भारत के स्वर्णिम भविष्य में पतंजलि का पुरुषार्थ
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डॉ. रुपेश शर्मा
योग संदेश विभाग
किसी भी विश्वविद्यालय का दीक्षारम्भ समारोह उस विश्वविद्यालय में छात्र-छात्राओं के जीवन के सबसे महत्त्वपूर्ण पलों/अवसरों/मौकों में से एक होता है। इसका अर्थ बहुत सीधा सा होता है परन्तु इसका उद्देश्य अत्यंत गंभीर और इतना ही बड़ा होता है। दीक्षारम्भ का अर्थ है विद्या की साधना। उसकी तपस्या से प्रारम्भ में संकल्प लेना कि आप अपने गुरुजनों, परिजनों एवं समाज की अपेक्षाओं के अनुरूप काम करते हुए समाज के हित में विद्या प्राप्त करेंगे।
पतंजलि विश्वविद्यालय के प्रथम दीक्षारम्भ संस्कार कार्यक्रम में पूज्य स्वामी जी एवं श्रद्धेय आचार्य जी के शामिल होने मात्र से छात्र-छात्राओं में नई ऊर्जा की लहर दौड़ गई। सभी का हृदय प्रसन्नता के अनुभव से ओतप्रोत था। वर्तमान में पतंजलि विश्वविद्यालय योग, आयुर्वेद, दर्शन, वेदों में एवं संस्कृत में सबसे बड़ा नाम है। पूज्य स्वामी जी महाराज ने और श्रद्धेय आचार्य बालकृष्ण जी ने जिस प्रकार योग, आयुर्वेद के माध्यम से देश-विदेश में भारतीय संस्कृति को एक नई पहचान दिलवाई है, उसके लिए आप दोनों बधाई के पात्र हैं। कहते हैं कि सच्चा ज्ञान एक स्थिर तालाब की भाँति नहीं होता, जहाँ समस्त ज्ञान भण्डार एक ही जगह रुक जाए, उसे संचित कर लिया जाए, वरन् सच्चा ज्ञान एक निर्मल बहती नदी की भाँति होता है, जिसका जल सभी के लिए होता है। पूज्य स्वामी रामदेव जी पतंजलि योगपीठ और पतंजलि विश्वविद्यालय की स्थापना करके इस महान् उद्देश्य की पूर्ति के प्रति संकल्पित हैं।
महर्षि दयानंद सरस्वती ने अपनी पुस्तक ‘संस्कार विधि’में 16 संस्कारों का वर्णन किया है। संस्कार विधि में इन संस्कारों के किये जाने का समय तथा इनके महत्त्व का भी वर्णन है। दीक्षारम्भ संस्कार भी उन 16 संस्कारों में से एक अति महत्त्वपूर्ण संस्कार है।
प्राचीन भारत में विद्यार्थी का उपनयन संस्कार तथा उसके बाद दीक्षारम्भ संस्कार किया जाता था। जिसमें विद्यार्थी कुछ प्रण लेते थे, जैसे- मैं गुरु की आज्ञा का पालन करूंगा। मैं अपनी शिक्षा पर पूर्ण ध्यान केन्द्रित करूंगा। मैं गुरुकुलम् के नियमों का पालन करूंगा। मैं जमीन पर शयन करूंगा आदि। यह सभी प्रतिज्ञायें विद्यार्थी के दिल में अपने गुरु और गुरुकुलम् के लिए एक उच्च स्थान देकर, मान-सम्मान और आदर भाव पैदा करती हैं। गुरु और बड़ों का आदर, संयम, धैर्य, अंहिसा, पारिवारिक सम्बंध, सब धर्मों के लोगों का इक्ट्ठे त्यौहार मनाना, भारतीय सभ्यता के अभिन्न अंग हैं।
भारत दुनियां की सबसे प्राचीनतम् सभ्यताओं में से एक है। समय के साथ सभी सभ्यताएँ विलुप्त होती चली गईं, लेकिन भारतीय सभ्यता-संस्कृति पिछले पांच हजार सालों से अपनी पहचान बनाये हुए है।
यह सब कुछ संभव इसलिए हो पा रहा है क्योंकि हमारे जीवन मूल्य और संस्कृति बहुत मजबूत हैं। ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’और ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ की विचाधारा ने देश में प्यार और भाई-चारा हमेशा कायम रखा है। हमें अंहिसा और धैर्य जैसी मानवीय गुणतायें भी मिली है। इसी संस्कृति की वजह से अलग-अलग धर्मों, पंथों को मानने वाले लोग एक होकर सच्चे भारतीय के रूप में सैकड़ों सालों से साथ रह रहे हैं। हमें अपनी सांस्कृतिक विरासत पर गर्व करना चाहिए। यही एक कारण था कि भारत में शान्ति का प्रसार हुआ और देश में यदि शान्ति होती है तो समृद्धि भी आती है।
शिक्षा के क्षेत्र में भी भारतवर्ष का अपना एक गौरवशाली इतिहास रहा है। तक्षशिला, नालंदा ओर विक्रमाशिला जैसे महान् विश्वविद्यालय की धरती है ये देश। ज्ञान, विज्ञान, साहित्य, कला हर क्षेत्र में भारत का जवाब नहीं था। जैसे अब हमारे युवा बाहर जाकर पढ़ते हैं, उसी प्रकार पहले विदेशों से युवा यहां पर आकर विज्ञान व अन्य विषय पढ़ते थे और शोध करते थे।
आज शिक्षा के मूल्यों का होना बहुत जरुरी है। भारत सैकड़ों सालों से ही ज्ञान, विज्ञान, साहित्य, संगीत, कला व संस्कृति के क्षेत्रों में अग्रणी रहा है। विश्व के सभी देश भारत को अपने आध्यात्मिक गुरु व मार्गदर्शन के रूप में स्वीकार करते थे। विज्ञान और कला के क्षेत्र में भी हम बहुत आगे थे।
यदि हम प्राचीन काल के शिल्पकारों (इंजीनियर) या वैज्ञानिकों की बात करें तो उनकी कुशलता के आगे आज का न तो कोई इंजीनियर और न ही कोई वैज्ञानिक उनकी कुशलता व कौशलता का उदाहरण बन सकता है। आज की दिल्ली में कुतुब के निकट चन्द्रगुप्त द्वितीय के समय का लौह स्तम्भ हो, जो आज भी वैज्ञानिकों के लिए एक चुनौती से कम नहीं है। लगभग 1600 सौ साल पहले बनाई गई यह लौह लाट जो लगभग 24 फुट ऊँची तथा 06 टन वजन की है, इससे आज भी जंग का कोई नामोनिशान तक नहीं है और आज के लोहे जो मात्र 8 से 10 सालों के बाद जंग का शिकार हो जाते हैं और खराब होने लगते हैं। यह प्राचीनतम लाट प्राचीन विज्ञान का प्रतीक बनकर खड़ी हुई है। इसी तरह से भारत की स्थापत्य और वास्तु कला के प्रमाण के रूप में प्राचीन समय के किले, भवन सालों से मजबूती के साथ खड़े है और एक आज की इमारतें है, जिनमें चार-पांच सालों के बाद कुछ न कुछ कमी आना शुरु हो जाती है फिर उसकी मरम्मत का कार्य शुरु हो जाता है।
अजन्ता-एलोरा की गुफाओं से लगभग सभी परिचित होंगे, देखा नहीं तो उसे पढ़ा अवश्य होगा। उस पर सैकड़ों सालों पूर्व की गई चित्रकारी के रंग आज भी वैसे के वैसे ही हैं। उसे देखकर लोगों को आश्चर्य होता है। यदि भारत के गौरवशाली अतीत और विरासत की बात शुरू की जाए, तो आज का पूरा दिन कम पड़ जायेगा। उसी प्रकार से हमारा खगोल विज्ञान, एस्ट्रॉनामी इतना उन्नत था कि पृथ्वी और सूर्य के मध्य, पृथ्वी और अन्य तारों के मध्य दूरी की गणना बिल्कुल सटीक की जाती थी। आज भी हमारे पंचांग, चंद्रग्रहण और सूर्यग्रहण की सटीक भविष्यवाणी उन्हीं गणना के आधार पर ही करते हैं। भारत के वैदिक गणित को आज अन्य देश भी अपनाने लगे हैं। आर्यभट्ट और वारहमिहीर जैसे गणितज्ञों ने जो सिद्धान्त सैकड़ों वर्ष पूर्व सिद्ध कर दिये थे। उनका लोहा संसार आज भी मानता है।
चरक और सुश्रुत जैसे महान चिकित्सक हमारे ही देश में जन्मे हैं, जिन्होनें भारतवर्ष का मान बढ़ाने का उत्कृष्ट कार्य किया है।
कहते है सुश्रुत विश्व के पहले चिकित्सक थे, जिन्होंने शल्य क्रिया का प्रचार किया। वे शल्य क्रिया ही नहीं बल्कि वैद्यक की कई शाखाओं के विशेषज्ञ थे। वे टूटी हड्डियों के जोडऩे, मूत्र नलिका में पाई जाने वाले पथरी निकालने, शल्य क्रिया द्वारा प्रसव कराने एवं मोतियाबिंद की शल्य चिकित्सा में दक्ष थे।
उसी प्रकार महर्षि चरक हुए जोकि पहले चिकित्सक हैं, जिन्होंने पाचन, चयापचय और शरीर प्रतिरक्षा की अवधारणा दुनियां के सामने रखी। वह ही पहले व्यक्ति थे जिन्होंने बताया कि शरीर के कार्य के कारण उसमे तीन स्थायी दोष पाये जाते हैं, जिन्हे वात, पित्त और कफ के नाम से जाना जाता है। ये तीनों दोष शरीर में जब तक संतुलित अवस्था में रहते हैं, व्यक्ति स्वस्थ रहता है। लेकिन जैसे ही इनका संतुलन बिगड़ जाता है, व्यक्ति बीमार हो जाता है। इसलिए शरीर को स्वस्थ करने के लिए इस असंतुलन को पहचानना और उसे फिर पूर्व की अवस्था में लाना आवश्यक होता है। इसलिए इन्हें फादर ऑफ मेडिसिन भी कहा जाता है।
पूज्य आचार्य जी कहते हैं कि भारतवर्ष का प्राचीन ज्ञान-विज्ञान मुख्यत: संस्कृत भाषा में लिखा गया है। जैसे-जैसे समय बदला बाहरी शासकों ने भारत पर शासन किया संस्कृत का प्रसार आम लोगों से दूर होने लगा और इसी कारण यह महत्त्वपूर्ण ज्ञान भी भारत के लोगों से दूर होता गया। हमारी संस्कृति के मूल्य और सिद्धांत हमारे से दूर हो गये। इन सिद्धान्तों को एक बार फिर से लोगों तक पहुँचाने की आवश्यकता आन पड़ी है। हमारी इस प्राचीन विरासत को संस्कृत के अलावा अन्य भाषाओं में भी लोगों तक पहुँचाया जाये, यह जरुरी है। आज जैसे युवा स्नातकों, रिसर्च स्कॉलर्स और पतंजलि विश्वविद्यालय जैसे संस्थाओं की भूमिका ज्यादा बढ़ जाती है।
पूज्य आचार्य जी कहते हैं कि विद्या अर्जन से दो लाभ होते हैं एक अस्थायी तात्कालिक लाभ जिसे हम भौतिक या लाभ कहते हैं। दूसरा चेतन अवस्था आत्मा का विकास जिसे हम अध्यात्मिक भी कहते हैं। जहाँ विज्ञान, चिकित्सा, कला आदि आपको सामाजिक, सांस्कृतिक रूप से प्रबल बनाते हैं, वहीं दूसरी ओर विवेक, प्रेम, सद्भाव, करुणा जैसे आत्मिक गुण आपको मानव मात्र के रूप में मजबूत करते हैं। यदि हम केवल भौतिक विकास की ओर भागेंगे तो हमारा अध्यात्मिक विकास पीछे रह जायेगा और चरित्र के गठन की नींव भी शायद कमजोर पड़ जायेगी। वहीं पूज्य स्वामी जी आज की शिक्षा पर कहते हैं कि प्राचीन गुरुकुलों की बात आज पूरी तरह से व्यवहारिक नहीं है। जब गुरु की सेवा करते विद्यार्थी ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए विद्या के साथ ही नैतिक मूल्यों की शिक्षा भी ग्रहण करते थे। आज के भौतिकवादी युग में आपकी सफलता के मापदंड बहुत बदल चुके हैं। आज महाराजश्री व पूज्य आचार्यश्री जी आप दोनों पुन: उसी संस्कृति, संस्कार, ज्ञान-विज्ञान, की स्थापना के लिए अपना पुरुषार्थ शिक्षा की क्रान्ति की दिशा में कर रहे हैं। आपका ही पुरुषार्थ है जो गुरुकुलम्, वैदिक गुरुकुलम्, कन्या गुरुकुलम्, आचार्यकुलम्, पतंजलि आयुर्वेद महाविद्यालय, पतंजलि विश्वविद्यालय, जैसे प्रकल्पों का सृजन किया है। इन सभी संस्थानों में अपनी भारतीय संस्कृति को संजोने का कार्य किया जा रहा है।
पूज्य स्वामी जी कहते हैं कि एक शिक्षक दरवाजा खोल तो सकता है, लेकिन उस दरवाजे के अन्दर प्रवेश आपको खुद ही करना पड़ता है। आपके गुरुजन आपको शिक्षा का मार्ग तो दिखा सकते हैं लेकिन उस पर चलना तो आपका दायित्व है। पतंजलि विश्वविद्यालय के छात्र के रूप में आपको योग, आयुर्वेद एवं अन्य आधुनिक ज्ञान प्राप्त करने का अच्छा अवसर मिला है, परन्तु इस कार्य के लिए आपको अपनी समस्त शिक्षा व्यवस्था में वैज्ञानिकता तर्क और प्रमाणों को बिना किसी संदेह के शामिल करना होगा। भावनाओं एवं परम्पराओं को आमजन की नजर में स्थापित करने के लिए वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देना होगा। इससे कोई संदेह नहीं है कि योग एवं आयुर्वेद की परम्परायें पूर्ण रूप से वैज्ञानिक है तथा इनको विज्ञान की कसौटी पर खरा उतारा जा सकता है, लेकिन इसी तथ्य को एक आम जनमानस पटल पर भी अंकित करना होगा। यह भी सच है कि आज बड़ी संख्या में युवा वर्ग योग, आयुर्वेद एवं आधुनिक प्रौद्योगिकी के लिए आकर्षित हो रहा है।
विधार्थियों की आँखों में बसे इन्ही सपनों को साकार करने के लिए पूज्य स्वामी जी विश्व स्तर की पतंजलि ग्लोबल पतंजलि यूनिवर्सिटी बनाने की योजना है जहाँ 1 लाख से अधिक छात्र सभी विषयों में ज्ञान हासिल कर सकेंगे जैसे भारत में पहले पूरी दुनिया के लोग भारत में नालंदा और तक्षशिला जैसे विश्वविद्यालयों में अध्ययन किया करते थे अब पतंजलि इन नालंदा और तक्षशिला जैसे विश्वविद्यालय का नवाचार व नव अवतार पतंजलि की ओर से प्रस्तुत होगा। इसका परिणाम आने वाले समय में दिखने भी लगेगा जब भारत के किसी भी छात्र-छात्राओं को अध्ययन के लिये किसी बाहर के देश नहीं जाना पड़ेगा अपितु पूरी दुनिया के छात्र-छात्राऐं यहां पर आकर दीक्षा-शिक्षा, संस्कार लेंगे जिससे हमारी सनातनी संस्कृति गौरवान्तित होगी। पतंजलि विश्वविद्यालय व्यक्ति निर्माण से राष्ट्र निर्माण की दिशा में कार्य कर रहा है। भविष्य में पतंजलि भारतीय शिक्षा बोर्ड की भी स्थापना करने जा रहा है। जिससे शिक्षा के क्षेत्र में क्रान्ति का बीज फूटेगा।
28 नवम्बर 2021 को पतंजलि विश्वविद्यालय का प्रथम दीक्षान्त समारोह था जहां पतंजलि विश्वविद्यालय के कुलाधिपति पूज्य स्वामी जी महाराज ने ऑडिटोरियम में बैठे सभी विधार्थियों को एक साथ बैठा देखकर वह भावुक हो गये और अपनी आंखो में आये आंसुओं को सबसे छुपा न सके आवाज भी कुन्द हो गयी पूज्य स्वामी जी अपने जज्बातों को रोक न सके और कहने लगे कि जिस प्रकार एक माता-पिता का हदय श्रेष्ठ व सफल संतान को देखकर गौरवान्तित होता है उसी प्रकार से आज मेरा भी हृदय अपने सभी छात्र-छात्राओं को देखकर गौरवान्वित हो रहा है। आज से इन बच्चों की शृंखला प्रारम्भ हो गयी जो भारत माता का मान बढ़ाने का कार्य करेगी इस दीक्षान्त का संकल्प दिवस भी है आज यहां से उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त यह सभी विद्यार्थी धर्म, राजनीति, सामाजिक व जीवन के हर क्षेत्र में अपने पुरुषार्थ की ध्वजा को लहराकर आगे बढऩे का कार्य करेगें ये सभी विद्यार्थी अपने अंदर संकल्प लें कर विश्व पटल पर भारत माता का शीष ऊंचा करने का कार्य करेगें।
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