धीर की वाणी

धीर की वाणी

आचार्य प्रद्युम्न जी महाराज

  प्रसिद्ध गायत्री मन्त्र जिसे गुरु मन्त्र होने का गौरव प्राप्त है, उसमें प्रार्थना की गई है कि मेरी वाणी शुभ से युक्त रहे। महाराज इस विषय को एक अन्य रूपक के द्वारा भी समझाते हैं। वे कहते हैं- यह वाणी देवलोक की कन्या है। इसे नग्न मत करो। वाणी रूपी कन्या के साथ की गई खिलवाड़ तुम्हें समूल नष्ट कर देगी। कन्याएँ अनग्ना ही सुशोभित होती हैं। नग्नता ही तो अश्लीलता (अश्रीलता=शोभा रहितता) है। कन्याओं को सभी के द्वारा रक्षणीया व परम पवित्र रखने का पूर्ण प्रयास किया जाता है, उसी प्रकार इस वाणी के साथ व्यवहार करो! रक्षित व पवित्रता का मूर्त्त रूप ये कन्याएँ जैसे सबकी रक्षा करती हैं, वैसे ही रक्षित वाणी के द्वारा तुम्हारी रक्षा होगी। लोक में भी कहावत है- ''शरीर से नंगा सन्त; वाणी का नंगा बदमाश।’’
इस विषय में एक है कि रक्षित वाणी कैसे रक्षा करती है। दृष्टान्त का भाव इस प्रकार है- एक युवती का विवाह हुआ। सास बड़ी क्रोधी थी और मुख की भी बड़ी कड़वी, परन्तु पुत्रवधू बड़ी समझदार और शान्त स्वभाव की थी। सास प्रात: से सायं काल तक खूब ताने देती थी। एक दिन सास ने बहू से कहा- ''न जाने तू किस मिट्टी की बनी हुई जड़ मूर्ति है, जो तुझ पर तनिक भी प्रभाव नहीं होता। मैं इतनी देर से चिल्ला रही हूँ और तू सुनकर भी चुप है।’’ परन्तु बहू फिर भी शान्त रही। प्रतिदिन ऐसा होता और अड़ोस-पड़ोस के लोगों को भी तमाशा देखने को मिलता।
सास एक दिन फिर ऐसे ही बरस पड़ी। धरती पर लात मार कर बोली, ''इतना चिल्ला रही हूँ। तू मिट्टी से भी गई गुजरी है।’’ एक पड़ोसन से रहा न गया, बोली- बुढ़िया ! गाय के पीछे क्यों पड़ी हुई है! तुझे अपनी जिह्वा का चसका लेना है तो फिर थोड़ा गली से बाहर आ जा, तेरे अरमान पूरे कर देते हैं। उस देवी रूप बहू ने यह बात सुनी, तुरन्त शान्त और मधुर वाणी से कहने लगी- ''इन्हें कुछ मत कहिए। ये मेरी माँ हैं। माँ ही अपनी बेटी को नहीं समझाएगी तो फिर कौन समझाएगा ? बहू की मधुर वाणी ने सास के सारे क्रोध पर पानी डाल दिया। सास को फिर कभी अपनी देवी को कुछ भी सुनाते नहीं देखा गया। यह है रक्षित वाणी की शक्ति।’’
कल्पना की जा सकती है, बहू के विरोध में खड़े होकर सास जिस प्रकार वाणी की नग्नता पर उतर रही थी, उसी प्रकार वह देवी भी उसी के स्वर में अपना स्वर मिलाने लगती, तो क्या कभी उन दोनों के क्रोध का अन्त होता? क्रोध सबसे पहले मन में पैदा होता है, फिर मुख से गुजरता हुआ वाणी में आ जाता है और वहाँ से भी सरक कर हाथों या पैरों में आ पहुँचता है। मनुष्य प्राय: क्रोधाभिभूत होकर वाणी को नग्न कर देता है और उसके महादु:ख रूप परिणाम को भोगता रहता है।
महाराज से जब पूछा जाता है कि ऐसे प्रसङ्गों में क्या करें? तो वे एक ही बात कहते हैं- तितिक्षा=सहिष्णुता रूपी दृढ़ कवच को धारण करो। ऐसे मौकों के लिए ही तो यह कवच बना है। सब कुछ हमारी इच्छा के अनुसार ही ठीक-ठीक होता चला जाए तो फिर सहिष्णुता की क्या आवश्यकता ! इस बात पर जिज्ञासुओं के द्वारा एक प्रश्न और उठाया जाता है कि जी! कितना सहन करें। कोई सीमा भी है? महाराज इस प्रश्न का बहुत ही अद्भुत उत्तर देते हैं कि भाई! सहन करो। सहन करने में 'कितना’ नहीं होता। सहन के साथ 'कितना शब्द जोड़ दिया जाए तो सहन करने का कुछ अर्थ ही नहीं रह जाता है।
इस विषय में महाभारत (आदि पर्व) के ययाति उपाख्यान के उत्तर भाग में ययाति और इन्द्र का संवाद मिलता है, जो अतीव महत्वपूर्ण है। उस प्रसङ्ग को यहाँ उद्धृत किया जा रहा है जिसे महाराज सुनाया करते हैं-
ब्राह्मणों के साथ वन में निवास करते हुए अनेक प्रकार का तप करके ययाति स्वर्ग में गये। वहाँ देवताओं ने उनका स्वागत-पूजन किया। एक बार इन्द्र ने ययाति से पूछा, ''हे राजन्! जब पुरु ने अपना रूप देकर आपसे जरा प्राप्ति की और आपने कालान्तर में उसे राज्य सौंपा तब सत्य कहिए, आपने उसे क्या कहा?’’
ययाति ने उत्तर दिया, ''मैंने अपने प्रिय पुत्र पुरु से कहा, 'जो क्रोध नहीं करता, वह क्रोध करने वाले से श्रेष्ठ है। जो सहनशील है, वह उससे बढ़कर है जो सहन नहीं कर सकता। जो मानवेतर हैं, उन सबकी तुलना में मनुष्य प्रधान है। जो विद्वान् है, वह न जानने वालों में प्रधान होता है। यदि कोई अपने से जली-कटी बातें कहे तो स्वयं वैसा नहीं करना चाहिए। जो उन बातों को सहन कर लेता है, वह उसके सब पुण्यों को हर लेता है। मनुष्य को चाहिए किसी का मर्म न दु:खाए, किसी से कठोर बात न कहे। जो क्षुद्र है, उससे किसी वस्तु को ग्रहण न करे। जो वचन दूसरे को उद्वेग पहुँचाने वाला, हृदय छीलने वाला है और नारकी है, उसे कभी न कहे। जिसकी वाणी रूखी और मर्मान्तक है, जिसके शब्द शूल की तरह दूसरों को चुभते हैं, ऐसे मनुष्य के मुख में साक्षात् नाश की देवी निऋर्ति रहती है, ऐसे पुरुष को नितान्त श्रीविहीन समझना चाहिए।
मनुष्य को चाहिए कि सदा अपना आचार आर्यों के जैसा रखे और सज्जनों का आचार ग्रहण करे। उसके सम्मुख सज्जन ही पूजा के लिए हों और पृष्ठ (पीठ) पर भी सज्जन ही रक्षा करने वाले हों। इस प्रकार सज्जनों से नाता जोड़ने वाला वह असज्जनों के तीखे वचनों को भी सहन करे। वचन रूपी बाण असज्जन के मुख से छूटते रहते हैं, जिनसे मारा हुआ दूसरा व्यक्ति रात-दिन छटपटाता है। जो बाण दूसरे के मर्म को छेद देते हैं, उन वचन रूपी बाणों को बुद्धिमान् व्यक्ति दूसरों पर कभी न चलावे। तीनों लोकों में इस प्रकार का कोई वशीकरण मन्त्र नहीं है जिस प्रकार मीठी बोली, दान और प्राणियों के साथ मैत्रीभाव है। इसलिए सदा तुम दूसरों को मीठी बात कहो, कभी कड़वी नहीं। जो पूजा के योग्य हैं उन्हें सम्मान दो, सदा दूसरों को दान दो, स्वयं कभी याचक न बनो। यही वह आर्यवृत्त है, जिसका मैंने राज्य देते समय पुरु को उपदेश दिया।’’
'मनुष्य मानवेतर प्राणियों से श्रेष्ठ है, देव, गन्धर्व, किन्नर, सिद्ध आदि सब मानव से घटकर हैं, क्योंकि मनुष्य के पास कर्म-शक्ति है, उसके पास दैव के दिये हुए दस अंगुलियों वाले दो हाथ हैं।‘ इतना सुनकर इन्द्र ने ययाति को छेड़ते हुए पुन: प्रश्न किया, ''हे राजन्! सब कर्मों से छुट्टी पाकर और घर त्याग कर जब तुम वन में गये तब की बात तुमसे पूछता हँू। तुम्हारा तप किसके बराबर था?’’ यह प्रश्न सुनकर ययाति के मन में अहङ्कार की एक रेखा दौड़ गई। उसने कहा,''देवताओं में, गन्धर्वों में, मनुष्यों में और महर्षियों में मैं किसी को ऐसा नहीं देखता, जिसका तप मेरे जैसा हो।’’
इन्द्र ने चट उनकी बात पकड़ ली और कहा- ''तुमने जो अपने सदृश हैं, जो अपने से श्रेष्ठ हैं, और जो अपने से घटकर हैं, उन सबके प्रभाव को जाने बिना कैसे सबका तिरस्कार कर डाला ? इसलिए तुम्हारा पुण्य सीमित हो गया। औरों को सीमित समझने से तुम भी सीमित हो गए। तुम्हारा पुण्योपार्जित लोक भी अन्त वाला हो गया। अब तुम क्षीण होकर नीचे गिरोगे।’’ इस पर ययाति ने इन्द्र के समक्ष एक बहुत ही सुन्दर माँग रखी- ''हे इन्द्र! यदि देवर्षियों, गन्धर्वों और मनुष्यों का अपमान करने से मैंने अपना पुण्यलोक खो दिया है और मुझे सुरलोक से विहीन होना ही है तो हे देवराज! मैं चाहता हूँ कि मैं सज्जनों के बीच जाकर गिरूँ।’’
इन्द्र ने उनकी यह बात स्वीकार की और ययाति स्वर्ग से गिरकर सद्धर्म का जो विधान है, उसकी रक्षा करने वाले अष्टक राजर्षि के पास उपस्थित हुए। अष्टक ने उनसे पूछा- ''इन्द्र के समान रूपवान् हे युवक! तुम कौन हो, जो अग्नि की तरह स्वतेज से दीप्त हो? तुम्हें सूर्यपथ से नीचे आते हुए देखकर हम सब भ्रम में पड़ गए हैं कि अग्नि और सूर्य जैसे अमित प्रकाश वाला यह कौन आ रहा है? हम सब तुम्हारे पतन का कारण जानने के इच्छुक हैं। तुम कौन हो और क्यों आये हो ?’’
ययाति ने उत्तर दिया- ''मैं नहुष का पुत्र और पुरु का पिता ययाति हूँ। सब भूतों का अपमान करने के कारण अल्प-पुण्य बनकर देवताओं और सिद्धर्षियों के लोक से च्युत हो गया हूँ। मैं आयु में तुम सबसे बड़ा हूँ, इसलिए मैंने तुम्हें अभिवादन नहीं किया। जो विद्या में, तप में और आयु में वृद्ध होता है वही द्विजों में पूज्य समझा जाता है।’’ अष्टक ने कहा- ''क्या तुम यह कहते हो कि जो आयु में बड़ा है वह वृद्ध है ? मैं इसे नहीं मानता। मेरी दृष्टि में जो आयु में वृद्ध होते हुए विद्वान् भी हो, वही पूज्य है।’’
इस प्रसङ्ग में ययाति और अष्टक की प्रश्नोत्तरी के रूप में महाभारतकार ने नीति-प्रधान जीवन और प्रज्ञावान् पुरुष के आचार की सुन्दर व्याख्या दी है। ययाति ने अपने जीवन में अनेक प्रकार के अनुभव किये थे। उनका कुछ निचोड़ इस वार्त्तालाप में पाया जाता है। ययाति ने अपने दृष्टिकोण की व्याख्या करते हुए कहा- ''कर्मों का प्रतिकूल आचरण ही पाप कहा गया है। जो कर्म जिस प्रकार से करना चाहिए, उसे उसके उचित ढंग से न करना, यही बुराई का कारण है। जो व्यक्ति कर्म में श्रद्धा नहीं रखता, उसका वह कर्म भी पाप-युक्त हो जाता है। जो सज्जन हैं, वे कभी असज्जनों का अनुसरण नहीं करते। उनकी आत्मा उन्हें अनुकूल मार्ग पर ले चलती है।
जीवन में अनेक प्रकार के भाव आते हैं, वे दैव के अधीन हैं। ऊँच-नीच-सुख-दु:ख इत्यादि सम-विषम परिस्थितियों में मनुष्य की निजी चेष्टा कुछ काम नहीं देती। मन में समझ लेना चाहिए कि विधाता वाम (विपरीत) है। ऐसा सोचकर धीर व्यक्ति अपने आपको खिन्न नहीं होने देता।
प्राणी दैवाधीन होकर सुख या दु:ख पाता है, अपने मन से नहीं। अतएव नियति को बलवान् समझकर न दु:ख से सन्तप्त हो, न सुख से हर्षित हो। धीर पुरुष सदा अपने आपको सम अवस्था में रखे। हे अष्टक! भय से कभी मुझे मोह नहीं होता। मेरे मन में किसी प्रकार का सन्ताप नहीं होता। विधाता लोक में मुझे जिस तरह चलाते हैं, उसे ही मैं ध्रुव भवितव्यता मानता हूँ। सुख और दु:ख दोनों अनिवार्य हैं, फिर मुझे किस बात का सन्ताप हो? मैं जानता हूँ कि मुझे क्या करना चाहिए और किस प्रकार के कर्म करने से मेरे मन को पछतावा न होगा। मैं इस बात से अपने आपको सावधान रखता हूँ कि
परिणाम में सन्ताप देने वाले काम से बचूँ। चाहे वह काम वाणी का है, शरीर का या मन का।
अष्टक ने प्रश्नों का क्रम जारी रखते हुए कहा- ''हे ययाति! तुम्हारे कहने का ढंग ऐसा है, जैसे कोई क्षेत्रज्ञ धर्म की व्याख्या कर रहा हो। बताओ, तुमने किन-किन लोकों का कैसे-कैसे उपयोग किया?’’
ययाति ने उत्तर दिया- ''मैं इस पृथिवी पर सार्वभौम राजा था। मैंने अनेक लोकों को जीता और दीर्घ काल तक यहाँ निवास करके फिर मैं परलोक पहुँचा। वहाँ मैं इन्द्र की सहस्र द्वारों वाली और शत योजन लम्बी-चौड़ी अमरावती में दीर्घकाल तक रहा। उसके बाद प्रजापति के दिव्य अमरलोक में मैंने निवास किया। तब देवों का एक विकराल दूत मेरे पास आया और डपट कर बोला-''हट! हट! हट!’’ उसके ऐसा कहते ही मैं क्षीण पुण्य होकर नन्दन वन से नीचे लुढ़क गया और मैंने अन्तरिक्ष से गिरते हुए अपने पीछे देवताओं की यह वाणी सुनी- ''अहो! कैसे कष्ट की बात है कि पुण्यकर्मा ययाति भी पुण्य के चूक जाने से गिर रहा है।’’ मैंने उनसे कहा- ''मेरे साथ इतनी ही भलाई करो कि मैं गिर कर भी सज्जनों के बीच में पहुँच जाऊँ’’। हे अष्टक! इस पर उन्होंने आपकी यज्ञ-भूमि की ओर संकेत किया और मैं इस हविर्गन्ध देश में आ गया ।
अष्टक ने पूछा- ''नन्दनवन में इच्छानुसार सैकड़ों-हजारों संवत्सर निवास करके तुम्हें पृथिवी की ओर फिर क्यों आना पड़ा?’’ ययाति ने उत्तर दिया- ''यह तो सीधा नियम है। जिस प्रकार मनुष्य का धन क्षीण हो जाने पर उसके सम्बन्धी, मित्र और स्वजन उसे छोड़ देते हैं, वैसे ही मनुष्य का पुण्य समाप्त हो जाने पर सब देव-संघ और उनके अधिपति झट उसे छोड़ देते हैं। ये सब लोक अन्तवान् हैं और मनुष्य के पुण्य भी समाप्त होने वाले हैं। जब पुण्य चुक जाता है, लपलपाती हुई लालसा लिये हुए मनुष्य को पुन: इसी भूमि पर आना पड़ता है। यद्यपि वह अन्य प्रकार से क्षीण होता है, तथापि भोगों के प्रति उसकी तृष्णा बढ़ जाती है। अतएव बुद्धिमान् मनुष्य को चाहिए कि इस लोक में दुष्ट और निन्दित कर्म का परित्याग कर दे।’’
चार कर्म यदि ठीक प्रकार से किये जाएँ तो उनसे मनुष्य को अभय की प्राप्ति होती हैं। वे कर्म ये हैं- अग्निहोत्र, मौनभाव, अध्ययन और सेवा। किन्तु इनको भी यदि ऐंठ से भरकर बेढंगेपन से किया जाए तो ये ही मनुष्य के लिए भयंकर हो जाते हैं। सम्मान से प्रसन्न न होना चाहिए। इस संसार में भले आदमी भलों का सम्मान करते हैं। दुष्टों में साधु बुद्धि होती ही नहीं। दान, यज्ञ और अध्ययन, ये मेरे व्रत के अन्तर्गत हैं, इन्हें मैं अभय का मार्ग समझता हूँ, किन्तु यदि वे ही मान की इच्छा से किये जाएँ तो त्याज्य हैं।
अष्टक के इस प्रश्न के उत्तर में कि आचार्य की शुश्रुषा करने वाला ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और भिक्षु ये सत्पथ पर चलकर किस प्रकार देव-तुल्य बन जाते हैं, ययाति ने संक्षेप में उत्तर दिया-''गुरु का कर्म करने के लिए जिसे प्रेरणा की आवश्यकता न हो, गुरु से पहले उठने वाला और बाद में सोने वाला, जब वह कहे तभी अध्ययन करने वाला, मृदु, दान्त, स्थिर चित्त वाला, अप्रमादी और स्वाध्यायशील ब्रह्मचारी सिद्धि का अधिकारी है।’’
गृहस्थों की पुरातनी उपनिषद् विद्या यह है कि धर्मानुसार प्राप्त धन से यज्ञ करें, सदा दान दें, अतिथियों को भोजन कराएँ और दूसरों के द्वारा अदत्त धन का ही ग्रहण करें।अपने परिश्रम से जीविका करने वाला, पाप से निवृत्त, आहार और कर्म में संयमी, दूसरे को दान देने वाला, किसी को न सताने वाला मुनि अरण्य में रहता हुआ सिद्धि प्राप्त करता है।जो किसी शिल्प के सहारे जीविका नहीं चलाता, जो घर नहीं बनाता, जो जितेन्द्रिय है, जो गृहस्थी नहीं बटोरता, जो थोड़ा-थोड़ा विचरते हुए देशाटन करता है और अकेला रहता है, वही सच्चा भिक्षु है।
वानप्रस्थ मुनियों और उनके मौन धर्म की व्याख्या करते हुए उसने कहा- ''जंगल में रहते हुए जो गाँव को पीछे छोड़ देता है अथवा गाँव में रहते हुए जो जंगल को पीछे छोड़ देता है, वही मुनि है।’’ इस प्रकार की स्थिति कैसे सम्भव है ? इसके उत्तर में ययाति ने कहा, ''जो जंगल में रहने वाला मुनि है, वह किसी भी ग्राम्य आचार में नहीं पड़ता । यों वह जंगल में बसकर गाँव को पीछे छोड़ देता है। और यदि वह गाँव में बसते हुए केवल उतना ही भोजन करे जिससे प्राण यात्रा हो और केवल उतना ही चीवर ग्रहण करे जितना शरीर ढकने के लिए आवश्यक हो, गोत्र, जाति, विद्या, अग्निहोत्र और गृहवास, इनका मोह न करे तो गाँव में बसते हुए भी वह जंगल को पीछे छोड़ देता है।’’
इसके बाद स्वर्ग से भ्रष्ट हुए ययाति को अष्टक एवम् अन्य लोग अपने-अपने पुण्यों से उपार्जित लोक अर्पित करते हैं किन्तु ययाति ने यह कहकर सबको अस्वीकार कर दिया कि जिसके लिए मैंने स्वयं पहले कर्म नहीं किया है, मैं उससे चिपटने की कभी इच्छा नहीं करता।
 

Advertisment

Latest News

परम पूज्य योग-ऋषि श्रद्धेय स्वामी जी महाराज की शाश्वत प्रज्ञा से नि:सृत शाश्वत सत्य ... परम पूज्य योग-ऋषि श्रद्धेय स्वामी जी महाराज की शाश्वत प्रज्ञा से नि:सृत शाश्वत सत्य ...
जीवन सूत्र (1) जीवन का निचोड़/निष्कर्ष- जब भी बड़ों के पास बैठते हैं तो जीवन के सार तत्त्व की बात...
संकल्प की शक्ति
पतंजलि विश्वविद्यालय को उच्च अंकों के साथ मिला NAAC का A+ ग्रेड
आचार्यकुलम् में ‘एजुकेशन फॉर लीडरशिप’ के तहत मानस गढक़र विश्व नेतृत्व को तैयार हो रहे युवा
‘एजुकेशन फॉर लीडरशिप’ की थीम के साथ पतंजलि गुरुकुम् का वार्षिकोत्सव संपन्न
योगा एलायंस के सर्वे के अनुसार अमेरिका में 10% लोग करते हैं नियमित योग
वेलनेस उद्घाटन 
कार्डियोग्रिट  गोल्ड  हृदय को रखे स्वस्थ
समकालीन समाज में लोकव्यवहार को गढ़ती हैं राजनीति और सरकारें
सोरायसिस अब लाईलाज नहीं