प्रकृति से खिलवाड़ 'सबसे बड़ी मार’
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सोमा नायर
क्या आपने कभी ध्यान दिया है जब भी कोई बहुत ही गंभीर अवस्था में अस्पताल में दाखिल होता है तो डाक्टरों का ध्यान सबसे पहले और सबसे मुख्य किस बात पर जाता है?
नब्ज तो चल रही है? यानि प्राण वायु तो है? क्योंकिउपचार केवल जीवित व्यक्ति का किया जा सकता है, किसी भी प्राण विहीन का नहीं। अत: एक बात तो स्पष्ट है कि भले ही मृतक व्यक्ति के शरीर में भी सभी अंग होते हैं- आँख, नाक, हृदय, लीवर, किडनी आदि परन्तु अगर प्राण नहीं हैं तो बड़े से बड़ा विशेषज्ञ भी किसी भी अंग की चिकित्सा नहीं कर सकता और यह भी खेद का विषय है कि इसी प्राण का महत्व हमें विशेष रूप से कभी समझाया ही नहीं गया। आज के युग में अगर किसी ने प्राणायाम द्वारा रोग चिकित्सा पर बल डाला है तो वे हैं श्रद्धेय स्वामी जी, जिन्होंने इतने बड़े प्राण विज्ञान को अति साधारण तरीके से साधारण जनमानस तक पहुँचाया है।
बहुत सी बीमारियों को हम सांस की बीमारियों के रूप में जानते हैं, जैसे- दमा, ब्रोंकाईटस आदि।
यह बहुत साधारण सा ज्ञान है कि इसमें सब से पहला उपचार होना ही चाहिए श्वास नलिका को शुद्ध करने का तथा फेफड़ों की शक्ति बढ़ाने का। परन्तु विश्वभर में एक भी आधुनिक अस्पताल ऐसा नहीं बना है जहाँ श्वास के रोगियों के लिए कुछ ऐसे स्थान, कमरे बनाये गये हों जहाँ फेफड़ों को सशक्त करने के लिए, प्राण ऊर्जा बढ़ाने वाले प्राणायाम करवाए जाते हों। इस तरह के पेड़ लगाये गये हों जो अधिक आक्सीजन देते हों। रोग को दबाने और सिलेंडर से नली द्वारा आक्सीजन चढ़ाकर आराम देने का प्रयास किया जाता है। बस जब-जब बीमार पड़ो, यही चिकित्सा की जाएगी। आपातकालीन दशा में तो यह आवश्यक है परन्तु क्या उसके पश्चात् श्वास रोग को कैसे हमेशा के लिए ठीक किया जाये, यह प्रयास आवश्यक नहीं है? क्या यह आवश्यक ही नहीं कि रोग का कारण जानकर उसका निवारण किया जाये?
प्रकृति सबसे बड़ा डॉक्टर है और हमारा दुर्भाग्य है कि हम उसी के पास नहीं जाते हैं। उसी पर हमारा पूर्ण विश्वास नहीं है। इसका भी कारण है- हमें सिखाया ही नहीं गया है कि इस विषय का अध्ययन कैसे करें।
जिन लोगों को कोरोना की द्वितीय लहर याद होगी, वे जानते हैं कि भारत में अधिकतर मौतें आक्सीजन सिलेंडर न मिल पाने की वजह से हुई। अत: आक्सीजन का कितना महत्व है, यह सरलता से समझा जा सकता है। प्रकृति ने वायुमंडल में आक्सीजन को उतनी ही मात्रा में मिश्रण करके हम को दिया है जितनी हमारे लिए आवश्यक है। यह बात अलग है कि हमने उसे अनेक तरीकों से केवल प्रदूषित किया है। फैक्ट्रियों, वाहनों से निकलते धुंए, घरों का बंद डिब्बों में परिवर्तित होना, न आंगन न पेड़- यह किस ओर जा रहे हैं हम? हवा के लिए भी मशीनें लगा रहे हैं। क्या हम इतना भी नहीं जानते कि हवा या आक्सीजन पेड़ बनाते हैं, मशीनें नहीं।
हमने प्रगति तो की परन्तु प्रकृति से दूर होते गये। हमारे घर बंद हैं, वातानुकूलित हैं, दफ्तर, स्कूल वातानुकूलित हैं। बाजार, अस्पताल आदि सब बंद डिब्बे, बड़े या छोटे हैं तो बंद ही। और हम इन बंद डिब्बों में आक्सीजन भरने की कोशिश में लगे हैं। क्या ईश्वर को हमेशा एक सा मौसम बनना नहीं आता था? प्रकृति ने अलग-अलग ऋतुएँ बनाई हैं तो कोई प्रयोजन होगा न?
हम हर चीज मे दखलअंदाजी करके स्वयं को होशियार समझने लगे हैं।
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