जीवन की उत्पत्ति
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डॉ. चंद्र बहादुर थापा वित्त एवं विधि सलाहकार
भारतीय शिक्षा बोर्ड एवं विधि परामर्शदाता पतंजलि समूह
श्रीमद्भगवद्गीता के तीसरे अध्याय के चौदहवें श्लोक में कहा गया है - अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भव:। यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञ: कर्मसमुद्भव:।। सम्पूर्ण प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं। अन्न वर्षा से होती है। वर्षा यज्ञ से होती है। यज्ञ कर्मों से निष्पन्न होता है। कर्मों वेद से और वेद अक्षरब्रह्म से प्रकट हुआ। इसलिये वह सर्वव्यापी परमात्मा यज्ञ (कर्तव्य-कर्म) में नित्य प्रतिष्ठित है। अर्थात ठोस से द्रव होते हुए वायु बनाने में तप या ताप, यज्ञ अग्नि से आकाश रूपी शुन्य में पहुंचाकर उसके गति के परमोत्कर्ष से फिर बीज रूपी सूक्ष्म ठोस में परिणत करने की प्रक्रिया कर्म ही जीव उत्पत्ति के कारक है, और उसको जिस शक्ति ने कराता है वह ही परमात्मा तत्व है। वह ही सृष्टीकर्ता है। ऋग्वेद : की प्रारम्भ मंत्र – ॐ अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्। होतारं रत्नधातमम् ।। 1 ।। अर्थात, (यज्ञस्य) हम लोग विद्वानों के सत्कार संगम महिमा और कर्म के (होतारं) देने तथा ग्रहण करने वाले (पुरोहितं) उत्पत्ति के समय से पहले परमाणु आदि सृष्टि के धारण करने और (ऋत्विज्ञं) बारंबार उत्पत्ति के समय में स्थूल सृष्टि के रचनेवाले तथा ऋतु-ऋतु में उपासना करने योग्य (रत्नधातमम्) और निश्चय करके मनोहर पृथिवी वा सुवर्ण आदि रत्नों के धारण करने वा (देवं) देने तथा सब पदार्थों के प्रकाश करने वाले परमेश्वर की (ईळे) स्तुति करते हैं।
पृथ्वी में जीवन की उत्पत्ति कैसे हुई, यह एक वैज्ञानिक समस्या है जिसके लिए अभी तक सर्वमान्य सिद्धान्त नहीं मिले हैं। अधिकांश विशेषज्ञ इस बात पर सहमत हैं कि वर्तमान में धरती पर जितना भी जीवन है, वह सब किसी एक आदि जीव से उत्पन्न हुआ है। किन्तु यह पता नहीं है कि यह आदि जीव-रूप कैसे बना या उत्पन्न हुआ। लेकिन वैज्ञानिकों का मानना है कि यह किसी प्राकृतिक प्रक्रिया के द्वारा हुआ (अप्राकृतिक या दैवी प्रक्रिया से नहीं) जो आज से लगभग 390 करोड़ वर्ष पहले घटित हुई। जीवोत्पत्ति के अध्ययन के लिए मुख्यत: तीन तरह की परिस्थितियों का ध्यान रखना पड़ता है- भूभौतिकी, रासायनिक और जीवविज्ञानी। यह अनुसंधान करते हैं कि अपनी प्रतिलिपि बनाने वाले अणु (पदार्थ का वह छोटा कण है जो प्रकृति में स्वतंत्र अवस्था में पाया जाता है) कैसे उत्पन्न हुए। आज के सभी जीव आर.एन.ए. अणुओं के वंशज हैं (यद्दपि यह जरुरी नहीं है कि आर.एन.ए. आधारित जीवन अस्तित्व में आने वाला पहला जीवन था)। विभिन्न प्रयोगों ने साबित किया है कि अधिकांश अमीनो अम्लों (वे अणु जिनमें अमाइन तथा कार्बोक्सिल दोनों ही ग्रुप पाएं जाते हैं और साधारण सूत्र ॥२हृष्ट॥क्रह्रह्र॥ है- जो कि जीवन के बुनियादी रसायन हैं) का संश्लेषण प्राचीन पृथ्वी जैसी परिस्थितियों में अजैविक यौगिकों से हो सकता है।
कार्बनिक यौगिक के संश्लेषण की कई क्रियाविधियों में तड़ित (H2NCHROOH) और विकिरण (Radiation) शामिल हैं। "मेटाबोलिज्म फर्स्ट हाइपोथिसिस" में यह समझने की कोशिश कर रहे हैं कि प्रतिलिपि बनाने वाले अणुओं की उत्पत्ति के लिए जरुरी रसायनों को बनाने के लिए क्या प्राचीन पृथ्वी पर उत्प्रेरक (catalyst) पदार्थों ने कोई भूमिका निभाई होगी जो आर एन ए (क्रहृ्र ) बनने से भी पहले से थे, यथा किसी भी प्राणी के वीर्य से वंशोत्पादन होने पर भी बीज के रूप में डीएनए (डीएनए) और वनस्पति के बीज में उन के प्रतिरूप रहते हैं, जैसे बरगद के बीज के छोटे दाने में कुछ नहीं दिखाई देता, जिसने बरगद के पेड़ नहीं देखा और उसमे लगे फल के अंदर बीज के दाने नहीं देखा हो वह कभी विश्वास नहीं करेगा की अनुकूल स्थिति में उस बीज से सारनाथ का अमर "बटबृक्ष" बना होगा । जटिल कार्बनिक यौगिक सौर मण्डल और तारों के बीच के अंतरिक्ष में भी मिलें हैं। यह संभव है कि इन कार्बनिक यौगिकों ने पृथ्वी पर जीवन की शुरुआत के लिए सामग्री प्रदान की हो, प्राणियों के आरएनए -डीएनए और वनस्पतियों के बीजों के तरह !
पैनस्पेर्मिया हाइपोथिसिस (Panspermia Hypothesisis) अनुसार सूक्ष्मजीवी जीवन उल्काओं, क्षुद्रग्रहों और सौर मण्डल की अन्य छोटी वस्तुऔं द्वारा वितरित किया गया था, और जीवन ब्रह्माण्ड में हर जगह मौजूद हो सकता है तथा जीवन बिग बैंग के कुछ समय बाद उत्पन्न हुआ हो सकता है। यह हाइपोथिसिस केवल बताती है कि जीवन कहाँ से आया, यह नहीं की जीवन की उत्पत्ति कैसे हुई।
अजीवात् जीवोत्पत्ति
अजीवात् जीवोत्पत्ति, अर्थात निर्जीव से जीवन की उत्पत्ति (Abiogenesis) सरल कार्बनिक यौगिक जैसे निर्जीव पदार्थों से जीवन की उत्पत्ति की प्राकृतिक प्रक्रिया को कहते हैं। प्रयोगों के द्वारा, और आज के जीवों के जेनेटिक पदार्थों से जीवन पूर्व पृथ्वी पर हुए उन रासायनिक अभिक्रियाओं का अनुमान लगाया गया है की संभवत: जीवन की उत्पत्ति पृथ्वी पर अनुमानित 3.8 से 4 अरब वर्ष पूर्व हुई थी।
जीवों के प्रकार- अवायुजीवी जीव और वायवीय जीव
अवायुजीवी जीव (anaerobic organism) या अवायुजीव (anaerobe) ऐसा जीव होता है जिसे पनपने के लिए ऑक्सीजन की अवश्यकता नहीं होती। कुछ अवायुजीव तो ऑक्सीजन की मात्र उपस्थिति से ही क्षतिग्रस्त हो जाते हैं या मर जाते हैं। अवायवीय जीव एककोशिकीय हो सकता है - जैसे कि बैक्टीरिया और प्रोटोज़ोआ - या फिर बहुकोशिकीय।
अवायवीय जीवों को तीन श्रेणियों में बांटा जाता है- (1) अविकल्पी अवायुजीव (obligate anaerobe) - इन्हें ऑक्सीजन की उपस्थिति-मात्र सें हानि पहुँचती है और इनमें से कई मर जाते हैं; (2) वायुसह अवायुजीव (obligate anaerobe) - यह ऑक्सीजन का प्रयोग तो नहीं कर सकते लेकिन उसकी उपस्थिति बिना स्वयं को कोई हानि पहुँचे सह लेते हैं; (3) विकल्पी अवायुजीव (facultative anaerobe) - यह ऑक्सीजन उपलब्ध हो तो उसका प्रयोग करते हैं लेकिन उसके बिना भी बढ़ सकते हैं।
वायवीय जीव - सूक्ष्म जैविकी और क्रम विकास
वायवीय जीवों के लिए ऑक्सीजन आवश्यक है। सूक्ष्मजैविकी उन सूक्ष्मजीवों का अध्ययन है, जो एककोशिकीय या सूक्ष्मदर्शीय कोशिका-समूह जंतु होते हैं। इनमें यूकैर्योट्स जैसे कवक एवं प्रोटिस्ट और प्रोकैर्योट्स, जैसे जीवाणु और आर्किया आते हैं। विषाणुओं को स्थायी तौर पर जीव या प्राणी नहीं कहा गया है, फिर भी इसी के अन्तर्गत इनका भी अध्ययन होता है। संक्षेप में सूक्ष्मजैविकी उन सजीवों का अध्ययन है, जो कि नग्न आँखों से नहीं दिखाई देते हैं। सूक्ष्मजैविकी में विषाणु विज्ञान, कवक विज्ञान, परजीवी विज्ञान, जीवाणु विज्ञान, व कई अन्य शाखाएँ आतीं हैं जिनमे शोध होते रहते हैं एवं यह क्षेत्र अनवरत प्रगति पर अग्रसर है। अभी तक शायद पूरी पृथ्वी के सूक्ष्मजीवों में से एक प्रतिशत का ही अध्ययन किया है, जबकि सूक्ष्मजीव लगभग तीन सौ वर्ष पूर्व देखे गये थे, किन्तु जीव विज्ञान की अन्य शाखाओं, जैसे जंतु विज्ञान या पादप विज्ञान की अपेक्षा सूक्ष्मजैविकी अपने अति प्रारम्भिक स्तर पर ही है - वैश्विक महामारी COVID-19 के संक्रमण से फैली विश्वभर की चिकित्सा प्रणाली में अफरातफरी इसकी प्रत्यक्ष उदाहरण है।
कोशिका
कोशिका (Cell) सजीवों के शरीर की रचनात्मक और क्रियात्मक इकाई है और प्राय: स्वत: जनन की सामर्थ्य रखती है। यह विभिन्न पदार्थों का वह छोटे-से-छोटा संगठित रूप है जिसमें वे सभी क्रियाएँ होती हैं जिन्हें सामूहिक रूप से हम जीवन कहतें हैं। कुछ सजीव जैसे जीवाणुओं के शरीर एक ही कोशिका से बने होते हैं, उन्हें एककोशकीय जीव कहते हैं जबकि कुछ सजीव जैसे मनुष्य का शरीर अनेक कोशिकाओं से मिलकर बना होता है उन्हें बहुकोशकीय सजीव कहते हैं। सभी कोशिकाओं की उत्पत्ति पहले से उपस्थित किसी कोशिका से ही होती है। सजीवों की सभी जैविक क्रियाएँ कोशिकाओं के भीतर होती हैं। कोशिकाओं के भीतर ही आवश्यक आनुवांशिक सूचनाएँ होती हैं जिनसे कोशिका के कार्यों का नियंत्रण होता है तथा सूचनाएँ अगली पीढ़ी की कोशिकाओं में स्थानान्तरित होती हैं।
एककोशिकीय जीव
एककोशिकीय जीव (unicellular organism) वह जीव होते हैं जिनमें केवल एक ही कोशिका (सेल) हो। अधिकतर एककोशिकीय जीवों को देखने के लिए सूक्ष्म्बीन (माइक्रोस्कोप) की ज़रुरत होती है, केवल लगभग एक दज़र्न एककोशिकीय जीव सीधा आँख से देखा जा सकता है। ऐसे भी कुछ जीव हैं, जैसे कि डिक्टियोस्टीलियम (Dictyostelium) जो अलग-अलग परिस्थितियों में कभी एककोशिकीय और कभी बहुकोशिकीय होते हैं।
बहुकोशिकीय जीव
बहुकोशिकीय जीव (multicellular organism) वह जीव होते हैं जिनमें एक से अधिक कोशिकाएँ (सेल) हों। बहुकोशिकीय जीव बनाने के लिए इन कोशिकाओं को एक-दूसरे को पहचानकर जुड़ जाने की ज़रुरत होती है। बिना सूक्ष्मबीन (माइक्रोस्कोप) के दिख सकने वाले लगभग सभी जीव बहुकोशिकीय होते हैं ।
राइबोसोम
राइबोसोम एक गोलाकार, दो उपइकाइयों के बने, झिल्ली विहीन राइबोन्यूक्लिओप्रोटीन के सूक्ष्म कण होते हैं, जो हरितलवक (Chloroplast), केन्द्रक (nucleus) तथा कोशिकाद्रव्य (cytoplasm) में (अन्त:प्रद्रव्यी जालिका पर राइबोफोरोन प्रोटीन द्वारा जुड़ा) पाए जाते हैं। राइबोसोम राइबोप्रोटीन तथा द्वक्रहृ्रके बने होते हैं। यह एक झिल्ली विहीन कोशिकांग है। राइबोसोम सभी कोशिकाओं (सार्वभौमिक कोशिकांग) में पाया जाता है। कोशिकाद्रव्य में यह स्वतंत्र रूप में तथा खुरदरीअन्त:प्रद्रव्यी जालिका पर दाने के रूप में पाया जाता है। राइबोसोम सबसे छोटी कोशिकांग इकाई भी है और इसका आकार 15-20nm होता है। राइबोसोम RER कोशिका को छोड़कर शेष सभी कोशिकाओं में (यूकैरियोटिक कोशिका व प्रोकैरियोटिक कोशिका) में पाया जाता है। ये प्रोटीन संश्लेषण नामक प्रक्रिया में अमीनो एसिड से प्रोटीन को बनाते हैं। राइबोसोम परिपक्व आरबीसी (रूड्डह्लह्वह्म्द्ग क्रक्चष्ट) में अनुपस्थित होता हैं। रीबोफोरिन प्रोटीन की मदद से क्रश्वक्र (खुरदरी अन्त:प्रद्रव्यी जालिका) पर उपस्थित होता है। कई कोशिकाओं को उनकी मरम्मत या रासायनिक प्रक्रियाओं को निर्देशित करने के लिए प्रोटीन की आवश्यकता होती है। राइबोसोम का मुख्य कार्य अमीनों अम्ल के द्वारा प्रोटीन संश्लेषण में सहायता करना है।
राइबोसोम की संरचना
प्रत्येक राइबोसोम लगभग दो गोलाकार सबयूनिट्स (Subunits) का बन जाता है. इनमें एक छोटी (छोटी इकाई) एवं एक बड़ी सब-यूनिट (बड़ी उप इकाई) होती है। छोटी इकाई की आकृति अण्डाकार एवं बड़ी इकाई की आकृति गुंबद के आकार जैसी होती है। छोटी इकाई व बड़ी उप इकाई के क्रमश: कार्य m- RNA को जोड़ना व ह्ल- क्रहृ्र को जोड़ने का काम करते हैं। राइबोसोम की संरचना के स्थाइत्व के लिए mgw+ की आवश्यकता होती है जिसका मान 0.001 मोलर होता है।
राइबोसोम की बड़ी उपइकाई में तीन स्थल (साइट) होते हैं -
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ए-स्थल (A-Site): यह अमीनोएसिल स्थल तथा टी-आरएनए के लिए ग्राही स्थल होता है।
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पी-स्थल (P-Site): यह पेप्टाइडल साइट, पेप्टाइड लद्मक्वंखला के दीर्घीकरण के लिए स्थल होता है।
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ई-स्थल (E-Site): यह टी-आरएनए के लिए राइबोसोम से बाहर निकलने के लिए स्थल होता है।
इसकी उपइकाईयाँ राइबोप्रोटीन और आर-आरएनए द्वारा बनी होती है। जो निम्न प्रकार की होती है-
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50s उपइकाई – 34% प्रोटीन + 23 एस और 5 एस आर-आरएनए
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30S उपइकाई - 21% प्रोटीन + 16 एस आर-आरएनए
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60s उपइकाई - 40% प्रोटीन + 28 एस, 5.8 एस और 5 एस आर-आरएनए
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40s उपइकाई 33% प्रोटीन + 18 एस आरआरएनए
Ribosome का निर्माण न्यूक्लियोलस (केन्द्रिक) में 40-60% प्रोटीन और 60-40% आरएनए द्वारा होता है। न्यूक्लियोलस को राइबोसोमल उत्पादक फैक्टरी (Ribosomal Manufactring Factory) माना जाता है।
राइबोसोम के प्रकार
राइबोसोम प्रोकेरियोटिक कोशिका और यूकैरियोटिक कोशिका दोनों में पाया जाता है। (1) प्रोकैरियोटिक कोशिका में राइबोसोम 70s प्रकार का पाया जाता है जो बड़ी उप इकाई 50ह्य की इकाई 25s + 5s) एवं छोटी उप इकाई 30ह्य की इकाई 16ह्य प्रकार की बनी होती है; (2) यूकैरियोटिक कोशिका में राइबोसोम 80ह्य प्रकार का पाया जाता हैं जो बड़ी उप इकाई 60ह्य की इकाई (28s + 5.8s + 5s) एवं छोटी उप इकाई 40ह्य की इकाई 18s प्रकार की बनी होती है; (3) हरितलवक राइबोसोम – 70s प्रकार के जो 50s और 30ह्य उपइकाई के बने होते है; (4) माइटोकांड्रिया राइबोसोम या माइटोराइबोसोम - माइटोकॉन्ड्रिया व क्लोरोप्लास्ट का राइबोसोम 70s प्रकार का पाया जाता है। क्लोरोप्लास्ट के राइबोसोम को प्लास्टीड्यिल राइबोसोम कहते हैं। अवसादन गुणांक (Sedimentation coefficient) अर्थात 'ह्य' राइबोसोम के आकार की मापने की इकाई होती है। 70s राइबोसोम्स आकार में छोटे होते हैं जो माइटोकॉन्ड्रिया, क्लोरोप्लास्ट एवं बैक्टीरिया आदि में पाए जाते हैं। 80s राइबोसोम्स आकार में कुछ बड़े होते हैं, ये उच्च विकसित पौधों एवं जन्तु कोशिकाओं में पाए जाते हैं।
मातृ-पितृवंश समूह
वर्तमान सर्वप्रथम मातृवंशी नारी या माइटोकांड्रियल ईव उस अज्ञात नारी को कहते हैं जो आज के विश्व में मौजूद सारे नारियों और पुरुषों की निकटतम सांझी पूर्वजा थी। वैज्ञानिक अनुमान लगाते हैं कि यह नारी अफ्रीका के महाद्वीप पर आज से 2,00,000 साल पहले रहती थी और आधुनिक मनुष्य जाति के पुरुषों के सर्वप्रथम पितृवंशी पुरुष (जो विश्व के सारे पुरुषों का निकटतम सांझा पूर्वज था) ने इस नारी से लगभग 50,000 से 80,000 साल बाद अपना जीवनकाल व्यतीत किया। समय के साथ-साथ कभी किसी व्यक्ति के डी.एन.ए. में ऐसा बदलाव आता है जो आने वाली पीढ़ियों के डी.एन.ए. में हमेशा के लिए आसानी से पहचाने जाने वाले चिन्ह छोड़ जाता है। जब ऐसा होता है तो उस वंश समूह के सदस्य से एक नया उपवंश समूह आरम्भ होता है। इसी से वंश वृक्ष बनता है।
आधुनिक मनुष्य जाती की आनुवंशिकी (यानि जनैटिक्स) में पितृवंश समूह आर या वाए-डी.एन.ए. हैपलोग्रुप क्र एक पितृवंश समूह है। यह पितृवंश स्वयं पितृवंश समूह पी से उत्पन्न हुई एक शाखा है। इस पितृवंश की आर1ए, आर1बी और आर2 उपशाखाओं के पुरुष ज़्यादातर यूरोप, मध्य एशिया, पूर्वी एशिया, पश्चिमी एशिया, उत्तर अमेरिका और दक्षिण एशिया में पाए जाते हैं। इसकी आर1 शाखा के पुरुष उत्तर अमेरिका के कुछ आदिवासी समुदायों में भी पाए जाते हैं और इनके पूर्वज हजारों साल पहले साइबेरिया होते हुए उत्तर अमेरिकी और दक्षिण अमेरिकी उपमहाद्वीप पहुंचे थे। माना जाता है के मूल पितृवंश समूह आर जिस पुरुष के साथ आरम्भ हुआ वह आज से 35,000-40,000 साल पहले मध्य एशिया या मध्य पूर्व का रहने वाला था। माइटोकांड्रिया-डी.एन.ए. हैपलोग्रुप L0 एक अत्यंत प्राचीनतम मातृवंश समूह है। अनुमानत: जिस नारी से यह मातृवंश शुरू हुआ वह आज से लगभग 1,12,200 से 1,88,000 वर्ष पूर्व पूर्वी अफ्रीका में रहती थी।
वर्तमान मानव सूक्ष्म जैविक, कोशिकाएं में निहित पञ्च भौतिक पदार्थों की बीज को अनादिकाल से अज्ञात से प्रकृति प्रदत्त वंशोत्पादन प्रक्रिया से मातृ रज में पितृ वीर्य रूपी RNA और DNA राइबोसोम्स को मिलन कर कर्म-फल रूपी प्रारब्ध भोग्य आत्मा को प्रवेश करा कर सामान्यत: लगभग 9 महीने गर्भ में हाड-मांस, उत्तक इत्यादि में एक से अनेक कोशिकाओं के अकल्पनीय प्रशोधन कर मातृ प्रसव प्रक्रिया द्वारा बाह्य जगत में जन्म देकर 18-20 वर्षों तक शिशु से बाल, बाल से युवा में विकसित करते हुए अकल्पनीय सकारात्मक-नकारात्मक कार्य कराते हुए बीच में ही अथवा लगभग 100 वर्ष के वृद्ध बनाकर नियामक शक्ति द्वारा अज्ञात में ही मिलन कराता है, जिसको मानव ने परमात्मा नाम दिया है। अनेकों प्रलयों, युग-युगांतर से, परमात्मा के प्रतिरूप मानव, अपने बीज को वर्तमान खोज के अनुसार विश्वभर के मानव समुदाय को अधोलिखित पितृ और मातृ समूहों में बांटा है।
सनातन के अध्यात्म योग सम्बन्धी ऋषि उपमन्यु श्रीकृष्ण सम्वाद में प्रसङ्ग आता है की मनुष्य के दिखाई देने वाले स्थूल शरीर से परे न दिखाई देने वाले सातवां स्तर तक के शरीर रहते हैं जिन में से चौथे स्तर तक पहुँचने के बाद भी योनिज शरीर के प्रक्रिया में लौटते हैं अर्थात किसी भी माता के गर्भ में प्रवेश कर आगे के यात्रा करते हैं। पाँचवें में सचेतन देव अपने छठवें स्तर में अयोनिज स्तर पर पहुँचने के लिए छलाँग लगाने के लिए मनुष्य बनकर आश्चर्यजनक कार्य करते हुए मृत्यु को प्राप्त हो कर निरंतर सचेतन के अयोनिज स्तर 'अहम् ब्रह्मास्मि स्तर पर पहुँचते है, अंत में यदि स्व के अहंकार से पार जा सके तो सातवें शरीर परमात्मा के मिलन होते हैं। आधुनिक शिक्षा के परिवेश में शरीर स्थूल शरीर है, उस से परे योग से, भाव शरीर दूसरा स्तर, सूक्ष्म शरीर तीसरा, और तरङ्ग शरीर चौथे स्तर पर मानव पहुँचता है और सचेत रहा तो देव शरीर और अचेत रहा तो प्रेत शरीर प्राप्त कर विभिन्न माताओं के कर्म अनुसार प्रवेश कर जन्म मरण करता रहता है। देव शरीर ने और उन्नति कर पाँचवें अयोनिज स्तर पर पहुँच कर जनकल्याण के लिए मनुष्य जीवन ले कर छठवें अयोनिज महान ईश्वरीय कार्य करते हुए, सातवें परमात्मा मिलन के स्तर पर पहुँच जाता है, और वह स्तर ही 'ईश्वर- सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति। भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया।।’ मानव के उच्चतम स्तर है। परन्तु मानव के मृत्यु के बाद जन्म और मृत्यु के क्रम में फसल के बीज की तरह ये पितृ और मातृ वंश के पूर्वज के गुणसूत्र निरंतरता बनाये रखते हैं, अनुकूलता और प्रतिकूलता से प्रकट और लुप्त होते रहते हैं, जिनको वैज्ञानिक के रूपमे जन्म लिए हुए हमारे ही बीजवर्गी मानव शोध अनुसन्धान करते रहते हैं, कुछ सही, कुछ गलत, कुछ अनुमान कुछ सप्रमाण, और यह ज्ञान-पिपासा चलता रहता है। अस्तु।
लेखक
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