सनातन धर्म का यूरोपीय मानवतावाद से संबंध

सनातन धर्म का यूरोपीय मानवतावाद से संबंध

प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज

ऋषि वशिष्ठ ने वशिष्ठ धर्मसूत्र में कहा है कि सत्य, अहिंसा, दानए अक्रोध और प्रजनन सभी मनुष्यों के धर्म हैं। (4/4 तथा 10/30)
गौतम धर्मसूत्र में भी कहा गया है कि सत्य, अक्रोध और शुद्धि ये तो सभी वर्णों के लिये धर्म हैं। (10/52)
महाभारत के शांतिपर्व के अंतर्गत राजधर्मानुशासन पर्व में 60वें अध्याय में 7वां एवं 8वां श्लोक है-
अक्रोध: सत्यवचनं संविभाग: क्षमा तथा।
प्रजन: स्वेषु दारेषु शौचमद्रोह एच च।।
आर्जवं भृत्यभरणं नवैते सार्ववर्णिका:
(अक्रोध, सत्य वचन, सम्पत्ति का अर्थात् दायभाग का न्यायपूर्ण वितरण, क्षमा, अपनी पत्नी से संतान की उत्पत्ति, आंतरिक एवं बाहरी शुद्धि, प्राणियों के प्रति द्रोह का अभाव अर्थात् अहिंसा, मन और व्यवहार की सरलता तथा अपने सेवकों का भलीभांति भरण पोषण- ये नौ गुण सार्ववर्णित हैं अर्थात् सभी वर्णों के लिये ये गुण आचरण में लाना अपेक्षित है।)
वामन पुराण में भी 14वें अध्याय के श्लोक 1, 2 तथा 18, 19 में सभी वर्णों के लिये ये दस गुण गिनाये गये हैं और इनके पालन को ही सदाचार कहा है-
अहिंसा सत्यमस्तेयं दानं क्षान्तिर्दम: शम:
अकार्पण्यं शौचं तपश्च रजनीचर।।
दशांगो राक्षसश्रेष्ठ धर्मोऽसौ सार्ववर्णिक:
ब्राह्मणस्यापि विहिता चातुराश्रम्यकल्पना।।
तस्य स्वरूपं वक्ष्याम: सदाचारस्य राक्षस।
श्रणुष्वैकमनास्तच्च यदि श्रेयोऽभिवांछसि।।
धर्मोऽस्य मूलं धनमस्य शाखा
पुष्पं काम: फलमस्य मोक्ष:
असौ सदाचारतरू: सुकेशिन्
संसेवितो येन पुण्यभोक्ता।।
(अर्थात् ऋषियों ने श्रद्धा और विनयपूर्वक प्रश्न पूछ रहे राक्षसराज सुकेशी की जिज्ञासा का समाधान करते हुये कहा कि हे राक्षसराज-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, दान, शांति, इंद्रिय संयम, शम, उदारता, शौच और तपस्या- ये दस गुण सभी वर्णों के लिये निर्धारित हैं। इनके अतिरिक्त ब्राह्मणों के लिये तो चार आश्रमों का विधान है।
सदाचार का मूल धर्म है, धन इसकी शाखा है, कामनायें या मनोरथ इसके पुत्र हैं और मोक्ष इसका फल है। सदाचार का पालन करने वाले मनुष्य को पुण्य भोग प्राप्त होते हैं तथा अंत में मोक्ष प्राप्त होता है।)
इस प्रकार सदाचार का पालन मनुष्य मात्र के लिये प्रतिपादित है और सामान्य धर्म या साधारण धर्म या मानव धर्म का पालन ही सदाचार है। जिनके गुणों और लक्षणों का वर्णन शास्त्रों में है। देवगिरि के यादवराज महादेव के एवं तदुपरान्त महाराज रामचन्द्र के मंत्री एवं राजकीय लेख प्रमाणों के अधिकारी 13वीं शताब्दी के विद्वान हेमाद्रि वत्स ने भी सामान्य धर्मों का विस्तार से प्रतिपादन किया है।
विष्णु धर्मसूत्र में भी सामान्य धर्म का उल्लेख है और ये 14 गुण सामान्य धर्म कहे गये हैं-
क्षमा सत्यं दम: शौचं दानमिन्द्रियसंयम:
अहिंसा गुरुशुश्रुषा तीर्थानुसरणं दया।।
आर्जवं लोभशून्यत्वं देवब्राह्मणपूजनम्।
अनभ्यसूया तथा धर्म: सामान्य उच्यते।। (2/16, 17)
(अर्थात् क्षमा, सत्य, दम, पवित्रता, दान, इन्द्रिय संयम, अहिंसा, गुरू की सेवा और उनकी बात ध्यान से सुनकर तद्नुसार आचरण करना यानी सुश्रुषा, तीर्थयात्रा, दया, ऋजुता, लोभशून्यता, देवताओं की पूजा करना और ब्राह्मणों का आदर-सत्कार- ये 14 गुण सामान्य धर्म अथात् मानवधर्म हैं।)
इस सामान्य धर्म या मानव धर्म के रूप में प्रतिपादित नैतिक आचरण अर्थात् सदाचार का आधार सर्वव्यापी परमसत्ता तथा उनके अनुशासन में प्रवर्तित कर्मफल का सनातन चक्र है। कर्मफल का सिद्धांत योगियों द्वारा देखे गये पुनर्जन्म के सत्य पर आधारित है। प्रत्येक व्यक्ति के भीतर स्थित आन्तर पुरुष उसके कर्मों के साक्षी हैं और वे ही अगले जन्म तथा उस जन्म में मिलने वाले संस्कारों एवं परिणामों के भी साक्षी हैं तथा कर्म ही संस्कारों एवं परिणामों का आधार है। सभी आन्तरपुरुष एक ही मूल परमसत्ता के चिदंश हैं। अत: एक व्यापक स्तर पर और सूक्ष्म स्तर पर एक के कर्मों का जो प्रभाव परिवेश में पड़ता है, वह दूसरे के लिये भी परिणामकारी होता है। इसलिये सत्कर्म का सभी पर कल्याणकारी प्रभाव होता है और दुष्कर्म का सब पर अकल्याणकारी प्रभाव होता है।
व्यक्ति की बुद्धि और मन जिन अन्य व्यक्तियों के प्रति तीव्र संवेग रखता है (अर्थात् आत्मीयता की गहनता जिनके प्रति होती है),  उन पर उस व्यक्ति के आचरण के परिणाम प्रतिफलित होते हैं। इसी अर्थ में पिता के कर्मों का फल संतान को और पत्नी या पति के कर्मों का फल साथी को भोगना पड़ता है और इसी अर्थ में व्यक्तियों के कर्मफल सम्पूर्ण कुल या परिवार को भी अंशत: प्रभावित करते हैं। राजा की आत्मीयता या ममता सम्पूर्ण राज्य से होती है, अत: उसके कर्मों का फल समस्त राज्य को भोगना पड़ता है। इस प्रकार कर्मफल एवं पुनर्जन्म के सिद्धांत ही नीति और सदाचार का आधार हैं। इसीलिए सदाचार के प्रमाण के लिये श्रुति एवं अंतकरण के प्रकाश- दोनों को ग्रहण किया जाता रहा है। इन दो आधारों के कारण ही धर्मशास्त्रों के सभी टीकाकार अपना मुख्य ध्यान भारतवर्ष के धर्मपरायण लोगों तक ही मुख्यत: केन्द्रित रखते रहे हैं। परन्तु वे यह अवश्य सदा स्पष्ट करते रहे हैं कि मानवधर्म सम्पूर्ण मनुष्यों के लिये हैं और उसका जो सामान्य स्वरूप है, वह सामान्य धर्म या साधारण धर्म या सामासिक धर्म है। जो सभी के लिये अनिवार्यत: पालनीय है और उनकी उपेक्षा से सभी को कष्ट होता है तथा उनके परिपालन से सुख की प्राप्ति होती है।
अन्तर यह है कि ये सभी प्रतिपादन सर्वव्यापी परमसत्ता और सार्वभौम नियमों को ध्यान में रखकर किये गये हैं, किसी राजा या सम्राट या पंथ प्रवर्तक को ध्यान में रखकर नहीं। इसीलिए जब कहा जाता है कि ये सामान्य धर्म सब के लिये हैं और सब के द्वारा पालनीय हैं तो यह उपदेशमूलक है और उपदेशमूलक अर्थ में ही आदेशमूलक है। परंतु यह किसी धर्मशास्त्र रचयिता के द्वारा अपने शास्त्र को मानने वाले लोगों के लिये किसी दंडविधान के रूप में नहीं है।

यूरोपीय मानवतावाद का स्वरूप

यूरोप में मानवतावाद की कल्पना पहली बार 19वीं शताब्दी ईस्वी में सामने आई। चूंकि अपने द्वारा प्रस्तुत किसी भी विचार को प्राचीन की निरन्तरता में दिखाना अनिवार्य होता है। इसलिये यूरोपीय मानवतावाद के प्रतिपादकों ने करुणा एवं सहानुभूति जैसे मानवीय गुणों को उनके अपने किसी प्राचीन ग्रन्थ में किये गये वर्णन का आधार बताना शुरू किया। परंतु यह एक दूरागत संबंध जोडऩा है। क्योंकि अतीत में कभी भी यूरोप में ज्ञात इतिहास में मानवता की या मानवधर्म की कोई बात नहीं की गई। क्योंकि सिसरो आदि यवन दार्शनिकों ने मनुष्य की बात केवल उसकी इस विशेषता को गिनाने के संदर्भ में की है कि मनुष्य के पास वाणी है और भाषा है। यह बात इस रूप में भी असत्य और निराधार है क्योंकि वस्तुत: वाणी और भाषा प्रत्येक प्राणी की होती है, केवल मनुष्य की नहीं। जैसा कि भारत में सभी शास्त्रों में बारम्बार कहा गया है कि बुद्धि और ज्ञान केवल मनुष्यों में नहीं है अन्य प्राणियों में भी है और कई प्रकार की बौद्धिक शक्तियां अन्य प्राणियों में मनुष्यों से अधिक हैं। श्री मार्कण्डेय पुराण में देवी माहात्म्य में (जो श्री दुर्गा सत्पशती के रूप में सर्वपूजित है) प्रथम अध्याय में ही कहा गया है-
ज्ञानमस्ति समस्तस्य जन्तोर्विषयगोचरे।।
विषयश्च महाभाग याति चैवं पृथक् पृथक्।
दिवान्धा: प्राणिन: केचिद्रात्रावन्धास्तथापरे।।
केचिद्दिवा तथा रात्रौ प्राणिनस्तुल्यदृष्टय:
ज्ञानिनो मनुजा: सत्यं किं तु ते हि केवलम्।।
यतो हि ज्ञानिन: सर्वे पशुपक्षिमृगादय:
ज्ञानं तन्मनुष्याणां यत्तेषां मृगपक्षिणाम्।।
(अर्थात् विषयगोचर सभी विषयों में सभी प्राणियों को ज्ञान होता है। विविध प्राणियों के लिये विषय भी अलग-अलग हैं। उदाहरण के लिये कुछ प्राणियों को दिन में नहीं दिखाई देता, रात ही उनके लिये विषय गोचर है। अन्य के लिये दिन ही विषय गोचर है और उन्हें रात में दिखाई नहीं पड़ता। जबकि कुछ अन्य को दिन और रात दोनों में बराबर दिखाई पड़ता है। पशु-पक्षियों और मृग आदि सभी प्राणियों में समझ होती है और वह समझ मनुष्यों से कुछ कम नहीं होती।)
इस प्रकार प्राणियों की अलग-अलग प्रकार की बुद्धि हैं और उनकी भाषा भी अलग-अलग है। परंतु बोध की सामथ्र्य से पूर्णत: रहित कोई भी जीव नहीं है।
समस्या यह है कि यूरोप में मध्ययुग में विकसित ईसाइयत में मनुष्यता की कोई धारणा नहीं थी। सर्वप्रथम तो उन लोगों ने अर्थात् मध्ययुगीन प्रमुख पादरियों ने यह व्याख्या की कि आत्मा केवल नर में है, नारी में आत्मा नहीं होती तथा अन्य प्राणियों मे तो आत्मा होने का प्रश्न ही नहीं। इसके बाद उन्होंने यह स्थापन की कि जिस नर को जीसस का प्रकाश मिल गया है, वह विकसित और सुसंस्कृत है। शेष सब नर भी अंधकार में डूबे हुये हैं। स्त्रियां तो आत्मा रहित हैं ही।
वैज्ञानिक प्रगति के बाद 19वीं शताब्दी में पहली बार यह बात उठी कि सभी मनुष्यों में कुछ सामान्यता है। इस पर से ही मानवतावाद की बात कुछ लोग इस अर्थ में करने लगे कि क्रिश्चिएनिटी तथा इस्लाम अपने-अपने मजहब और रिलीजन के अनुयायियों को श्रेष्ठतर और अन्यों को कमतर मानते हैं, जो गलत है और सभी मनुष्यों में कुछ समान तत्व मानना चाहिये। विशेषकर फ्रेंच क्रांति के बाद तथा जर्मनी में हीगल के अनुयायियों के उभार के बाद यह बात उठी। उसमें कहा यह गया कि जीसस के पिता गॉड की अलौकिक सत्ता को मानने या मानने के आधार पर मनुष्यों के बीच विभेद करना अथवा मुहम्मद साहब को आखिरी रसूल मानने या ना मानने के आधार पर मनुष्यों के बीच विभेद करना अनुचित है।
परन्तु वस्तुत: व्यवस्थित रूप से मानवतावाद का एक घोषणापत्र उन लोगों ने पहली बार संयुक्त राज्य अमेरिका के शिकागो विश्वविद्यालय में 1933 ईस्वी में जारी किया। जिसमें जॉन डेवी तथा कतिपय अन्य पादरी थे। इसमें तर्कशक्ति और सामाजिक तथा आर्थिक न्याय को मुख्य माना गया और ईसाई मतवादों के स्थान पर विज्ञान को महत्व देने पर बल दिया गया। कहा गया कि वैज्ञानिक विवेचना के आधार पर नैतिकता का तथा सही गलत का निर्णय किया जाना चाहिये। रूसो और एडमंड बर्क ने भी मानवतावाद की बात कही। इन्हीं लोगों ने प्रत्येक व्यस्क व्यक्ति को वोट देने के अधिकार की भी बात की।
इस बात पर बल दिया जाने लगा कि अच्छी तरह इस बात को कहना चाहिये और लिखना चाहिये। मुख्यत: लेखकों और बौद्धिकों के बीच ही यह मानवतावाद प्रचलित हुआ। 20वीं शताब्दी ईस्वी में इन लोगों ने यूरोप में ईसाइयत के पहले के बहुदेववादी विचारों को मानवतावाद का आधार बनाया। इनका मुख्य जोर विज्ञान पर था। लियोनार्दो दा विंची ने और माइकेल एन्जेलो ने मानव शरीर के अध्ययन पर बल दिया और मानव शरीर को दर्शाती अनेक मूर्तियां भी बनाईं जो बहुत प्रसिद्ध हुईं। धीरे-धीरे ईसाई पंथनिष्ठा के विरूद्ध मानवतावाद का विचार उभरा और फैलता चला गया तथा यूरोपीय मानवतावादियों ने विश्व की विभिन्न उपनिवेशों की स्वतंत्रता का प्रबल समर्थन किया। अमरीकी लेखक थामस पेन ने मानवतावाद का भरपूर पक्ष लिया। जार्ज इलियट नामक लेखिका ने (जिनका मूल नाम मेरी एन इवांस था) मानवतावाद का जमकर प्रचार किया। जूलियन हक्सलेए ब्राक चिशोम और जॉन ब्रायड ऑर ने - ये तीन प्रसिद्ध मानवतावादी हुये।
वर्तमान में यूरोप में मानवतावाद का समर्थक एक बड़ा बौद्धिक वर्ग है। इनका मानना है कि सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और बौद्धिक सभी क्षेत्रों में प्रस्थान बिंदु है मानव। मानव को केंद्र में रखकर ही समस्त चिंतन किया जाना चाहिये। मानव की स्वाधीनता और प्रगति सबसे बड़े आदर्श हैं। समस्त मनुष्यों में एक अंतर्निहित गरिमा एवं उनकी परस्पर आंतरिक समता में विश्वास इस मानववाद के मुख्य लक्षण हैं। संसार में सबसे अधिक चिन्ता इस मनुष्य की ही करनी चाहिये, ऐसा इनका मानना है। इसीलिये ये लोग ईसाइयत, इस्लाम तथा अन्य सभी ऐसे पंथों से अपने को दूर रखते हैं जो किसी एक पैंगम्बर या मसीहा के ही विचारों के अनुसार सार दुनिया को नियंत्रित रखने की इच्छा वाले पंथ हैं। इसमें कम्युनिज्म का विरोध तो अंतर्निहित ही है क्योंकि 75 वर्षों में करोड़ों निर्दोष लोगों की स्वयं को कम्युनिस्ट कहने वाले शासक या सत्तास्पर्धी समूहों द्वारा घिनौनी हत्यायें किये जाने के बाद से सम्पूर्ण प्रबुद्ध विश्व कम्युनिज्म से गहरी घृणा करता है। किसी भी मजहब या रिलीजन या राजनैतिक पंथ से नहीं बंधने के अर्थ में ये मानवतावादी लोग स्वयं कोसेक्युलरकहते हैं। ऐसा इसलिये है क्योंकि औसतन हर ईसाई यूरोपीय स्वयं कोरेलिजसही मानता है।
परंतु यहां एक बहुत ही विचित्र स्थिति भारत के संबंध में बनती है। भारत में कम्युनिस्ट तथा ऐसे सभी समूह जो अत्यन्त संकीर्ण मतवादी हैं तथा केवल अपने पंथ का ही प्रभुत्व संसार में चाहते हैं, वे सब लोग हिन्दुओं के विरूद्ध हैं और केवल इसलिये स्वयं को सेक्युलर बताते हैं क्योंकि वे हिन्दू धर्म का नाश चाहते हैं। इस प्रकार इनके द्वारा स्वयं को सेक्युलर कहना एक रणनैतिक और छलपूर्ण कदम है। इनका यह प्रयोजन स्वयं को हिन्दुत्वनिष्ठ कहने वाले बहुत से बौद्धिकों द्वारा इन दुष्टतापूर्ण प्रयोजन से क्रियाशील लोगों को हीसेक्युलरकहने से सहज ही सिद्ध हो जाता है। विदेशों में ये अपने को सेक्युलर दिखाकर कई प्रकार का लाभ लेते हैं और समर्थन जुटाते हैं। जबकि यूरोप का कोई भी मानवतावादी व्यक्ति हिंदू धर्म का विरोधी कदापि नहीं होता। इस प्रकार भारत के तथाकथितसेक्युलर' केवल छल के सहारे अपना अस्तित्व बचाये हुये हैं।
 

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