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स्पोटर्स सप्लीमेंट्स को मिलाकर लेने से ब्लड क्लॉटिंग, हार्टअटैक और लिवर डैमेज का जोखिम; ये जानलेवा भी साबित हो सकते हैं: विशेषज्ञ
अयूरोपियन सोसायटी ऑफ कार्डियोलॉजी ने एथलीट्स पर डोपिंग के 2006 विपरीत प्रभाव बताए
अगर आप भी चुस्ती-फुर्ती या परफॉर्मेंस बढ़ाने के लिए स्पोर्ट्स सप्लीमेंट्स या हेल्थ डिं्रक लेते हैं तो अलर्ट हो जाइए। इनसे दिल को जोखिम हो सकता है। अगर इन्हें मिक्स करके लेते हैं तो ये और भी खतरनाक हो जाते हैं। यूरोपियन सोसायटी ऑफ कार्डियोलाजी (ईएससी) ने इसे लेकर चेतावनी दी है। ईएससी के मुताबिक एथलेटिक प्रदर्शन सुधारने के लिए बड़ी संख्या में खिलाड़ी और युवा ऐसे उत्पाद ले रहे हैं। विशेषज्ञों ने एथलीट्स पर डोपिंग के 2006 विपरीत प्रभाव बताए हैं।
यूरोपियन जर्नल ऑफ प्रिवेंटिव कार्डियोलॉजी में एक्सपर्ट्स ने आगाह किया है कि इन न्यूट्रिशनल उत्पादों पर दवाओं के सख्त सुरक्षा मानक लागू नहीं होते। सख्ती न होने से इन सप्लीमेंट्स में डोपिंग नियमों को तोड़ने वाले रसायनों का जमकर इस्तेमाल होता है। विशेषज्ञों का मानना है कि इन सप्लीमेंट्स को मिलाने से ये आपस में क्रिया करके और खतरनाक हो जाते हैं। इनसे मौत भी हो सकती है। स्टडी के लेखक और वर्ल्ड एथेलेटिक्स में हेल्थ एंड साइंस के मैनेजर डॉ. पाओलो अडामी कहते हैं, सभी तरह के डोपिंग पदार्थ नुकसान पहुंचाने वाले होते हैं। जैसे एनाबोलिक स्टेरॉयड कृत्रिम हार्मोन मांसपेशियां बनाने की प्रक्रिया तेज कर देते हैं और उनकी टूटफूट रोकते हैं। पर लगातार इन्हें लेने से लिवर खराब होने के साथ इसमें ट्यूमर हो जाता है। दिल का आकार को बड़ा हो सकता है। हाई ब्लड प्रेषर की दिक्कत हो सकती है। यह ब्लड कोलेस्ट्रोल में बदलाव भी लाता है। ब्लड क्लॉटिंग होती है। इससे युवाओं तक में हार्ट अटैक का खतरा बढ़ जाता है। एंड्रोजन रिसेप्टर्स से कैंसर व कार्डियोवस्कुलर समस्याओं की आशंका बढ़ जाती है। नारकोटिक्स ड्रग्स से दिल की धड़कनें असामान्य होना, गंभीर तनाव और कोरोनरी धमनी से जुड़े रोगों का जोखिम रहता है। स्टिमुलेंट जैसे एम्फेटेमिन व मिथइलफेनिडेट से दिल व दिमाग पर बुरा असर पड़ता है। ये कंजेस्टिव हार्ट फेलियर, कार्डियक चेंबर में समस्या व हेमरेज का कारण बनते हैं। एनाबोलिक स्टेरॉयड का इस्तेमाल करने वाले खिलाड़ियों की मौत, न लेने वालों की तुलना में 20 गुना ज्यादा होती है। इनमें से एक तिहाई मौतें दिल की समस्याओं से होती हैं। ईएससी के मुताबिक ज्यादातर एथलीट कोच, साथी एथलीट व परिवार के लोगों से सलाह लेते हैं। यह खतरनाक ट्रेंड है।
100 से ज्यादा हेल्थ सप्लीमेंट्स में सेहत के लिए खतरनाक तत्व : नियामक
ईएससी के कार्डियोलॉजिस्ट बताते हैं कि बिना एक्सपटर््स की सलाह लिए लाखों लोग वेट लॉस से लेकर मसल बिल्डिंग के लिए बेतहाशा स्पोटर््स सप्लीमेंट्स का इस्तेमाल कर रहे हैं। जिम जाने वालों में भी इनकी खासी डिमांड है। ब्रिटेन के दवा नियामक की जांच में पता चला है कि एनर्जी बढ़ाने वाले १०० से ज्यादा हेल्थ सप्लीमेंट स्टिमुलेंट, स्टेरॉयड और हार्मोन पाए जाते हैं। ब्रिटेन की नेशनल हेल्थ सर्विस (एनएचएस) के मुताबिक लगातार स्टेरॉयड लेने से ब्लड पे्रशर के साथ किडनी, दिल और लिवर डैमेज हो सकते हैं।
साभार : दैनिक भास्कर
कीटनाशकों के कारण महिलाओं की हो सकती है सिजेरियन डिलीवरी
बच्चे के स्वास्थ्य को भी गंभीर नुकसान
किग जॉर्ज मैडीकल यूनिवर्सिटी के शोधकर्त्ताओं द्वारा ही ही में किए गए शोध से पता चला है कि जिस तरह से कीटनाशकों का अनियंत्रित तरीके से उपयोग बढ़ रहा है उसकी वजह से महिलाओं की सिजेरियन डिलीवरी का खतरा बढ़ सकता है।
यही नहीं इन कीटनाशकों के कारण बच्चे का जन्म समय से पहले हो सकता है, साथ ही जन्म के समय बच्चे का वजन सामान्य से कम हो सकता है, जो आगे चलकर बच्चे के स्वास्थ्य को गंभीर नुकसान पहुंचा सकता है। यह शोध जर्नल एनवायर्नमेंटल रिसर्च में प्रकाशित हुआ है।
भारत में गैर-कामकाजी महिलाओं पर है अध्ययन
इस अध्ययन में कीटनाशकों के गर्भावस्था पर पड़ने वाले प्रभावों को बताया गया है। यह शोध उत्तर भारत में गैर-कामकाजी महिलाओं पर किया गया था, जिसमें कीटनाशकों के कारण गर्भवती महिलाओं में आने वाले जैव रासायनिक परिवर्तन के साथ जीनोटाक्सिसिटी और ऑक्सीडेटिव तनाव को उजागर किया गया था। इसके लिए शोधकर्त्ताओं ने गर्भावस्था के समय 221 स्वस्थ मां और शिशु के गर्भनाल से रक्त के नमूने एकत्र किए थे, जिसे उन्होंने गर्भस्थ शिशु की उम्र और उसके वजन के अनुसार विभाजित किया था। सभी नमूनों में जिनमें बच्चे का जन्म समय से पहले हुआ था उन सभी में ऑगेंनों-क्लोरीन कीटनाशकों के उच्च स्तर का पता चला था।
जहां मां से लिए रक्त के नमूनों में एल्ड्रिन की मात्रा 3.26 मिलीग्राम प्रति लीटर और गर्भनाल से लिए रक्त के नमूनों में डाइल्ड्रिन की मात्रा 2.69 मिलीग्राम प्रति लीटर पाई गई थी।
जन्म के समय शिशुओं का हो सकता है वजन कम
एक मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक इस शोध के निष्कर्ष स्पष्ट रूप से दर्शाते हैं कि समय से पहले जन्म लेने वाले शिशुओं में जन्म के समय कम वजन और सी-सैक्शन डिलीवरी की स्पष्ट रूप से प्रवृत्ति देखी गई थी। शोधकर्त्ताओं का कहना है कि नवजात शिशुओं में जन्म के समय वजन में कमी, कीटनाशकों के कारण बढ़े हुए ऑक्सीडेटिव क्षति और जीनो टॉक्सिसिटी का परिणाम हो सकता है। इसमें कोई शक नहीं कि खाद्य उत्पादकता को बढ़ाने में कीटनाशकों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है पर यह भी सच है कि आज जिस अनियंत्रित तरीके से कृषि में इन कीटनाशकों का उपयोग किया जा रहा है वह अपने आप में एक बड़ी समस्या बन चुका है।
कैंसर जैसी गंभीर बीमारी का कारण भी कीटनाशक
डाऊन टू अर्थ की रिपोर्ट में कहा गया है कि यह कीटनाशक न केवल खाद्य उत्पादों को जहरीला बना रहे हैं साथ ही भूमि और जल प्रदूषण का भी कारण बन रहे हैं, जो बड़े पैमाने पर स्वास्थ्य और पर्यावरण को नुकसान पहुंचा रहे हैं। ये कीटनाशक मानव अंगों के साथ ही हार्मोन ओर शारीरिक विकास पर भी असर डाल रहे हैं। इसी तरह पंजाब के अमृतसर में स्थित गुरु नानक देव यूनिवर्सिटी द्वारा किए शोध से पता चला है कि खेतों में काम करने वाले कृषि मजदूरों में जीनोटॉक्सिसिटी यानी कीटनाशकों के कारण उनकी कोशिकाओं के भीतर ऐसे स्थायी परिवर्तन हो सकते हैं, जो कैंसर जैसी गंभीर बीमारी का कारण बन सकते हैं। ऐसे में यह जरूरी है कि देश में बढ़ते कीटनाशकों के उपाय को सीमित किया जाए, साथ ही उनके उपयोग के सम्बन्ध में कड़े दिशा-निर्देश जारी किए जाएं।
साभार : https://www.downtoearth.org.in/hindistory/health/child-health/pesticides-may-increase-the-risk-of-cesarean-delivery-scientists-revealed-79768#:~:text=
साइड इफैक्ट :कोरोना होने पर स्टेरॉयड लगाए, ऑक्सीजन सपोर्ट पर गए, अब हो रही हड्डियों की परेशानी, युवाओं के हिप रिप्लेसमेंट की आ रही है नौबत
अधिक उम्र वालों के साथ युवाओं के भी हिप रिप्लेसमेंट की आ रही नौबत
रोना की चपेट में आए ऐसे मरीज जिन्हें गंभीर संक्रमण हुआ था। इलाज के दौरान स्टेरॉयड लगाने की जरूरत पड़ी थी। लंबे समय तक उनको ऑक्सीजन सपोर्ट पर रखना पड़ा था। ऐसे मरीजों को अब हड्डियों से जुड़ी परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है। कुछ केस में तो मरीजों को हिप रिप्लेसमेंट कराने की नौबत आ रही है। ऐसी परेशानियां बड़ी उम्र के मरीजों के साथ ही युवाओं को भी आ रही है।
हमीदिया अस्पताल के पल्मोनरी डिपार्टमेंट और ऑर्थोपेडिक्स डिपार्टमेंट के डॉक्टरों की मानें तो कोरोना संक्रमित हो चुके अधिकांश मरीजों को मांस-पेशियों और जोड़ों के दर्द की शिकायत है। जीएमसी के पल्मोनरी डिपार्टमेंट के प्रोफेसर डॉ. निशांत श्रीवास्तव ने बताया कि कुछ मरीज एवस्कुलर निक्रोसिस (एवीएन) जैसी गंभीर बीमारी के भी पहुंच रहे हैं। पहले एवीएन से पीड्ति दो-तीन मरीज ही पहुंचते थे। लेकिन, कोरोना के बाद हर महीने छह-आठ मरीज हमीदिया अस्पताल पहुंच रहे हैं।
जिनके शरीर में खून का संचार प्रभावित हुआ उनको परेशानी
डॉक्टरों के मुताबिक कोरोना संक्रमण और इलाज के दौरान जिन मरीजों के शरीर में खून का संचार प्रभावित हुआ, उनके साथ यह परेशानियां हो रही हैं। एवीएन हड्डियों की वह स्थिति है, जिसमें बोन टिश्यू (हड्डियों के ऊतक) मरने लगते हैं। ये स्थिति तब बनती है, जब इन ऊतकों तक पर्याप्त मात्रा में खून नहीं पहुंच पाता है। इसे ऑस्टियो नेक्रोसिस भी कहते हैं।
हमीदिया में हड्डियों पर दवा के असर पर रिसर्च शुरू हुआ
मरीजों की बड़ी तादाद को देखते हुए हमीदिया अस्पताल प्रबंधन ने इसे बेहद गंभीरता से लिया है और कोरोना मरीजों में हड्डियों पर हुए दवाओं के प्रभाव के संबंध में रिसर्च शुरू किया गया है। ऑर्थोपेडिक्स डिपार्टमेंट के एचओडी डॉ. सुनीत टंडन की अगुवाई में एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. सुरेश उइके, असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. सौरभ शर्मा और आरएमओ डॉ. रेहान यह रिसर्च कर रहे हैं।
वजह साफ नहीं, स्टेरॉयड से या वैक्सीन से हुई परेशानी
डॉक्टरों के मुताबिक अधिक उम्र वाले लोगों के साथ ही 20 से 30 साल के युवाओं में भी यह गंभीर परेशानी देखने को मिल रही है। लेकिन, यह साफ नहीं है कि ये दिक्कत स्टेरॉयड के कारण है या फिर वैक्सीन लगने की वजह से। हालांकि स्टेरॉयड के कारण हड्डियों से जुड़ी परेशानियां तो होती हैं। लेकिन, स्पष्ट वजह तो रिसर्च के बाद ही पता चलेगी।
कोरोना से गंभीर पीड़ित रहे मरीजों को हो रही समस्या
यह बात सही है कि जो लोग कोरोना के गंभीर पीड़ित रहे, उनमें हड्डियों से जुड़ी परेशानी बहुतायत में हो रही हैं। इसकी वजह कोरोना संक्रमण के चलते खून संचार गड़बड़ होना है। कुछ मरीज जिन्हें स्टेरॉयड लगाए गए और ऑक्सीजन सप्लाई पर रखा गया था, उनके तो कूल्हे खराब होने की नौबत भी आ रही है। युवाओं में यह परेशानी ज्यादा है।
साभार : https://www.bhaskar.com/local/mp/bhopal/news/he-took-steroids-when-he-was-corona-went-on-oxygen-support-now-the-problem-of-bones-is-coming-due-to-hip-replacement-of-youth-130127940.html
खुलासा: मेडिकल कॉलेज के फार्माकोलॉजी विभाग की स्टडी में खुलासा, हर मर्ज के 299 मरीजों में 98 एलोपैथिक दवाओं की प्रतिक्रियों का विश्लेषण
हर सातवें मरीज को नई तकलीफ दे रही अंग्रेजी दवाएं
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86.27 फीसदी में एडवर्स ड्रग रिएक्शन मिला, 14.73 फीसदी में गंभीर दुष्प्रभाव
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३6.52 फीसदी में गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल 15.93 में नर्वस सिस्टम पर चोट
अंग्रेजी दवाएं मर्ज को ठीक करने के साथ-साथ नई तकलीफ भी दे रही हैं। हर सातवें मरीज में अंग्रेजी यानी एलोपैथिक दवा का सर्वाधिक असर पेट और आंतों पर पड़ रहा है। इसके बाद मरीजों पर नर्वस सिस्टम की दवाएं असर डाल रही है। ऐसे में सेल्फ मेडिकेशन और मेडिकल स्टोर से लक्षण के आधार पर दवाएं लेना भी घातक बन रहा है।
इसका खुलासा जीएसवीएम मेडिकल कॉलेज के फार्माकोलॉजी विभाग की हालिया स्टडी में किया गया है। स्टडी में एक साल तक दवा के प्रतिकूल प्रभाव के शिकार 299 मरीजों का डाटा बनाकर विश्लेषण किया गया। पाया गया कि अलग-अलग बीमारियों से पीड़ित इन मरीजों को 98 सॉल्ट की दवाएं दीं गई तो उनमें 408 बार प्रतिकूल दवा प्रतिक्रियाएं पाई गई। 86.27 फीसदी में एडवर्स ड्रग रिएक्शन मिला तो 14.73 फीसदी में गंभीर दुष्प्रभाव सामने आया। हर सातवें मरीज को नई तकलीफों का इलाज अलग कराना पड़ा।
स्टडी में नई तकलीफें जो सामने आई, उनमें 36.52 फीसदी में गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल, 15.93 में नर्वस सिस्टम पर चोट मिली, जबकि 14.7 फीसदी में स्किन टिश्यू प्रभावित मिले। इसी तरह 13.97 फीसदी में दवाओं से अवसाद की बीमारी मिली। स्टडी को फार्माकोविजिलेंस को भेजा गया है ताकि भविष्य में उनको लेकर आकलन किया जा सके।
स्टडी की एडवाइजरी: स्टडी में सेल्फ मेडिकेशन से बचने की सलाह दी है क्योंकि खुद से या मेडिकल स्टोर से लक्षण के आधार पर दवाएं लेना खतरनाक हो सकता है। एंटीबायोटिक का बेजा इस्तेमाल भी नुकसानदेह मिला है। मरीज को मर्ज कोई है पर सेल्फ मेडिकेशन में एंटीबायोटिक दवा उसने दूसरे सॉल्ट की ले ली।
डाक्टरों की सलाह पर ही दवाएं लें
प्रतिकूल दवा प्रतिक्रियाओं पर अलग स्टडी की गई है। दवाओं का प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, इसलिए हर किसी को डॉक्टरों की सलाह पर ही दवाएं लेनी चाहिए। यह स्टडी इसलिए की गई ताकि यह पता लग सके कि चलन में दवाओं का रिएक्शन कितना और किस तरह का सामने आ रहा है। स्टडी को यूरोपियन जर्नल ऑफ बायोमेडिकल एंड फार्मास्यूटिकल साइंस में प्रकाशित भी किया गया है।
साभार : https://www.livehindustan.com/uttar-pradesh/kanpur/story-english-medicines-giving-39-pain-39-to-every-seventh-patient-6705523.html
कोख चीर रहे प्राइवेट अस्पताल, हर चौथी डिलिवरी 'सिजेरियन’
एक्सपर्ट बोले: मोटी कमाई के साथ सुरक्षित प्रसव का फोबिया बड़ा कारण- सप्लिमेंट्स, पेन किलर या एंटीबायोटिक्स
राजस्थान में प्रसव के सरकारी अस्पतालों में नि:शुल्क के साथ सामान्य प्रसव के आंकड़े सुखद हैं। हर 13-14 प्रसव में से केवल एक प्रसव सिजेरियन हो रहा है। लेकिन प्राइवेट अस्पतालों में इसका आंकड़ा डराने वाला है। हर चौथा प्रसव सिजेरियन की करवाया जा रहा है। हालांकि जांचों में गर्भ में जटिलताएं एक कारण हो सकता है, लेकिन सामान्य के मुकाबले सिजेरियन प्रसव से मोटी कमाई को भी प्रदेश के सरकारी डॉक्टर इसका एक बड़ा कारण मानते हैं।
राजस्थान में सालाना करीब 17.50 लाख गर्भवती महिलाओं का प्रसव हो रहा है। चिकित्सा विभाग के आंकड़ों के अनुसार इनमें से 77 फीसदी यानी 13 लाख 47 हजार 500 प्रसव सरकारी अस्पतालों में हो रहा है। नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के मुताबिक इनमें से 7.2 फीसदी मतलब 97020 हजार की ही जटिलताओं के कारण मजबूरन सिजेरियन कर प्रसव कराया जा रहा है। जबकि प्राइवेट अस्पतालों में सरकारों के मुकाबले प्रसव का आंकड़ा तीन चौथाई (23 फीसदी) 402500 ही है, लेकिन ऑपरेशन से 26.9 फीसदी यानी एक चौथाई से ज्यादा 1.08 लाख का प्रसव सालाना हो रही है।
एक्सपर्ट डॉक्टर, प्राइवेट अस्पतालों के पैसा कमाने के लिए सिजेरियन प्रसव कराने की अधिक प्राथमिकता देने के साथ ही गर्भवती, परिजन और डॉक्टरों में सुरक्षित प्रसव के पैदा हुए फोबिया को भी इसका बड़ा कारण मानते हैं।
प्रसव से 541 करोड़ का चिकित्सा-व्यापार
प्रदेश में छोटे नर्सिंग होम में भी सिजेरियन प्रसव का 50 हजार रुपए का पैकेज परिजनों से लिया जा रहा है। वहीं बड़े अस्पतालों में यह राशि सुविधा मुताबिक 1.50 लाख तक है। 1.08 लाख प्राइवेट अस्पतालों सालाना प्रसव के औसतन 50 हजार भी प्रति सिजेरियन प्रसव खर्च माना जाए तो सालाना 541 करोड़ से अधिक रुपए प्रसव से ही अस्पताल कमा रहे हैं।
राजस्थान में सालाना प्रसव 17.50 लाख।
सरकारी 77 प्रतिशत:
· कुल प्रसव - 1347500
· सामान्य - 1250300 (92.8 प्रतिशत)
· सिजेरियन - 97020 (7.2 प्रतिशत)
प्राइवेट 23 प्रतिशत:
· कुल प्रसव - 402500
· सामान्य - 294500 (70.1 प्रतिषत)
· सिजेरियन - 108272 (26.9 प्रतिषत)
प्राइवेट में इलाज के साथ पैसा कमाने का प्रोफेशनलिज्म तो होता ही है। इससे इनकार नहीं किया जा सकता है, लेकिन प्रसूता परिजनों और डॉक्टरों में सुरक्षित प्रसव का यहां फोबिया ज्यादा होता है। गर्भवती, परिजन भी डॉक्टरों पर बिना परेशानी प्रसव कराने का दबाव बनाते हैं।
-डॉ. पुष्पा नागर, अधीक्षक,
जनाना अस्पताल।
प्राइवेट अस्पतालों में व्यावसायिकरण ज्यादा सिजेरियन का कारण मान सकते है, लेकिन दोषी तो परिजन-गर्भवती खुद है। परिजन-प्रसूता चाहती है कि प्रसव बिना दर्द के आसानी से हो। परिजन पैसे देकर चिकित्सा सुविधा ले रहे है, इसलिए डॉक्टर उनकी इस संतुष्टि को ज्यादा महत्व देता है।
-डॉ. विमला जैन, पूर्व अधीक्षक,
महिला चिकित्सालय।
प्राइवेट अस्पतालों में सिजेरियन प्रसव ज्यादा क्यों हो रहे हैं। बिना वजह तो नही हो रहे, इसकी समीक्षा करेंगे।
-आषुतोष ए.टी. पेडणेकर, शासन सचिव,
चिकित्सा विभाग।
साभार : https://dainiknavajyoti.com/article/4553/private-hospital-tearing-womb--every-fourth-delivery-caesarean--not-even-one-lakh-on-13-47-lakh-deliveries-in-government--1-08-lakh-on-4-lakh-in-private-only--expert-said--phobia-of-safe-delivery-with-big-earnings-is-a-big-reason
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