आत्मनिर्भरता का अर्थ

आत्मनिर्भरता का अर्थ

प्रो. कुसुमलता केडिया

आत्मनिर्भरता का इन दिनों हमारे माननीय प्रधानमंत्री जी ने भावनापूर्वक आह्वान किया है और तत्परता से उस दिशा में आर्थिक आत्मनिर्भरता के लिये अनेक शासकीय कदम उठाये हैं तथा राष्ट्र से भी आह्वान किया है। इस विषय में गंभीरता से विचार कर निर्णय किए जाने की आवश्यकता है और संपूर्ण राष्ट्र में इस विषय में सजगता अपेक्षित है।
आत्मनिर्भर होने की यह बात ही स्पष्ट कर रही है कि अभी तक हम पर निर्भर रहे हैं। स्पष्ट है कि कुछ क्षेत्रों में विदेशों पर निर्भरता से मुक्ति की ही बात की जा रही है। परंतु यह निर्भरता वस्तुत: कब से है। रिकार्ड्स तो बताते हैं कि 15 अगस्त 1947 ईस्वी तक हम आत्मनिर्भर ही थे। क्योंकि अंग्रेज जब आधे भारत में काबिज थे, तब भी वे भारत से जो व्यापार कर रहे थे, वह कुल भारतीय व्यापार का बहुत नन्हा सा अंश था। यह बात स्वयं ब्रिटिश रिकार्ड में कही गई है। यह स्थिति तब थी, जब वे पूरी तरह बहीखातों के हेर-फेर के साथ हिसाब रख रहे थे अर्थात् अपना एक रुपए का सामान हमें दस रुपए में बेच रहे थे और हमारा दस रुपए का सामान स्वयं एक रुपए में ही ले रहे थे। शासन का मुख्य उपयोग वे इसी गड़बड़ी और हेरफेर के लिये कर रहे थे। तब भी 15 अगस्त 1947 ईस्वी को जब वे भारत से गये हैं, तब स्वयं उनके इस गड़बड़ हिसाब के बावजूद इंग्लैंड पर भारत का कर्ज था। तो स्पष्ट है कि उस समय तक तो हम केवल आत्मनिर्भर थे अपितु दाता ही थे। हमारी स्थिति सदा से दाता की ही रही है। एंगस मेडिसन के आंकड़ों को और विशेषकर उसके द्वारा परिशिष्ट में दिये गये आंकड़ों को हमारे यहाँ ठीक से देखने समझने की कोशिश नहीं की गई। यद्यपि वे आंकड़े एंगस मेडिसन ने यथासंभव भारत के सत्य को छिपाते हुये प्रस्तुत किये हैं। तब भी उससे पता चलता है कि भारत सदा से अत्यंत समृद्ध और दाता राष्ट्र रहा है।
1860 ईस्वी तक तो भारत स्वर्ण मुद्राओं का शुद्ध आयातक था। स्वयं लंदन की रायल स्टेटिस्टिकल सोसायटी के पत्र में 1856 में छपी रिपोर्ट में कहा गया है किविगत 20 वर्षों से व्यापार का संतुलन भारत के पक्ष में प्रतिवर्ष बढ़ता ही गया है। भारत से व्यापार करने वाले सौदागर और निर्माता अपने द्वारा लिये जाने वाले माल के बदले में भारत में जो स्वर्ण मुद्रायें देते रहने को विवश होते रहे हैं, उन स्वर्ण मुद्राओं की मात्रा निरंतर बढ़ती गई है और संसार भर का स्वर्ण भंडार भारत में आकर सोख लिया जाता है और फिर वह भारत से बाहर कभी नहीं जाता। भारत का व्यापार और उद्योग इतना अधिक सक्रिय और सक्षम है और उसके उत्पादनों की मांग इतनी अधिक है तथा विदेशी माल की मांग भारत में इतनी कम है कि विदेश के सभी व्यापारियों को भारत का माल खरीदने के एवज में अपना माल देने की स्थिति नहीं बचती और उन्हें स्वर्ण मुद्रायें देनी पड़ती हैं। इस प्रकार संसार भर की स्वर्ण मुद्रायें अपरिमित मात्रा में भारत में आती रहती हैं।
यह तब है जब ईस्ट इंडिया कंपनी के भ्रष्ट अधिकारी और कर्मचारी 18वीं शताब्दी के शुरू से ही भारत का धन गुप्त रूप से विदेशी बैंकों में उसी प्रकार जमा कर रहे थे, जैसा कांग्रेस शासन में कांग्रेस से उपकृत लोगों ने स्विस बैंकों में गुप्त रूप से जमा किया। इस गड़बड़ी के बावजूद तथा भारतीय माल की कीमत बहुत घटा कर देने के बावजूद 15 अगस्त 1947 ईस्वी को ब्रिटेन भारत का कर्जदार था। भारत के श्रेष्ठ वस्त्रों की दुनियाभर में मांग थी। समस्त यूरोप, समस्त अरब क्षेत्र, संपूर्ण तुर्क साम्राज्य और पश्चिमी अफ्रीका में भारतीय वस्त्रों तथा इत्र, सुगंध, लोभान, मसाले आदि की धूम थी। यह बात तो स्वयं एंगस मेडिसन ने लिखी है कि 18वीं शताब्दी ईस्वी के आरंभ तक भारत विश्व में सकल घरेलू उत्पादनों में सर्वोपरि था। यह भारत कौन सा भारत था? 15 अगस्त 1947 ईस्वी का भारत नहीं। 14 अगस्त 1947 ईस्वी का भी भारत नहीं और 1922 ईस्वी का भी भारत नहीं। अपितु यह वह भारत था जो संपूर्ण ईरान और अफगानिस्तान से लेकर म्यांमार तक तथा कजाकस्तान-तुर्कमेनिस्तान और तिब्बत से लेकर हिंद महासागर तक फैला था। यह संपूर्ण भारत अत्यंत प्राचीनकाल से विश्व का सर्वाधिक समृद्ध भरत क्षेत्र रहा है अर्थात् पालक और पोषणकर्ता क्षेत्र रहा है। यह केवल आत्मनिर्भर नहीं रहा है अपितु अभावग्रस्त क्षेत्रों और देशों का भी आपूर्तिकर्ता तथा पोषक रहा है। संसार में सब का पोषण करने की सामथ्र्य भरत क्षेत्र में ही रही है। आज तो यह तथ्य ही भुला दिया गया है।
जिसे ग्रीस कहते हैं और अपनी हीनता छिपाने के लिये तथा अपने को भी कुछ प्राचीन दिखाने के लिये 19वीं शताब्दी ईस्वी में पहली बार जिसे यूरोप का अंग बताया जाने लगा वह क्षेत्र तो भूमध्य सागर के एक छोटे से कोने, जिसे एजियन सागर कहा जाता है, उसके आसपास मेंढकों की तरह फैली हुई बसावटें मात्र था। स्वयं प्लेटो ने यह कहा था किग्रीक कालोनियां एजियन सागर के आसपास इस तरह बिखरी फैली हैं जैसे किसी तालाब के आसपास चीटियां और मेंढक हो।यह उद्धरण 1999 ईस्वी में संयुक्त राज्य अमेरिका के न्यूयार्क शहर से नार्टन एंड कंपनी द्वारा छापी गई विलियम गोर्डन ईस्ट की पुस्तकदि जाग्रफी बिहायंड हिस्ट्रीके पहले ही अध्याय में लेखक द्वारा दिया गया है। जिससे स्पष्ट है कि आज भी यूरोप और अमेरिका के लोग यह तथ्य स्मरण रखते हैं। परंतु भारत में अनपढ़ों के झुंड पता नहीं किस सिंकदर महान की गौरवगाथा गाते रहते हैं।
वस्तुत: यूरोप का कुल इतिहास ही 1500 वर्षों का है। उसके पहले वहां केवल जंगल और दलदली इलाके ही थे। अपनी भू संरचना और जलवायु के कारण यूरोपीय क्षेत्र अभाव, कंगाली और कष्टों का क्षेत्र रहा है। दुनिया की लूट के बाद 20वीं शताब्दी ईस्वी में पहली बार वहाँ के सर्वसाधारण लोगों को पेटभर भोजन और कामचलाऊ कपड़े मिल सके हैं। कहने को भी उनके पास केवल सिंकदर और नेपोलियन जैसे सम्राट ही हैं और फिर 20वीं शताब्दी ईस्वी में महारानी विक्टोरिया हैं जो अपने साईस मिस्टर ब्राउन से विवाहेत्तर प्रेम के लिये इतनी चर्चित हुईं कि उन पर फिल्म भी बन गई और उसमें उन्हेंमिसेज ब्राउनही कहा गया। उस फिल्म को देखकर कोई भी जान सकता है कि उनकी स्थिति भारत के सामान्य जागीरदारों की पत्नी से बहुत निचले स्तर की थी। ऐसे राजाओं और रानियों की नकल से या उनके द्वारा अपनाये गये राजनैतिक विचारों और ढांचों की नकल से तो भारत आत्मनिर्भर नहीं हो सकता। क्योंकि इसके ऐश्वर्य और समृद्धि के विस्तृत युगों में यहां एक से एक वैभवशाली सम्राट और साम्राज्ञी हुये हैं, जिनके केवल नामों का उल्लेख करने लगे तो एक महान ग्रंथ तैयार हो जायेगा। इसीलिये आत्मनिर्भरता संबंधी किसी भी विचार के संदर्भ में यह स्पष्ट होना आवश्यक है कि क्या आत्मनिर्भरता का अर्थ केवल आर्थिक आत्मनिर्भरता है या राजनैतिक, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक और धार्मिक आत्मनिर्भरता भी है। परंतु केवल आर्थिक आत्मनिर्भरता को भी अगर ध्यान में रखें तो यह स्मरण रखना होगा कि उसका संबंध केवल उत्पादन से नहीं है। हजारों वर्षों से भारत की जो आर्थिक समृद्धि और वैभव रहा है, वह केवल उत्पादन भर का नहीं है। उत्पादन का तो है ही, परंतु साथ ही प्रॉसेसिंग अर्थात् प्रसंस्करण, भंडारण, सरंक्षण, राजमार्गीय व्यापार, जलमार्गीय व्यापार, समुद्रमार्गीय व्यापार, बाजार का प्रबंध और संचालन, वितरण, यातायात के साधनों, बैकिंग, लेन-देन में सत्यनिष्ठा और सुप्रबंध, ग्राहकों के हितों की संपूर्ण सुरक्षा और आश्वस्ति, सैन्य सुरक्षा और सुदृढ़ साम्राज्य भी इस आर्थिक समृद्धि के अभिन्न अंग रहे हैं।
यह सदा भलीभांति स्मरण रखना चाहिये कि हमारी भूसंरचना और जलवायु के कारण ही यह संपूर्ण भरतक्षेत्र सदा से केवल आत्मनिर्भर नहीं रहा है अपितु प्रचुरता, विपुलता और वैभव का क्षेत्र रहा है, सुजला, सुफला, शस्य श्यामला यह पवित्र धरती संसार के सभी अभावग्रस्त क्षेत्रों का भी पोषण करने में समर्थ रही है। ईश्वर ने इसे बनाया ही इस रूप में है। इसका इतिहास यही है। यह समृद्धि अनादिकाल से है और निरंतर रही है। जबकि यूरोप का तो हिम प्रलय के बाद धरती के कुछ अंशों के मानवनिवास के योग्य होने के बाद पेड़ों की छाल और भेड़ों की ऊन लपेट कर जीते-जीते किसी प्रकार गुजरबसर करते थोड़े ही समय का ज्ञात इतिहास है और जलवायु तथा भू-संरचना के कारण अभाव और कष्टों से भरे जीवन के लिये अन्यों पर निर्भरता उनकी सदा से विवशता रही है। अत: केवल अनपढ़ और आलसी लोग ही ऐसे यूरोप के अनुसरण के द्वारा भारत को समृद्ध बनाने या आत्मनिर्भर बनाने की कल्पना कर सकते हैं। स्वयं पतंजलि योगपीठ और पूज्य स्वामी रामदेव जी तथा पूज्य आचार्य बालकृष्ण जी महाराज का जीवन इस बात का दृष्टांत है कि किसी भी यूरोपीय विचार या जीवनशैली की शिष्यता स्वीकार किये बिना ही उन्होंने केवल अपना और अपने शिष्यों तथा अनुयायियों का जीवन स्वस्थ समृद्ध बनाया है तथा ज्ञान की दीप्ति से जगमग बनाया है अपितु देश भर के लोगों को स्वस्थ, स्वच्छ, उत्तम और पोषक आहार तथा औषधियां और सौंदर्य-संसाधन तक देने में समर्थ हुये हैं। जो स्वयं में देश के प्रति उनके कर्तव्य का पालन तो है ही, देशवासियों पर उपकार भी है और आत्मनिर्भर जीवनशैली से उपजने वाली समृद्धि, आनंद, उल्लास और वैभव का प्रत्यक्ष प्रमाण है।
यहाँ ये सदा स्मरण रखना चाहिए कि हम भारत की जिस आत्मनिर्भरता और समृद्धि की बात कर रहे हैं, वह केवल आर्थिक नहीं है। वह राजनैतिक है। जब तक भारत के श्रेष्ठ राजा-महाराजा और रानियां, महारानियां सनातन धर्म का पालन करते हुये समाज की मर्यादा और पुरुषार्थ को संरक्षण देते रहे, तब तक भारत का यह वैभव अखंड रहा है। देश के कुछ पापी या दुराचारी लोगों ने बार-बार उसे क्षरित करने का भी प्रयास किया है और कुछ लोगों ने तो इसके लिए इस्लाम को अपनाकर भी लूट और ध्वंस का मार्ग अपनाया। परंतु राष्ट्र की विराट् समृद्धि के संदर्भ में वह लूट और ध्वंस अपनी समस्त विकरालता के बाद भी अनुपात में अल्प ही रहा। क्योंकि समृद्धि और वैभव विशाल तथा विराट् हैं। यह विराट् समृद्धि और वैभव एक श्रेष्ठ राज्यतंत्र के द्वारा ही संरक्षित, मर्यादित और व्यवस्थित रहा है। ऐसा केवल उच्च स्तरीय आध्यात्मिक चेतना और सनातन धर्म के प्रति गहरी निष्ठा होने पर ही संभव है। अब धर्म को रिलीजन या मजहब समझने वाले अनपढ़, आलसी और मूर्ख भी भारत में पैदा हो गये हैं तो इससे सत्य का विलोप नहीं हो जाता। सत्य अपनी जगह है कि सनातन धर्म जो सार्वभौम यम-नियम और जीवन मूल्यों की साधना का पुरुषार्थ है, वही भारतीय राष्ट्रजीवन के सभी क्षेत्रों में अभिव्यक्त होने के कारण ही भारत की यह समृद्धि और वैभव संभव हुआ है। स्वयं पतंजलि योगपीठ में भी इसीलिये सार्वभौम यम-नियम से संपन्न जीवन की ही साधना सिखाई जाती है और उसी से विराट् वैभव संभव हुआ है। यह वैभव लूट और छल पर टिके कथित व्यापार से सर्वथा भिन्न है। इसीलिए खाने-पीने की चीजों या सौंदर्य प्रसाधनों या औषधियों की शुद्धता के बल पर ही यह व्यापार बढ़ा है, मिलावट या कपटपूर्ण प्रचार के द्वारा नहीं।
सनातन धर्म की साधना सनातन धर्मशास्त्रों के ज्ञान और तद्नुरूप जीवन के द्वारा ही गतिशील रहती। राज्य, समाजव्यवस्था, जीवनक्रम और जीवनचर्या, व्यापार और अर्थव्यवस्था सभी कुछ सनातनधर्म से अनुशासित रहने पर ही वैभवशाली रहते हैं। इसीलिये भारत में चक्रवर्ती सम्राटों की तथा हजार वर्षों तक चलने वाले राजवंशों की असीमित और अनंत परंपरा है। इसी का परिणाम है कि भारत में हजारों वर्ष पुराने भव्य मंदिर और महल हैं। जबकि यूरोप में जो 1500 वर्ष पहले का चर्च बताई जा रही इमारतें हैं, वे साधारण से घर का एक कमरा मात्र हैं और उनमें भी जीसस की मूर्ति तो अभी कुछ समय पहले ही बैठाई गईं हैं। संसार का पहला ईसाई देश आर्मेनिया है। वहीं सबसे पुराना चर्च है जो 1500-1600 वर्ष पुराना है। जिसे पादरी ग्रेगरी ने स्वप्न में जीसस को भूमि पर सोने का बना हथौड़ा पटकते हुए देखने के बाद बनवाया था। परंतु वह भी एक साधारण सा घर था और 500 वर्ष पहले वह एक भव्य इमारत बनाया गया। परंतु यह कथित भव्य इमारत भी भारत के सामान्य मंदिरों जैसी ही है। सेंट पीटर का चर्च 31 फुट चौड़ा और 42 फुट लंबा है तथा 23 फुट ऊंचा है। इसके समकक्ष राजराज चोल के द्वारा बनवाया गया वृहदेश्वर मंदिर 13 मंजिलों वाला भव्य भवन है जो 66 मीटर ऊंचा है और जिसका शिखर 80 टन (2200 मन) भारवाले पाषाणखंड से बना है तथा स्वर्णमंडित है। तुंगनाथ मंदिर और केदारनाथ मंदिर 5000 वर्ष पुराने हैं और तमिलनाडु का महाबलीपुरम मंदिर या कैमूर का मुंडेश्वरी देवी मंदिर भी 2000 वर्ष से अधिक पुराने हैं। हमारे अधिकांश ज्योतिर्लिंग 2500 वर्ष से अधिक पुराने हैं।
इसी प्रकार हमारे किले और महल भी अत्यंत प्राचीनकाल से पूरी भव्यता के साथ विद्यमान हैं। कांगड़ा का किला 463 एकड़ परिसर में स्थित भव्य किला है जो 2500 वर्ष प्राचीन है। इसी प्रकार चित्तौरगढ़ का विराट् किला है जो वस्तुत: 5000 वर्ष से अधिक प्राचीन दुर्ग स्थल रहा है और जहाँ 1300 वर्षों से तो महान् सिसोदिया वंश का ही शासन रहा है। 13 किलोमीटर की परिधि में स्थित यह दुर्ग 5 किलोमीटर लंबा है और 700 एकड़ में फैला है। जिसमें 7 द्वार हैं और अनेक भव्य मंदिर हैं। इसी प्रकार 1100 वर्ष पुराना आमेर का किला है और 800 वर्ष पुराना जैसलमेर का किला है तथा 1500 वर्ष पुराना ग्वालियर का किला है। ऐसा एक भी प्राचीन महल या दुर्ग तो इंग्लैंड में है और ना तो यूरोप के किसी भी अन्य क्षेत्र में। वहाँ सबसे प्राचीन तो उस्मान राजवंश के द्वारा बनवाया गया किला है जो केवल 500 वर्ष पुराना है। इसी प्रकार इंग्लैंड का डावर कासॅल है जो केंट नामक शहर में है और 900 साल पहले बनवाया गया था। परंतु 700 साल पहले ही पुन: बनवाया गया और जो भारत के बेहद छोटे किलों के समान है।
इसी प्रकार राजमार्ग तथा व्यापार मार्ग भी सबसे प्राचीन भारत में ही हैं। इंग्लैंड तथा अन्य यूरोपीय देशों में तो अभी कुछ समय पहले तक केवल पगडंडियां ही होती थीं। राजमार्गों का निर्माण तो वहाँ 100 वर्ष पूर्व ही शुरू हुआ है।
यह तो हम सब जानते ही हैं कि यूरोप के अधिकांश देशों में सूती वस्त्र पहनना भारत से गये वस्त्रों के कारण ही संभव होता था और 150 वर्ष पहले वहाँ थोड़े-थोड़े हिस्सों में ही थोड़ा बहुत कपास होना शुरू हुआ है। इसी तरह आम, केले, पपीता, अमरूद जैसे अधिकांश फल यूरोप के लोगों को बाहर से ही मिलते हैं और कालीमिर्च या हींग या अजवाईन या तेजपत्ता या अदरक और सौंठ या लौंग और इलायची आदि किसी भी मसाले का स्वाद तो यूरोप भारत और भरतक्षेत्र से परिचय के पहले जानता ही नहीं था। उन्हें खांड का स्वाद पता था और ना ही गन्ने या शर्करा का।  परंतु आत्मनिर्भरता और वैभव के संदर्भ में केवल आर्थिक आत्मनिर्भरता की बात करना बौद्धिक दरिद्रता ही होगी। समस्त आत्मनिर्भरता और वैभव का आधार है सनातन धर्म और सनातन धर्म का प्रतिपालक राज्य। राजनैतिक आत्मनिर्भरता के बिना शेष सभी आत्मनिर्भरताएं क्षणभंगुर सिद्ध होती हैं और राजनैतिक आत्मनिर्भरता आध्यात्मिक बोध तथा सनातन धर्म के ज्ञान एवं प्रतिष्ठा के बिना संभव नहीं है।

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