हिपेटाइटिस, लीवर सिरोसिस (Liver Cirrhosis) तथा लीवर कैंसर

हिपेटाइटिस, लीवर सिरोसिस (Liver Cirrhosis) तथा लीवर कैंसर

डॉ. नागेन्द्र कुमारनीरज 

निर्देशक चिकित्सा प्रभारी- योगग्राम

विभिन्न प्रकार के लीवर रोग वायरल हिपेटाइटिस, अल्कोहलिक लीवर रोग, नॉन अल्कोहलिक लीवर रोग, जॉण्डिस आदि विभिन्न लीवर रोगों का सही उपचार नहीं होने पर अन्तिम दुष्परिणाम लीवर सिरोसिस होता है। लीवर कितना क्षतिग्रस्त हुआ है। इस पर लीवर सिरोसिस का इलाज निर्भर करता है। सामान्य लीवर का औसत साइज महिलाओं में 7 सेमी. तथा पुरुषों में 10.5 सेमी. तथा वजन क्रम से 1200-1400 ग्राम तथा 1400-1500 ग्राम होता है। शरीर की यह सबसे बड़ी बाह्य स्रावी ग्रंथि है। इसमें कम-से-कम 500 प्रकार की दवाइयां बनती हैं।
लीवर के विभिन्न रोग निम्नलिखित होते हैं-
1. अल्कोहलिक फैटी लीवर डिजीज- जो लोग शराब तथा सिगरेट पीते रहते हैं, उनमें फैट एवं ट्राइग्लिसराइडस लीवर में जमा होकर अल्कोहलिक फैटी लीवर डिजीज पैदा होता है। बाद में फैटी लीवर डिजीज लीवर सिरोसिस तथा लीवर कैंसर पैदा करता है।
2. नॉन अलकोहलिक स्टीएटो (Non alcoholic steato) फैटी लीवर डिजीज- यह रोग उन लोगों में ज्यादा होता है, जो लोग शराब तो नहीं पीते है लेकिन उल्टा-पुल्टा खाना जैसे मलाई, मक्खन, तले-भूने आहार प्रचुर मात्रा में खाते हैं। हलवा, पूरी, चाट, पकौड़ी, फास्ट-फूड, जंक-फूड हमेशा खाने की जिनकी आदत होती है उनमें शरीर मोटा होने के साथ लीवर भी मोटा हो जाता है। शरीर पर चर्बी जमने के साथ लीवर पर भी चर्बी जमा होकर नॉन अल्कोहलिक फैटी लीवर डिजीज हो जाता है।
3. हिपेटाइटिस - संदूषित जल तथा आहार से फैलता है। आहार-विहार ठीक करने से स्वत: ठीक हो जाता है।
4. एक्यूट हिपेटाइटिस - संदूषित जल या कोई पेय पीने से होता है।
5. हिपेटाइटिस बी- शॉर्ट टर्म वाली तीव्र तथा ज्यादा दिन तक चलने वाली लांग टर्म क्रोनिक हिपेटाइटिस होती है। एच.आई.वी. (एड्स संक्रमण की तरह) हिपेटाइटिस बी संक्रमित शरीर द्रव जैसे रक्त, वीर्य, देह द्रव, इन्जेक्शन या रक्त चढ़ाने से फैलता है।
   एलोपैथी में हिपेटाइटिस का उपचार होता तो है किन्तु स्वास्थ्य नहीं मिलता है। नेचुरोपैथी योग आयुर्वेद में ट्रीटमेंट भी है तथा श्योर-क्योर भी है।
6. हिपेटाइटिस सी- तीव्र (एक्यूट) तथा जीर्ण (क्रोनिक) दोनों प्रकार का होता है। हिपेटाइटिस ग्रस्त रोगी का ब्लड चढ़ाने या संक्रमित इन्जेक्शन से फैलता है। प्रारम्भिक अवस्था में इस रोग का पता नहीं चलता है, बाद में इस रोग से स्थायी रूप से लीवर क्षतिग्रस्त हो जाने पर पता चलता है।
7. हिपेटाइटिस डी- अत्यन्त खतरनाक किस्म का होता है। प्राय: यह रोग हिपेटाइटिस बी वालों को ही होता है। रक्त संक्रमण, होमोसेक्सुअलिटी, नस से नशीली दवाएं लेना, संक्रमित रक्त चढ़ाने तथा इन्जेक्शन से फैलता है। ज्यादातर पुरुषों में यह रोग होता है। हिपेटाइटिस-डी (शॉर्ट टर्म एक्यूट) तीव्र तथा (लॉग टर्म क्रोनिक) जीर्ण होता है। उपर्युक्त यकृत रोग भलिभांति उपचार नहीं करने पर मानव जीवन को आजीवन के लिए अभिशप्त कर देते हैं।
8. हिपेटाइटिस जी- यह लीवर रोग की नयी खोज है। वास्तव में यह हिपेटाइटिस-सी वायरस का सगा-सम्बन्धी, भाई-बहन है। सर्वप्रथम यह 1996 में हिपेटाइटिस जी की खोज हुई थी। हिपेटाइटिस जी के वायरस को Humanpegivirus- HPGV भी कहते हैं। हिपेटाइटिस डी वायरस का संक्रमण प्राय: हिपेटाइटिस बी वायरस से संक्रमित लोगों में होता है। जो लोग हिपेटाइटिस बी से संक्रमित नहीं हुए, उन्हे हिपेटाइटिस डी वायरस का संक्रमण नहीं होता है। हिपेटाइटिस बी, हिपेटाइटिस सी तथा हिपेटाइटिस-जी प्राय: संक्रमित रोगी का ब्लड ट्रान्सफ्रयूसन, इन्जेक्शन, रक्तदाता संक्रमित रोगी (Infected Homo/Hetero Binary Sexual Activities and Drugs Addicted Intra Venous Injection Exchange) या संक्रमित माता से शिशु को हो सकता है। अभी तक हिपेटाइटिस-जी को भलिभाति समझा नहीं गया है।
9. ऑटोइम्यून हिपेटाइटिस- हमारे समस्त रोगरक्षक जाबाज सैनिक लीवर कोशिकाओं को ही अपना शिकार बनाने लगते हैं परिणामत: लीवर इन्फ्रलामेशन, लीवर सिरोसिस तथा अन्त में लीवर फेल्योर की स्थिति पैदा हो जाती है।
10. पैतृक जेनेटिक लीवर रोग- माता-पिता के किसी एक या दोनों के परिवार में स्वयं माता-पिता में से किसी एक या दोनों को लीवर रोग हैं, तो बच्चे में लीवर रोग होने की संभावना 40 से 50 फीसदी बढ़ जाती है। यह भी दो प्रकार का होता है-
   एस्ट्रोजन का लेवल बढऩे से त्वचा पर छोटी-छोटी कोशिकाएँ मकड़ी के जाले की तरह स्पाइडर एन्जियोमॉस (Spider angiomos) तथा चेरिएन्जियोमॉस (Chcrriangiomos) संरचना दिखने लगती है।
11. पैतृक हिमोक्रोमेटोसिस लीवर रोग- शरीर में आवश्यकता से अधिक आयरन इकट्ठा हो जाता है। यह आयरन शरीर के विभिन्न स्थानों के साथ-साथ सर्वाधिक लीवर में जमा होता है। यदि उचित उपचार से लोहा को ठिकाने लगाने की व्यवस्था की जाये तो यह लीवर को क्षतिग्रस्त करके लीवर रोग पैदा करता है।
   हिमोक्रोमेटोसिस रोग HEF नामक जीन के डिफेक्टिव वेरिएन्ट म्यूटेशन के कारण होता है। जो माता-पिता दोनों या किसी एक से संतान में आता है। इसमें लीवर से स्रावित हेपसिडिन (Hepcidin) हार्मोन जो लोहे को शरीर के लिए उपयोगी बनाता है, उसका अभाव हो जाता है। शरीर में लोहा किस अंग को जरूरत है तथा लोहे को कहाँ पर स्टोर करना है सारा कार्य हेपसिडन हार्मोन करता है। हेपसिडिन के अभाव में यह काम ठप्प हो जाने से लोहा लीवर तथा अन्य अंगों जैसे किडनी, लीवर तथा हार्ट में जरूरत से ज्यादा जमा होने से फेल्योर की स्थिति पैदा होती हैं।
   नवजात शिशुओं, किशोरों के कुछ विशेष खून की कमी वाले रोग जैसे- थैलेसिमिया, कुलीज एनीमिया, हिमोफिलिया, सिकल सेल एनीमिया या कैन्सर आदि में बार-बार रक्त चढ़ाना पड़ता है। प्री-मेनोपॉज या पोस्ट-मेनोपॉज तथा गर्भाशय एवं अन्य अंगों के रोग में भी खून चढ़ाना पड़ता है, ऐसी स्थिति में लीवर में लोहा जमा होकर सेकण्ड्री हिमोक्रोमेटोसिस लीवर रोग पैदा करता है।
   जोड़ो में दर्द, पेट दर्द, थकान, कमजोरी, मधुमेह, नपुंसकता, हार्ट फेल्योर के लक्षण दिखते हैं। खाने में नॉन हिम आयरन फूड तथा कैल्शियम, फायटेट एवं फास्फेट वाले आहार जैसे सभी प्रकार के अनाज ज्वार, बाजरा, रागी, बीन्स, सब्जियाँ, फल, सुखे मेवे, मूंगफली, बादाम, अखरोट, चाय, दूध तथा दूध से बने पदार्थ, तर्बूज, मशरूम, एवोकोडो, ब्रोकोली आदि दें।
   निषेध- हिम (आयरन) वाले आहार आर्गन मांस, मछली, अण्डा, लाल मांस, सी-फूड, आयरन के अवशोषण में सहायता करने वाले विटामिन-सी तथा वाले आहार, शुगर आयरन फोटिफायड फूड, मल्टी विटामिन टबलेट, शराब पूर्णतया निषेध है।
12. पैतृक विलसन रोग- जिन गर्भस्थ अजन्मे शिशुओं मेंसेरुलोप्लासमिनएन्जाइम का अभाव होता है उनमें जन्म के बाद भी 95% कॉपर उपयोगी नहीं हो पाता है। प्लाज्मा में कॉपर की कमी होने से फेरस ऑयरन फेरिक आयॅरन में बदल नहीं पाता है, परिणामत: लीवर में कॉपर का लेवल बढऩे लगता है जिससे लीवर क्षतिग्रस्त तो होता ही है, इसके अतिरिक्त रक्त प्रवाह में कॉपर की मात्रा बढऩे से शरीर के अन्य अंगों तथा दिमाग में पहुंच कर मेन्टल रिटार्डेशन, पार्किन्सन रोग, आँखों में ब्राउनरिंग जिसेकेयसर फ्लिश्चर रिंगकहते हैं, बनने लगता है। विल्सन रोग को हिपेटो लेन्टीकुलर डिजेनरेशन रोग भी कहते हैं।
   विल्सन रोग भी ATP7B जीन के डिफेक्टिव वेरिएन्ट म्यूटेशन के कारण होता है। यह जीन ही अतिरिक्त कॉपर को लीवर से आँतों के रास्ते निकाल बाहर करता है। ATP7B जीन के 300 से अधिक अलग-अलग म्यूटेशन पाये गये हैं। यह जीन माता-पिता तथा उनके अति नजदीकी संगे संबंधियों द्वारा शिशुओं में स्थानान्तरित होता है। सेरूलोप्लास्मिन इसी जीन द्वारा निर्देशित एवं नियंत्रित होता है। विशेष प्रोटीन सेरूलो प्लास्मिन कॉपर को लीवर से रक्त प्रवाह तथा जिस अंगों में आवश्यकता होती है वहाँ पहुँचाने का काम करता है। अतिरिक्त कॉपर को आँतों के रास्ते निकाल बाहर करता है। कॉपर धारक सेरूलोप्लासमिन प्रोटीन आयरन के मेटाबॉलिज्म में भी सहायता करता है। इसलिए सी.पी. जीन द्वारा इनकोडेड सेरूलोप्लास्मिन एक फेरोऑक्सीडेज एन्जाइम के रूप में जाना जाता है।
   कॉपर का उपयोग विभिप एन्जाइम निर्माण में होता है। साइटोक्रोम सी ऑक्सीडेज, CU/ZN डिपेन्डेन्ट सुपर ऑक्साइड डिस्म्यूटेस, टायरोसिनेस, डोपामिन बीटा हाइड्रोक्सीलेस, सेरूलोप्लास्मिन तथा पेप्टीडाइल-अल्फा-मोनोऑक्सीलेस के लिए कॉपर अति आवश्यक होता है। ऊर्जा तथा लाल रक्त कण निर्माण के लिए कॉपर जरूरी है। यह कनेक्टिवटिशूज सेन्ट्रल नर्वस सिस्टम के कार्य को भी संचालित करता है। टायरोसिनेस एन्जाइम त्वचा एवं बालों के रंग निखार हेतु मेलानिन का निर्माण करता है। डोपामिन बीटा हाइड्रोक्सीलेस डोपामिन को नारएपिनेफ्रिन में बदल देता है। कोशिकाओं के माइट्रोकॉण्ड्रिया में स्थित साइटोक्रोम सी जीवन रक्षक ऊर्जा .टी.पी. के निर्माण तथा एपोपटौपिक क्रिया द्वारा क्षतिग्रस्त कोशिकाओं तथा रोगाणुओं को नष्ट करता है। शरीर में कॉपर का बहुआयामी उपयोग है, लेकिन यही कॉपर तथा सेरूलोप्लासमिन का लेवल बढऩे से संक्रमण, हार्ट डिजीज, आर्थराइटिस, ल्यूकेमिया, हॉजकिन लिम्फोमा होता है।
   आहार में कॉपर की कम मात्रा वाला गेहूँ, ज्वार, बाजरा, मक्का, रागी, चावल, दूध, दही, घी, फल, कॉफी, चना, गूड़ इत्यादि कच्चा आम, लेट्स, पालक, चुकन्दर, गाजर, आलू, करेला, लौकी, फूलगोभी, ककड़ी, फली, भिण्डी, टिण्डा, जौ, रागी, सेवई, काला चना, मसूर, चौलाई, पत्तागोभी, सेलेरी, कढ़ीपत्ता, मेथीपता, चचिण्डा, तरोई, हरा टमाटर आदि लें।
   निषेध- कॉपर की अधिक मात्रा वाला आहार चॉकलेट, सुखे मेवे बादाम, अखरोट, मूँगफली, पिस्ता, खूर्बानी आदि मशरूम, लाल एवं आर्गन मांसाहार, शेलफिस आदि मछली, अल्कोहल, कॉसा बत्र्तन तथा कॉपर बत्र्तन वाला जल, सप्लीमेन्ट वाले आहार एवं मल्टी विटामिन, हार्लिक्स, सोयाबीन, कोकोनट, अरहर का दाल, सिंघाड़ा, कमल ककड़ी, अजवाइन, धनिया, काली मिर्च इत्यादि नहीं खायें।
13. अल्फा-एण्टीट्प्सिन (AAT) अभाव जन्य लीवर रोग- जब लीवर पर्याप्त मात्रा में ..टी. बनाने में असमर्थ हो जाता है तो एक खास प्रकार का प्रोटीन सारे शरीर में इस एन्जाइम को टूटने से बचाता है लेकिन शरीर की यह अवस्था फेफड़े के रोग के साथ लीवर रोग भी पैदा करता है।
   यह लीवर तथा फेफड़े का एक असंभाव्य जनेटिक रोग है। यह 20-50 वर्ष के आयु के लोगों को होता है। इसमें (AAT) अभाव जन्य रोग SERPINA-1 जीन में पैथोजेनिक वेरियन्ट म्यूटेशन के कारण होता है। यह जीन ही लीवर को अल्फा एण्टीट्रिप्सिन बनाने हेतु निर्देश देता है। WBC एक अन्य प्रोटीन न्यूट्रोफिल एलेसटेस (Neutrophil Elastase) बनाता है। इसका भी नियंतरण भी (AAT) द्वारा होता है। न्यूट्रोफिल एलेसटेस शरीर को संक्रमण एवं रोगाणुओं से लड़ता है। शरीर की रक्षा करता है। जब (AAT) न्यूट्रोफिल को नियंत्रण करने में असफल हो जाता है तो यह फेफड़े तथा यकृत के  स्वस्थ कोशिकाओं का भी नष्ट करने लगता है। जेनेटिक परिवर्तन होने से लीवर कोशिकाए (AAT) का निर्माण कम करती है या ठप्प कर देती है अथवा वेरियन्ट (AAT) बनने से अच्छी तरह काम नही करता है। खतरनाक एवं असामान्य (AAT) का निर्माण होता है। न्यूट्रोफिल एलेस्टेस विकृत होकर फेफड़े एवं यकृत के ऊतकों को नष्ट करने लगता है। परिणाम स्वरूप सांस लेने में कठिनाई होने लगती है, ज्यादा मात्रा में लस-लस थूक बनता है फेफड़े तथा यकृत में लस-लसापन बढऩे से व्यायाम तथा काम करने की शक्ति कम हो जाती है। थकान, सांस के साथ छाती में दर्द, घर-घराहट, सांय-सायं एवं सिटी जैसी आवाज एवं घबराहट होता है। करीब 10 प्रतिशत बच्चे तथा 15 प्रतिशत वयस्क (AAT) से ग्रस्त होते हैं।
   फेफड़े तथा लीवर में लस-लसा पदार्थ बनने तथा वहाँ के कोशिकाओं में स्कार (क्षत् चिन्ह) बनने लगता है। यह असंभाव्य रोग (Rare) रोग नहीं है लेकिन इसका निदान असंभाव्य हो जाता है। A-1 AT का अभाव लीवर में पैदा होता है जिससे चलते लीवर में Scar tissue बनते है जिससे लीवर सिरोसिस हो जाता है। A-1 AT प्राय: रक्त प्रवाह द्वारा लीवर से होते हुए फेफड़े (Lungs) तथा अन्य अंगों में पहुँच कर उनकी रक्षा करता है। जीन में पैथोजेनिक म्यूटेशन के  कारण लीवर के कार्य ठप्प हो जाता है। जटिल एवं गम्भीर लीवर क्षतिग्रस्त होने लगता है। लीवर सिरोसिस तथा लीवर कैंसर तक हो जाता है। इसका सबसे बड़ा लक्षण शिशु तथा बड़ों में आँख एवं त्वचा पीली होने लगती हैं। इस रोग से ग्रस्त रोगियों की औसत जीवन (Average life Expectance) 60 वर्ष तक होती है। इसकी कोई चिकित्सा नहीं है। सामान्य पोषक आहार में विटामिन E, D, K के साथ साथ मल्टीविटामिन वाले आहार एवं टबलेट दें। पीलिया को कन्ट्रोल करने के लिए तथा तीव्र खुजली तथा द्रव संचय सूजन को दूर करने के लिए दवाइयाँ देते है। निसर्गोपचार करने से लाभ होता है।  रोग बढऩे पर सिरोसिस, लीवर कैंसर, लीवर फेल्योर आदि जान-लेवा रोग होते हैं।
   जब लीवर सही अंगों से काम नहीं करता है तो शरीर में एस्ट्रोजन का लेवल बढ़ जाता है, साथ ही शरीर टायरोसिनेस (Tyrosinase) नामक एन्जाइम का स्तर भी बढ़ जाता है। टायरोसिनेस में कापर की मात्रा होती है जो मेलानिन का उत्पादन बढ़ाता है, परिणामत: पिगमेन्टशन की स्थिति पैदा होती है।
   आहार में प्रोटीन वाले आहार कीटोजेनिक दें। कार्बोहाइड्रेट वाले आहार का निषेध करें। शरीर की आवश्यकता से अधिक कैलोरी वाले आहार का त्याग करे। लिक्विड एवं जल को नियंत्रित रखें। शरीर में फास्फोरस के लेबल को सतत बनाये रखें। दूध, दही, बीन्स, अंकुरित मूँग, मोठ, मसूर, मटर, चना, मूँगफली का प्रयोग करें। बीन्स, बादाम, अखरोट, काजू तथा सर्वांग अनाज (Whole Grains) का प्रयोग करें।
14. जीव विष एफ्लाटॉक्सिन्स जन्य हिपेटाइटिस- जीव विष एफ्लाटॉक्सिन फंगस वाले मक्का, मूंगफली, बिनौला, राइ, गेहूँ तथा कुछ बादाम, अखरोट आदि काष्टज मेवों पर पलने वाले फफूंद (Fungus) एसपेरगिल्लस पैरासाइटिकस तथा एस-फ्लेवस (Flavas) से उत्पन्न जीव विष एफ्लाटॉक्सिन्स लीवर को क्षतिग्रस्त करके हिपेटाइटिस तथा कैंसर पैदा करते हैं। ऐसे आहार खाने में कड़वे लगे तो खायें, थूक दें। खाद्य पदार्थ को 10000C पर उबालने पर एफ्लाटॉक्सिन्स नष्ट हो जाते हैं।
   हथेलियों पर जलन लालिमा तथा खुजली बहुत ज्यादा बढ़ जाती है। इसे पामर एरिथेमा (Palmar Erythema) कहते हैं, जो हार्मोन असंतुलन होने का संकेत देता है।
15. टॉक्सिक हर्बल हिपेटाइटिस- कुछ दवाइयों या जहरीलें पदार्थों के खाने या हिपेटोक्सिन्स के कारण हो सकता है। कुछ वनौषधियो जैसे मंगोलिया, रूस तथा चीन की प्रसिद्ध जड़ी-बूटी हब्र्स कवा-कवा (Kava-Kava) तथा प्रशान्त द्वीप समूह की जड़ी-बूटी मा-हुआंग के अधिक प्रयोग से टॉक्सिक हर्बल हिपेटाइटिस होता है। ब्लैक कोहोश (महिला स्वास्थ्य) केसकेश छाल (रेचक) चपर्रल, कॉम्फ्रे तथा एलोवेरा पौध जड़ी-बूटी की कुछ प्रजातियां हिपेटाइटिस पैदा करती हैं।
16. एलोपैथी औषधि दुष्प्रभावजन्य हिपेटाइटिस- कुछ एलोपैथी दवाइयाँ जैसे टी.बी., मिर्गी, दर्द तथा बुखार की दवा पेरासिटामॉल, एनाबॉलिक स्टरॉयड दवाइयों, एण्टीबायोटिक, बर्थ कन्ट्रोल की दवा, सल्फा मेडिसिन, कॉलेस्ट्रॉल, स्टेटिन्स, एस्प्रिन तथा ज्वरनाशक तथा नन स्टेरॉयडियल एण्टी इन्फ्लामेट्री मेडिसिन का अधिक प्रयोग लीवर को क्षतिग्रस्त करता है।
17. अन्य कारक जन्य हिपेटाइटिस-
  1.          नीडलों के अदला-बदली। 
  2.          नॉन स्टेरालाइज्ड़ नीडल से टेटू बनवाने।
  3.        ऐसी नौकरी जहाँ ब्लड या अन्य देह द्रव (body fluid) से एक्सपोज्ड होने की संभावना।
  4.          बिना सुरक्षा के सेक्स।
  5.          मधुमेह या ज्यादा कोलेस्टरॉल डिसलिपिडेमिया।
  6.          पारिवारिक इतिहास।
  7.          अधिक वजन।
  8.          पेस्टीसाइड्स से या अन्य टॉक्सिन्स एक्सपोजर।
  9.          कुछ दवाइयां तथा अल्कोहल एक साथ लेने से।
  10.          कुछ दवाइयों का अत्यधिक प्रयोग खतरनाक हो सकता है।
  11.          लीवर रोगी, एच.आई.वी. रोगी, बूढ़े रोगी, ज्यादातर महिलाएँ, लगातार ज्यादा दिन तक दवाओं के प्रयोग करने वाले रोगी, हिपेटाइटिस से ग्रस्त होते हैं। ऐसे रोगियों में पेट दर्द, थकान कमजोरी, ज्वर, मितली, वमन, भूख की कमी, गहरा पीला पेशाब, पीला, राख मिट्टी जैसा पाखाना, आँख एवं त्वचा पीली आदि लक्षण दिखते हैं।
  12.          कुछ वेटलॉस तथा बॉडी ब्यूल्डिंग सप्लीमेन्टस हिपेटाइटिस पैदा करती है।
  13.        उपर्युक्त विविध हिपेटाइटिस को समय पर उपचार नहीं होने से यही रोग लीवर सिरोसिस में बदल जाता है।
18. गिलबर्ट सिण्ड्रोम (Gilbert Syndrome)- यह जेनेटिक्स बीमारी है। इसमें UGT1A नामक जीन जो माता-पिता के किसी एक से संतान में आता है। UGT1A जीन की गड़बड़ी से बिलिरूबिन बाइण्डिंग एन्जाइम मेटाबॉलिज्म गड़बड़ हो जाता है। यह सामान्य (Benign) स्थिति है। कोई उपचार की आवश्यकता नहीं होती है। हल्का शरीर एवं आँख पित्ताभ दिखते हैं। ज्यादा थकान, तनाव या उपवास में पीलिया के लक्षण उभड़ जाते हैं। हल्का पेट के दाहिनी तरफ  दर्द, खुजली, थकान, मितली, भूख की कमी तथा कमजोरी दिखती है।
19. बडचिआरी सिण्ड्रो (Budd-Chiarisundrome)- बडचिआरी सिण्ड्रोम में हिपेटिक वेन जो लीवर की सफाई करती है। वह रक्त के थक्वे होने के कारण सकरी या जाम हो जाती है, जिसके चलते रक्त पुन: वापस लीवर में पहुँचने लगता है फलत: लीवर रोग ग्रस्त होकर उसका आकार में वृद्धि (हिमेटोमिगली) हो जाता है। इसके कारण तथा तीव्र जीर्ण जटिल लीवर के रोगों में पोर्टल हाइपरटेन्सन, एसोफेजियल वेरीसेज, सिरोसिस उदर मलाशय तथा गुदा का वेरीकोसवेन्स के लक्षण उभरते हैं। इन्फ्लामेटरी बॉवेलडिजीज, सिकलसेल एनीमिया, पॉलीसाइथेमिया में हिपेटिक वेन में रूकावट सकती है तथा उपर्युक्त रोग लक्षण दिखते है।
20. लीवर सिरोसिस:-लीवर सिरोसिस भी दो प्रकार का होता है-
प्राइमरी बिलिअरी सिरोसिस में पिताशय नली धीरे-धीरे क्षतिग्रस्त हो जाती है। जिससे पित्त को छोटी आंत जाने का रास्ता ही बन्द हो जाता है, लीवर में पित्त का जमाव बढ़ जाता है दुष्परिणामत: प्राइमरी बिलियरी सिरोसिस होता है, उपचार नहीं होने पर लीवर फेल्योर की स्थिति पैदा हो जाती है।
प्राइमरी स्क्लोरोसिंग कोलेन जाइटिस (Primary Sclerosing Cholangitis) यह पित्ताशय के सृजन, जलन, दर्द, इन्फ्लामेटरी स्थिति के कारण पित्त की नली क्षतिग्रस्त हो जाती है। दुर्घटनावश पित्त प्रवाह का रास्ता बन्द होने से लीवर में पित्त का जमाव तथा दबाव बढक़र के यकृत कोशिकाओं को नष्ट विनष्ट करने लगती है। इससे लीवर सिरोसिस तथा लीवर फेल्योर की स्थिति पैदा होती है। इसमें रक्तस्त्राव, पैर, हाथ पेट में देह द्रव जमने से सूजन, पेशाब गहरे रंग का तथा त्वचा पर रक्त का जमाव से काले, लाल भूरे बैंगनी धब्बे (Brusing)  दिखते हैं।
   उपर्युक्त लीवर रोगों का प्रारम्भ में उचित उपचार नहीं होने पर, लीवर रोग होने पर भी लोग अल्कोहल या फैटी फूड खाते रहते हैं, धूम्रपान करते रहते हैं वे ही लीवर सिरोसिस से ग्रस्त हो जाते हैं। सिस्टिक फाइब्रोसिस तथा सिफलिस के कारण भी लीवर क्षतिग्रस्त होकर सिरोसिस हो जाता है। लीवर में स्वत: अपनी क्षतिग्रस्त कोशिकाओं को पुनर्जीवित एवं स्वस्थ करने की क्षमता होती है। लीवर को थोड़ा सा भी आराम एवं आहार-विहार विचार सही होने से यकृत कोशिकाएँ पुन: पुनर्जीवन प्राप्त करने की क्षमता से लैस होती हैं। लेकिन क्षतिग्रस्त कोशिकाएं संख्या में अधिक होने से वे लीवर को अत्यन्त कठोर एवं सख्त बना देती हैं, जिससे लीवर फंक्शन भलीभांति नहीं हो पाता है तथा लीवर सिरोसिस की नींव पड़ती है। लीवर सबसे वृहद् जैविक फार्मेस्युटिकल फैक्ट्री है जहाँ लाखों कोशिकाएं सतत कार्यशील रहते हुए आवश्यकता अनुसार 500 प्रकार की जैव रसायन औषध तैयार निर्माण, नियंत्रण, नियोजन एवं नियमन कर शरीर को स्वस्थ रखती है। स्कार ऊतकों की वृद्धि के कारण लीवर की स्थिति अत्यन्त जटिल एवं गम्भीर हो जाता है। चौथी स्थिति में अत्यन्त विकट एवं लीवर रोग की अन्तिम स्थिति (End stage of liver disease) होती है तथा 5वीं स्थिति में लीवर कैंसर होता है जहाँ से आरोग्य की ओर लौटना मुश्किल हो जाता है। कई रोगी लीवर ट्रान्सप्लान्ट कराते हैं। लेकिन उसकी सर्वाइवल रेट 5 साल के लिए 11 प्रतिशत ही हैं।

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21. लीवर कैंसर- किसी भी अघौ में फैले कैंसर के कारण लीवर का कैंसर होता है तो उसे सेकण्ड्री लीवर कैंसर तथा किसी लीवर रोग के कारण से लीवर का कैंसर होता है उसे प्राइमरी लीवर कैंसर कहते हैं। लीवर में सामान्य कैंसर की उपज एक नन्हें से बिन्दु आकार के स्पोट दाग गांठ से प्रारम्भ होकर एक सिंगल ट्यूमर बनाता है। धीरे-धीरे बढ़ते हुए अन्य अंगों में भी फैल जाता है।
22. जलोदर (एसाइटिस)- उपर्युक्त जटिल लीवर रोगों में एसाइटिस यानि पेट के निचले हिस्से में तरल पदार्थ जमा होकर जलोदर की स्थिति पैदा होती है जो बाद में गम्भीर हो जाती है।
-क्रमश:

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