, कोलेजन फाइब्रिल, फाइब्रोब्लास्ट, इ.सी.एम. एक्स्ट्रासेलुलर (Extracellular Matrix) कॉम्पोनेन्ट, ग्रेन्यलेशनटिशू आदि पर हमला करके जोड़ों को क्षतिग्रस्त कर देते हैं। इसके लिए इन्जेक्शन तथा दवाइयां दी जाती है। इसमें दर्द, सूजन, ज्वर, एक से अधिक जोड़ों में दर्द, सूजन तथा स्टीफनेस, वजन गिरना, थकान, खून की कमी, कमजोरी, हिमोग्लाबिन, इ.एस.आर., आर.ए. फैक्टर तथा ए.एन.ए. बढ़ा हुआ होता है। 
5. ग्यूलेयिन बेर सिण्ड्रोम (Guillain-Barre Syndrome)
जी.बी.एस. में मांसपेशियों को नियंत्रित करने वाली तंत्रिकाओं पर इम्यून सिस्टम के उग्रवादी सैनिक हाथ-पैरों तथा अन्य अंगों पर प्रहार करके कमजोरी थकान आदि लक्षण पैदा करते हैं। इसमें प्लाज्मास्फेरेसिस प्रक्रिया से रक्त को छान कर इसका इलाज किया जाता है।
6.   क्रोनिक इन्फ्लामेटरी डिमाइलिनेटिंग पॉलीन्यूरोपैथी
उपर्युक्त एम.एस., जी.बी.एस. की तरह सी.आई.डी.पी. रोग में इम्यूनसिस्टम के धोखेबाज सैनिक तंत्रिकाओं (Nerves) पर प्रहार कर के रोगी को अपंग तक बना देते हैं। 30-40 प्रतिशत रोगियों को क्रिवल चेयर पर जीवन बसर करना पड़ता है। इसमें प्रोग्रेसिव इम्यून मेडिएटेड सिमेट्रिकल-प्रीडॉमिनेन्ट पेरिफरल न्यूरोपैथी के कारण हाथ-पैर शरीर के हर अंग दुष्प्रभावित होता है। इससे अंगों में थकान, शरीर का बेढ़ंगापन, सुन्नपन, झुनझुनी आदि लक्षाण दिखते है। 
7. ग्रेव्स डिजीज (Graves) डिजीज
इसमें इम्यून सिस्टम के जांबांज दुष्ट सैनिक एण्टीबॉडीज थॉयरॉयड पर प्रहार करके अत्यधिक मात्रा में हार्मोन पैदा करने के लिए विवश कर देते हैं जिससे रोगी के आँखों में सूजन, उभाड़, (Ophthalmic) वजन की कमी, दिल की धड़कन तेज, बाल रूखे-सुखे, पतले, बाल झड़ना आदि लक्षण दिखते हैं। इसमें थायरॉयड के ऑपरेशन की सलाह दी जाती है। इसे ग्रेव्स आफ्थैलमोपैथी (Graves Ophthalmopathy) भी कहते हैं। 
8. हाशिमोटोस (Hashimoto’s) थॉइरॉयडाइटिस
इम्यून सिस्टम के उग्रवादी शैतान सैनिक एण्टीबॉडीज थॉइरॉयड पर हमला करके जहाँ ग्रेव्स डिजीज में हाइपर थॉयरॉयडिज्म रोग पैदा करते हैं वहीं इस रोग में थॉयरॉयड पर हमला करके थॉयरायड कोशिकाओं का विध्वंस करके थायॉयड हार्मोन को पैदा करने की शक्ति को तहस-नहस कर कम मात्रा में थायरॉयड हॉर्मोन वाला रोग हाइपोथाइरॉयडिज्म पैदा करते हैं। इसमें भी जोड़ो में दर्द, कब्ज तथा बाल टूटना, याद्दाश्त की कमी, थकान, मोटापा, अवसाद, पीली बेजान, रूखी-सुखी एवं ठण्ड के प्रति संवेदनशील सैंसिटिव चमड़ी, अनियमित एवं अति ऋतुस्राव, गर्भधारण में कठिनाई तथा अस्त-व्यस्त, धीमी हृदय धड़कन के लक्षण दिखते हैं। हाइपोथायरॉयडिज्म तथा हाशिमोटोस थॉइरॉयडाइटिस दोनों मेटाबॉलिज्म स्तर पर मित्रवत हैं। सेक्स हार्मोन तथा ऑयोडिन का ज्यादा प्रयोग, रेडियशन एक्सपोजर मुख्य कारण हैं। इसमें हार्मोन वाली दवा दी जाती है।

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